पुस्तक संस्कृति - अपने में ब्रह्मांड समेटे इन्द्रधनुष सी यात्रा
पुस्तकें कई बात वह सिखा जाती हैं जो अच्छे से अच्छे वक्ता और विश्विद्यालय नहीं सिखा पाते। वह विचार को परिष्कृत, अनुभव और आजमाकर लिखी होने से हमारे दिल, दिमाग तक असर करती हैं। यह ऐसी संजीवनी है जो ईश्वर ने हम मनुष्यों के लिए सदैव हरी भरी रखी है।
इस बार की पुस्तकें रोचकता के साथ साथ रोमांचक और नए प्रयोग से भरी हैं।दो आत्मकथाएं, दो काव्य संग्रह, कथा संग्रह और आलोचना के साथ दो पत्रिकाएं भी हिंदी के विस्तृत वैश्विक जगत में प्रेषित होगी।
कहते हैं न, "यदि आपके पास पुस्तक पढ़ने की योग्यता नहीं तो आप इंसान ही नहीं हैं।" किताबें हमें अच्छे इंसान के साथ साथ प्रकृति, ईश्वर, व्यक्ति और खुद से प्यार करना सिखाती हैं। साथ ही जीवन में आने वाली बाधाओं से पार पाना भी बताती हैं। तो इन सभी बेहतरीन किताबों की संक्षिप्त यात्रा यहां करके इन्हें मंगवाएं।
घर बाहर, काव्य संग्रह, संतोष चौबे, आईसेक्ट प्रकाशन, भोपाल
समाज, आदिवासी और अंतर्मन की बात करती कविता
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एक सशक्त कथाकार संतोष चौबे का काव्य संग्रह जब पढ़ने के लिए प्रारंभ किया तो विषयों की रेंज और उनके संतुलित दृष्टिकोण ने प्रभावित किया। कुछ पृष्ठ पढ़ते ही लग गया कि कविताएं यथार्थ और खरी खरी वाली हैं। बिंब विधान और शब्दों के सटीक चयन ने बात पुष्ट कर दी।
वास्तव में लेखन, चाहे व्यंग्य, कथा, कविता, संस्मरण कुछ भी हो लेकिन उसका बहुआयामी होना अनिवार्य है। एकरुपता, एकांगी दृष्टिकोण लेखन को उठने नहीं देता। संग्रह की कविताएं विभिन्न विषयों और कोनो में जाती हैं। उन अंधेरों की भी पड़ताल करती हैं जहां बहुत से लोग जाने का साहस नहीं करते।
" मेरे अच्छे आदिवासियों /विस्थापित हो जाओ पर.../ ... पर देखो दे देना पता अपना/ क्योंकि/ बुलाएंगे हम तुम्हें/ कभी-कभी/ नाचने/ अपने राष्ट्रीय पर्व पर
कर लेंगे हम/ तुम्हारे पेड़ों की सुरक्षा/ उन्हें काटकर और/ तुम्हारे खनिजों को भी/
आपस में बांट लेंगे ..."
जब यह कविता मैंने पढ़ी तो कुछ देर मैं स्तब्ध हो गया।
ऐसी ही अछूते विषयों और अभिधा की कविताएं इस संग्रह में हैं। अच्छे दिनों की आस में कवि कहता है, " आना /जब शहर में/ अमन चैन हो और/ दहशत से अधमरी /ना हो रही हों सड़कें/
इस लंबी कविता में आगे कहता है कवि, " जब असफलताएं छाई हो/ घनघोर निराशा की तरह/ जब उठता हो /अपनी क्षमता पर से / मेरा विश्वास/ तब देखो/ मत आना/ मत आना/ दया या उपकार की तरह..."
यह स्वाभिमान ही है जो मनुष्य को जिंदा रखे हुए है।
संग्रह में कुछ कविताएं परिवार के लोगों को लेकर हैं वह अलग से ध्यान खींचती है।
हालांकि कुछ कविताओं का विस्तार कम किया जाना चाहिए था।
एक समृद्ध, रोचक और समझ में आने वाला काव्य संग्रह पाठकों तक लेखक पहुंचाने में सफल रहा है।
आशिकी के नए कारनामे, व्यंग्य संग्रह, भावना प्रकाशन, दिल्ली, लालित्य ललित
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व्यंग्य के तीर घाव करें गंभीर यह बात लालित्य ललित लेखन पर सटीक बैठती है। इनके करीब पचास से ऊपर व्यंग्य संग्रह आ चुके हैं। व्यंग्य विधा में जहां दूसरों पर चोट होती है वहीं व्यंग्यकार खुद को भी नहीं छोड़ता है।
लालित्य ललित जिस सूक्ष्म दृष्टि और भाषा के लालित्य के साथ आगे बढ़ते हैं, वह गुदगुदाता है, सोचने पर मजबूर करता है। उम्मीद है जिन का इशारों में जिक्र है वह अपना तौर तरीके बदलेंगे, सुधरेंगे तो क्या ही?
दरअसल जिस तरह शॉर्टकट के लिए कोई कुछ भी करके आगे आना चाहता है उस पर तीखा और मारक व्यंग्य है। यह भी स्पष्ट है कि आज शुद्ध दोस्ती और विशुद्ध प्यार रहा ही नहीं। हर सम्बन्ध स्वार्थ केंद्रित है। पुस्तक के व्यंग्य लेख जहां पुरुषों की आशिक मिजाजी की पोल खोलते हैं वहीं स्त्रियों की चालाकी और होशियारी पर भी लेखक ने व्यंग्य के माध्यम से बहुत कुछ कह दिया है। कई स्वनाम धन्य व्यंग्यकार बेनकाब हुए है पर इशारों ही इशारों में। सामान्यत हिंदी साहित्य जगत में प्रवेश की तीन शर्ते हैं पहली गंभीर अध्ययन, पांच अच्छी किताबों के नाम जुबान पर हो। दूसरी योग्य ईमानदार लेखकों की संगत।तीसरे अपनी रचना को दस नहीं तो चार बार सुधारना और फिर भेजना। अस्वीकृति के अनगिनत धक्के।तब जाकर स्तरीय पत्रिका में रचना आती है जो हजारों घरों में सुधि पाठकों तक आपको ले जाती है। लेकिन अनेक स्त्रियां यह करने की जगह मुस्कान, आंखों की गुस्ताखियां और फेवर से पहले ही साल में प्रकाशन वह भी बार बार।दूसरे में वरिष्ठ व्यंग्यकार का तमगा और तीसरे वर्ष में " मुझे भी साहित्यिक कार्यक्रम में वक्ता के रूप में बुलाएं का भ्रम पालती हैं। वह भी इन कारनामों में शामिल हैं। कुछ एक हैं जो अयोग्य को अवसर देते हैं पर वह कुछ कदम के बाद ही औंधे मुंह गिरते हैं।
संग्रह में विषयों (और पात्रों की भी) विविधता है। कमी यह लगी कि कुछ व्यंग्यों में पात्रों का दोहराव है। इसे थोड़ा कम होना चाहिए।पढ़ने योग्य संग्रह।
लंदन से रोम, यात्रा वृतांत, विमला भंडारी, (9414759359)
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यात्रा वृतांत अक्सर उबाऊ और एकरस हो जाते हैं।पर यह ऐसा नहीं है। रोचकता और जानकारी से भरपूर।सबसे अच्छी बात है अनकट, सहज और ग्राह्म है। यूरोप यात्रा के बारे में कई अद्भुत जानकारी इस दो सौ पृष्ठ की किताब में मिलेंगी। लंदन, पेरिस, रोम, बेल्जियम, ज्यूरिख, स्विट्जरलैंड, म्यूनिख, जर्मनी तक की यात्रा बहुत सलीके से सचित्र यह पुस्तक कराती है। Bmw की फैक्ट्री हो या एफिल टॉवर की बारीकियां, चर्च के विवरण हो या फिर हिटलर की राष्ट्रवादिता, अपने देश को मजबूत करने की उसकी चाह और भरपूर समर्थन सब है। यह भी है कि किस तरह भारतीय खाना और स्थानीय भोजन कहां और कैसे मिलता है। पूरी पुस्तक पढ़ने पर यही अनुभव होगा कि आप यूरोप भ्रमण करके आए हैं।
एक रोचक बात अभी नया ज्ञानोदय के कथेतर गद्य विशेष अंक में मंगलेश डबराल का ज्यूरिख का संस्मरण पढ़ा। तो दोनों, विमला भंडारी और डबराल जी के लेखन में फर्क महसूस हुआ। एक जहां अपने काव्य पाठ और वहां के खास ब्लाइंड रेस्टोरेंट, जिसमें सभी ब्लाइंड है पर लिखते हैं। और दर्शनीय स्थलों उनकी ऐतिहासिकता से मुक्त हैं वहीं विमला जी यात्रा वृतांत को उसी शैली में लिखती हैं जो पाठक, श्रोता पढ़ना और जानना चाहता है। कहीं भी इनके लेखन में यह खुद नहीं दिखती बल्कि वह स्थल, वहां की संस्कृति, वहां के लोग दिखते हैं, जो लेखकीय ईमानदारी और सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय की प्रशंसनीय बात है।
पुस्तक में दो कमियां मुझे लगी पहली स्थलों और उनके विवरण की शैली में थोड़ी भिन्नता लाए। दूसरी भाषा बहुत ही सरल है थोड़ी साहित्यिक स्पर्श भी होना चाहिए। बाकी सब बढ़िया है।
पुस्तक का स्वागत हो रहा है।
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मेरे घर आना जिंदगी; आत्मकथा, संतोष श्रीवास्तव, 9769023188, प्रकाशन
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अकेलापन इंसान की सबसे बड़ी समस्या है। मनुष्य में अंतर्मन में यह तथ्य जन्म से स्थापित है कि वह समूह में रहना और सबसे घुलना मिलना पसंद करेगा। मनुष्य एक सांस्कृतिक प्राणी है।
पर हालातों और कुछ इंसान की गलतियों से ऐसे हालत बन जाते हैं कि अकेलापन ही नियति बन जाता है। बेबाकी से संतोष श्रीवास्तव अपनी यात्रा को रखती हैं।पिता, बहनें, जीजाजी से लेकर पति, पुत्र हेमंत के आकस्मिक निधन से टूटी स्त्री की यात्रा सब सामने आता है। साहित्य पढ़ना और गोष्ठियों में जाना किस तरह से हमें संजीवनी देता है यह इस रोचक शैली में लिखी किताब से हम समझ सकते हैं। अकेली स्त्री आए वह भी सांस्कृतिक जगत में सक्रिय सभी की निगाह में आती है। मिले चंद ऐसे लोगों के बारे में भी लिखा है तो प्रियदर्शन, सुधा अरोड़ा आदि के गलत और पलटे व्यवहार पर भी बेबाकी से लिखा है। याददाश्त अच्छी होना आत्मकथा की जरूरी शर्त है तो वहीं आत्म मुग्धतता से बचना अनिवार्य। एक शर्त पूरी होती है जिसमें लेखिका को वर्षों पूर्व खाए भोजन का मीनू और स्वाद तक याद है। दूसरी से थोड़ा बचना चाहिए। पुस्तक पठनीय है और बताती है आधुनिक अपनी शर्तों पर जीने वाली नारी की जिंदगी को। पुस्तक में कई जगह ईश्वर की कृपा और उसके विशेष कार्य पर धन्यवाद हैं। पर लेखिका का यह कहना कि "मैं धार्मिक स्थलों पर आस्था नहीं बल्कि पर्यटन की दृष्टि से जाती हूं" विरोधाभासी प्रतीक होता है। उससे बचना चाहिए। मुझे याद है डेढ़ दशक पूर्व मुझे वाराणसी में काशीनाथ सिंह जी के घर जाने का अवसर मिला था।भाई महेंद्र भीष्म, संजय पंकज, बैद्यनाथ झा भी साथ थे। बातों ही बातों में घोर वामी लेखक से मैंने पूछा कि, "आपके घर में भोले बाबा का मंदिर है?" वामपंथी होने की दो ही निशानी हैं एक हमारी संस्कृति की हर चीज की बुराई करना और पश्चिम की तरफ देखना दूसरे भगवान को केवल मूर्ति या पाखंड बताना।इनके शीर्ष लेखकों में शुमार काशीनाथ जी कह रहे थे, " अरे भोलेनाथ तो हर जगह है। मंदिर हमारे घर में भी है।" अब तो वह दौर ही खत्म है।
वक्त की गुलेल, काव्य, (रमेश प्रजापति, 9891592625) सेतु प्रकाशन, नोएडा
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कविताएं एक तरफ सौंदर्यशास्त्र के मानदंडों की अनुपालना करते हुए लिखी जा रही, जो पल्ले नहीं पड़ती। दूसरे वह लोग जो रोज दस कविताओं का बिना विचार किए उत्पादन कर रहे। वह घंटे भर छोड़ें दस मिनट नहीं चल पाती, क्योंकि दूसरा फेस बुक कवयित्री, कवि आ जाते।
ऐसी रचना जो ग्राह होने के साथ किसी विसंगति और कमियों पर भी ध्यान दे तो वह सही अर्थों में साहित्य और समाज की साधना होगी।
रमेश की कविताएं इन मानदंडों को पूरा करती हैं।
"जिनको खड़ा होना था /मार्क्स के झंडे तले /गाने थे आजादी के गीत / वे किस उम्मीद में/ धर्म को/ अपनी पीठ पर ढो रहे हैं"
यह तेवर संग्रह को पठनीय और विचारवान पाठकों की जरूरत बनाते हैं।
"विकास की अंधी दौड़ में/ धरती का कलेजा कांपता है /अचानक जब कोई खटकाता है किवाड़ तो/ अनिष्ट की आशंका से /झनझना उठती हैं दिमाग की नसें"
यह कविता की ताकत है कि वह बड़ी से बड़ी बात को चंद पंक्तियों में हम तक संप्रेषित करती है।
रमेश के नए और अछूते बिंब मुझे चौंकाते हैं। एक सार्थक और बेहतरीन कवि कितने परिश्रम, अनुभव से यहां तक पहुंचता है यह उसकी बानगी है, _" निचोड़कर सूरज की आग/ मौन है संध्या का समुद्र...
थोड़ा-थोड़ा रोज झड़ता/ रात के स्याह अंधकार में /चांद का मौन
तोड़ो तोड़ो मौन तोड़ो".
कविताएं प्रभावशाली हैं। कुछ बेहतरीन और अच्छा पढ़ने, अपनी अंतरात्मा से बात करने के तमन्नाई हैं तो यह संग्रह आपके लिए है। कमी केवल यह की सभी कविताएं लोक और जन की हैं, राहत के पल नहीं। पर यही इस संग्रह की ताकत भी है।
अन्नदाता की मौत, उपन्यास, रिजवान इजाजी(9414207693)
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हिंदी जगत में दो तरह का गंभीर लेखन ही रहा है। एक योजना के तहत फार्मूलाबद्ध जिसमें आप देखते हैं पुस्तक आई बाद में और अवार्ड की घोषणा पहले हो गई। जी हां, यह भी पिछले वर्षों में हुआ है। कश्मीर, कोई मुगलकालीन तवायफ, कोई अन्य ऐसे विषय हैं जिन पर एकतरफा खास लोगों ने लिखा और दाम कमाया। दूसरा पक्ष अनदेखा किया।
दूसरी तरह का गंभीर लेखन है उन मुद्दों और विषयों की गहराई में जाना जो समस्या आधी सदी से चली आ रही है। उस पर लेखन तथ्यों, कार्यों और उसके असर का संतुलित प्रयास होता है । मुश्किल यह भी विकट होती है कि उसमें कथा और रोचक उपन्यास का विश्वसनीय ताना बाना बुनना। यह उपन्यास काफी हद तक इन शर्तों को पूरा करता है।
कहानी राजा नामक जागरूक नौजवान के माध्यम से चलती है। प्रशंसनीय बात है कि किसानों की हर समस्या इसमें है। चाहे वह फसलों की बर्बादी से कर्ज में डूबे किसान हो, नई पीढ़ी किसानों की क्यों नहीं खेती से जुड़ रही, बैंक और सहकारी समितिया किस तरह किसानों को कर्ज के जाल में घेर रही, किस तरह किसान छ माह खाली रहता है पर कोई नौकरी नहीं ढूंढ पाता, क्योंकि फिर खेती देखनी होती है।फिर निजी समस्याएं, बीमारी, ब्याह शादी का कर्ज, रूढ़ियों के मध्य एक किसान किस तरह जीता है, इन सभी को शब्दों के माध्यम से सामने लाता है लेखक। साथ ही शिक्षित नई पीढ़ी के माध्यम से वह रास्ता भी बताता है। सामूहिक सहयोग से गेहूं की उपज से आटा पीसकर उसे आसपास के कस्बों और शहरों में खुद किसान सप्लाई करे। स्व रोजगार की बात।
उपन्यास 2007 में लिखा गया था तब इतनी योजनाएं नहीं थीं।
फिर भी विवेकानंद और गांधी के मार्ग पर स्वरोजगार और आत्मनिर्भर होने की बात कथा कहती है।
ऐसे कथानक में यह बहुत बड़ा डर होता है कि कहीं समस्याएं भारी हो जाएं और उपन्यास के मूलभूत तत्व पीछे रह जाए। कुछ स्थानों पर यह दिखता भी हैं जहां रोचकता कम होती है पर अगले ही भाग में लेखक उसे फिर सम्भाल लेता है।
एक पठनीय कृति l वैसे अब किसानों को समर्थन मूल्य पहले से अब काफी बेहतर मिल रहा साथ ही फसल बीमा योजना और अन्य योजनाएं प्रभावी असर डाल रहीं। नई शिक्षानीति दो हजार बीस में ग्रामीण युवाओं को कभी भी शिक्षा प्रारंभ करने और साथ में खेती के लिए पर्याप्त गैप का प्रावधान है। साथ ही ग्रामीण उत्पादनों, स्वरोजगार के लिए प्रोत्साहन योजना और सरल सहकारी ऋण की व्यवस्था है। इन प्रयासों से निसंदेह अन्नदाता को राहत मिली है।पर तेजी से बढ़ता शहरीकरण और खेत बेचकर ऊंची बिल्डिंगे बनाने वाले बिल्डर गांव तक पहुंच गए हैं।आधुनिकता की नई चुनौती।
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घर की औरतें और चाँद, काव्य संग्रह, रेणु हुसैन, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
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इस संग्रह की कविताओं की विविधता चकित करती है। परिवार, प्यार के साथ अनेक शहरों की रूमानी सच्चाई पर भी कई कविताएं हैं। अछूते बिंब और क्राफ्ट के लिए इस संग्रह का द्वितीय संस्करण आया है।
" तुम्हारे भावों की नर्म छुअन/ हवा में अब भी घुल रही ..."(मुलाकात के पल)
इसी के विपरीत कविता है भूल जाओ, " भूल जाओ कि तुम एक हरा पहाड़ थे/और सावन की घटा बरसने को आतुर...
बिजली गिरी, पहाड़ जल गया/घटा राख हो बिखर गई "
यह बिछोह की कविताएं हैं जो उत्तर आधुनिक समय में संबंधों की पड़ताल करती सजग निगाह भी है।
उदयपुर पर कविता की चंद पंक्तियां हैं, " मैं देखती हूं एक पथरीली परी को/ कश्ती में सैर करते/ झील के इस किनारे से उस किनारे तक...
झील में महल के झरोखे से/टिमटिमा रहा है एक दिया/ चांद भी घटता बढ़ता रहेगा पर .../
... एक महल की रोशनी के लिए/एक जीवन को जलना होगा।"
प्रतीकों में यह कविता आज की तेज रफ्तार जिंदगी में टूटी उम्मीदें, बिखरे सपनों की बात कह जाती है। जहां नहीं है तो बस प्यार।
प्रेम मुक्ति की ओर शीर्षक से दस कविताएं बेजोड़ बन पड़ी हैं।यह वह मुक्ति है जो सब कुछ खोने पर नसीब होती है, गर आप टिके रहे तो। मुक्ति दूसरे को मुक्त करके मिलती है।पाश से खुद को मुक्त करना ही जीवन है। पर कितने कर पाए हैं? " हवा ने सोख ली मुस्कान और सपने/ ...यादें और तस्वीरें सूख गईं/ बसंत में खिले पलाशों की ज्वाला/ बुझी नहीं है/तुम पूछ रहे बदल गई हूं मैं?/ नहीं, अपने भीतर यात्रा कर रही हूं "।
यह यात्रा कई बार किसी मंजिल तक ले जाती है तो कई बार अपने ही अंदर के बियाबान में व्यक्ति भटकता है।
संग्रह आश्वस्त करता है कि कविताएं पढ़ी जानी चाहिए।क्योंकि हमारे जीवित होने का प्रमाण हैं।
पुस्तक अच्छे कागज और बेहद खूबसूरत कवर के साथ आई है।इसके लोकार्पण, कांस्टीट्यूशनल क्लब दिल्ली में, एक अतिथि मंडलोई जी के साथ मैं भी था। पुस्तक की काफी प्रतियां दिल्ली के सुधि श्रोताओं ने मेरे सामने खरीदी।
एक अच्छी कविता की किताब।
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मारवाड़ी रजवाड़ी, उपन्यास, कुसुम खेमानी, वाणी प्रकाशन,
दिल्ली
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वरिष्ठ लेखिका कुसुम जी की लेखन यात्रा करीब चार दशकों लंबी है। इस बीच उनके कई कथा संग्रह, चार उपन्यास बेहद चर्चित हुए। विशेषकर "लावण्यदेवी" का तो कई भाषाओं में अनुवाद भी हुआ। ऐसी सिद्धहस्त लेखनी से वर्ष 23 में यह उपन्यास आया है।जो कलेवर में छोटा है पर कथ्य और शिल्प में बहुत बड़ी यात्रा पर हमें ले जाता है। रबिंद्रनाथ टैगोर की रिश्तेदार, सुंदर बालिका ऋतु के माध्यम से यह कथा हर उस लड़की की है जो अनिश्चित भविष्य में सपने देखती है। बस सपने जो सही लोग मिले तो पूरे होंगे अन्यथा अधूरे ही उसके आंखों में कैद रहेंगे। इन्हीं सपनों की घुटन, चोट और पीड़ा को अपने आसपास उन विवाहित अथवा सिंगल मदर में देख सकते हैं आप जो अपने बच्चे को बेहद अच्छे ढंग से अपना सब कुछ समय, पैसा, ध्यान दे रही। उसे वह सब करवा रही जो खुद नहीं कर सकी, पर करना चाहती थीं।मनपसंद पोशाक, पढ़ाई के साथ नृत्य, ड्रामे, स्पोर्ट्स, कंप्यूटर क्लासेज सभी में बच्चा योग्य बने। कोई रोकथाम उस पर वह मां बनी लड़की सहन नहीं करती। उन्हें देखें कभी तो आंखों में दर्द और कोरो के नीचे नमी दिखाई देगी।
पर ऐसा सोचना गलत है कि आपके सपने अब खत्म हो गए। विवाह होना सपनों का अंत नहीं बल्कि और रंग तथा सपने देखने की शुरुआत है। किसी को भी अनुकूल वातावरण और साथी नहीं मिलता। शुरुआती प्यार, भावनाओं के उतार के बाद मोहबंध भी होता है तो मोहभंग भी। ऐसा इस उपन्यास की नायिका ऋतु के साथ भी होता है। पर वह वर्तमान में जीती है। अपने गुणों, शांत और विनम्र स्वभाव से वह अनुकूल वातावरण और परिस्थितियां किस तरह बनाती जाती है यह उपन्यास में रोचक ढंग से बताया गया है।यह एक लड़की की महाविद्यालय शिक्षा से लेकर पीएचडी करने तक की यात्रा ही नहीं अपितु संयुक्त परिवार के सदस्यों का ध्यान रखते हुए बिना किसी का दिल दुखाय किस तरह ऋतु अपनी यात्रा जारी रखती है यह तारीफ के काबिल है। नौकरी यहां लक्ष्य नहीं, अपितु अपनी प्रतिभा का विकास, परिवार को साथ रखकर यह उभरकर सामने आता है। कुछ जगह स्थितियां प्रतिकूल होती हैं तो उन्हें कैसे बिना विरोध के भी धैर्य और बिना अपशब्दों के भी सम्भाल सकते हैं यह वाकई सुखद है। आगे किस तरह वह सफल उद्यमी बनती है इसका चित्रण उपन्यास को हर वर्ग के लिए पढ़ने योग्य बनाता है। करीब नब्बे पृष्ठों की यह गाथा रोचक तो है ही साथ ही एक स्त्री की यात्रा पर आपको ले चलती है। बस कमी यह लगी कि कुछ रोड़ी, ईंट और कांटे और डालते रास्ते में तो यात्रा मुश्किल हो जाती। इतना भी अनुकूल कोई पात्र करले तो वह आश्चर्यचकित करता है। परंतु सच तो सच ही है। कुसुम जी की कलम की तरलता, भावों का संतुलन और ऋतु, दादाजी, पति देव का चरित्र चित्रण बहुत अच्छा है। पात्र खुद बोलते हैं। इस पर एक नाटक भी बन सकता है जो पुरुष वर्ग को प्रेरित करेगा अपने ही परिवार की स्त्रियों के सपनों और उन्हें पूरा करने में सहयोगी बनने के।
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अभिनव प्रयास, त्रैमासिकी, (अलीगढ़, सं.अशोक अंजुम, 9258779744)
यह एक दशक से भी अधिक समय से अपनी सार्थक उपस्थिति हिंदी साहित्य जगत में दर्ज करा रही है। इसके नया जुलाई 25 अंक में बेहतरीन गीत, ग़ज़ल, कविताएं, हाइकु, प्रेम कुमार की कृष्णा सोबती से हुई धरोहर बातचीत, समीक्षाएं, लघुकथाएं, कहानी और हर अंक में किसी विधा पर वरिष्ठ लेखक द्वारा बारीकियां बताई जाती हैं। घनाक्षरी छंद और उसके बारे में बताया है इस बार
अशोक अंजुम स्वयं वरिष्ठ कवि, गजलकार हैं तो हर अंक निखर कर आता है।
(वार्षिक दो सौ पचास रुपए और त्रैवार्षिक 700रुपए)
तीसरी पत्रिका है समकालीन अभिव्यक्ति, दिल्ली से संपादक और कवि उपेंद्र नाथ मिश्र और हरिशंकर राठी (9350899583) करीब दो दशक से इसे प्रकाशित कर रहे हैं।खास बात है इसका सामग्री चयन।बेहद स्तरीय और रोचक कहानियां, कविताएं, समीक्षा, लेख,
लघुकथाएं मिलती हैं। यह एक तरह से हिंदी भाषी हर पाठक को साहित्य की समकालीनता से जोड़ने और बौद्धिक विकास का सफल प्रयत्न है।
अंक संग्रहणीय है और वार्षिक मूल्य चौंकाने वाला है मात्र सौ रुपए।जिसमें एक विशेषांक भी आता है। तीन वर्षीय शुल्क तीन सौ रुपए भेजकर इस पत्रिका को मजबूती प्रदान करें।
इन सभी पत्रिकाओं को मंगवाकर और उनका अध्ययन करके इस कॉलम के पाठक पत्रिका के अनुकूल अपनी रचनाएं भी भेज सकते हैं। साथ ही आजीवन सदस्यता लेकर साहित्य के प्रति अपनी जिम्मेदारी भी निभा सकते हैं।
हिंदी साहित्य की समझ इन पुस्तकों और पत्रिकाओं को अपने बौद्धिक, मानसिक विकास के लिए जरूर पढ़ना चाहिए।सभी अमेज़न, फ्लिपकार्ट आदि पर उपलब्ध हैं।
साथ ही घर परिवार, परिचितों की भावी पीढ़ी को भी इन पुस्तकों से जोड़ने चाहिए।
जिस तरह साफ कपड़े हमें अच्छे लगते हैं वैसे ही अच्छा, स्तरीय साहित्य हमारे मन, दिल को स्वच्छ और उजाले से भर देता है।
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(डॉ.संदीप अवस्थी, जाने माने आलोचक और पटकथा लेखक हैं।
आपको देश विदेश से अनेक पुरस्कार प्राप्त हैं। संपर्क :_ 7737407061, 8279272900)