"मुझे तुमसे आज बात ख़त्म ही करनी है, अनुराधा!"
अमित की आवाज़ कमरे में गूंज रही थी, मानो हर दीवार उस चीख को सोखने में असफल हो रही हो। गुस्से और झुंझलाहट से भरा अमित अनुराधा पर बरस पड़ा था। अनुराधा चुपचाप खड़ी रही, जैसे उसकी ज़ुबान ने साथ छोड़ दिया हो। आँखें भीगी थीं पर चेहरे पर कोई शिकन नहीं, कोई जवाब नहीं।
अमित उसकी चुप्पी से और बिफर गया। इतने में उसके ऑफिस से फोन आया और वो बिना कुछ कहे, ज़ोर से दरवाज़ा पटककर निकल गया।
अनुराधा धीरे-से उठी, दरवाज़ा बंद किया, और बर्तन समेटने लगी। हर एक आवाज़ — स्टील के चम्मच की टनटनाहट, बाल्टी में पानी की छलक — जैसे उसके अंदर की टूटन का संगीत बन गई थी। लेकिन आज उसकी चुप्पी बहुत भारी थी। काम करते करते उसका मन बार-बार वहीं लौट आता, उस एक बात पर अटका रह जाता — "क्या वाकई मेरी इतनी बड़ी ग़लती थी?"
उसका मन अतीत की गलियों में भटकने लगा, जहां सबकुछ सुर्ख और मीठा था।
सात साल पहले की बात है। कॉलेज में पहली बार अमित को देखा था उसने — एक साधारण लेकिन आत्मविश्वास से भरा लड़का। उसकी आँखों में कुछ था जो उसे बाकी सबसे अलग बनाता था। अमित को अनुराधा की सादगी बेहद पसंद थी। धीरे-धीरे दोनों की दोस्ती हुई और वो दोस्ती कब प्यार में बदल गई, दोनों को खुद भी नहीं पता चला।
कॉलेज में सभी कहते थे — “अनुराधा और अमित, जैसे दो हंसों का जोड़ा।” पढ़ाई पूरी होते ही अमित ने शादी का प्रस्ताव रखा, और बिना देर किए, अनुराधा ने हाँ कर दी।
लेकिन जब ये बात अनुराधा के घर पहुंची, तो पिता का चेहरा सख्त हो गया। उन्होंने दो टूक कह दिया — “या तो उस लड़के से शादी कर, और फिर हमें छोड़ दे… या फिर उसे भूल जा।”
अनुराधा धर्मसंकट में फँस गई थी। पर माँ के समझाने और बहुत मान-मनव्वल के बाद पिताजी ने जैसे-तैसे हाँ कर दी। शादी हो गई, पर वो सहमति सिर्फ़ बाहर से थी, दिल से नहीं।
पहले साल शादी किसी सपने की तरह थी। अमित अनुराधा को पलकों पर बिठाकर रखता था। हँसी, घूमना, साथ खाना, हर बात में साथ — हर रोज़ प्यार से भरा होता था। लेकिन जैसे ही एक साल बीता, घर-परिवार, रिश्तेदारों की निगाहें पेट पर टिक गईं। और फिर एक दिन… एक रिपोर्ट ने सब बदल दिया। डॉक्टर ने साफ कह दिया — “अनुराधा कभी माँ नहीं बन सकती।”
अनुराधा अंदर से टूट गई, पर उसे यकीन था कि प्यार में सब मुमकिन है। उसने अमित से कहा — “हम बच्चा गोद ले सकते हैं ना?”
अमित ने जैसे आग बबूला होकर कहा — “अनु, कैसी बात करती हो? ऐसे ही कोई बच्चा गोद ले लेते हैं क्या? ना उसका खून हमारा, ना जात! कल को बड़ा होकर क्या निकले क्या पता!”
अनुराधा की आँखें भर आईं। "पर बच्चे भगवान का रूप होते हैं ना अमित, फिर इनमें खून या जात कैसी?"
“मैंने कह दिया अनु — मैं बच्चा गोद नहीं लूंगा!”
धीरे-धीरे अमित बदलने लगा। वो अब समय पर घर नहीं आता, चिड़चिड़ा रहने लगा, बात-बात पर झुंझलाता, और शराब उसका नया साथी बन गया। अनुराधा ने महसूस किया कि उसका प्यार अब किसी और की ओर बहक चुका है।
फिर भी, उसने कभी शिकायत नहीं की। बालकनी में खड़े होकर सड़कों पर भागते बच्चों को देखकर मुस्कुराती, और सोचती — “काश एक बच्चा होता... चाहे मेरा खून नहीं, पर मेरा प्यार तो होता।”
वो अकेली पड़ती चली गई। न मायका उसका था अब, न ससुराल। फिर भी हर सुबह उठती, घर सहेजती, खुद को संभालती — क्योंकि उसे याद था कि वो सिर्फ़ पत्नी नहीं, अर्धांगिनी है।
एक दिन फिर से उसने अमित से बच्चा गोद लेने की बात छेड़ी — और इस बार अमित फट पड़ा।
“अगर तुमने दोबारा ऐसी बात की, तो मैं तुम्हें छोड़ दूँगा! और हाँ — मेरा किसी और से रिश्ता है तो है, कम से कम मुझे वो सुकून देती है जो तुम नहीं दे सकीं!”
अनुराधा चुप रही। वो समझ गई थी कि अब उसका रिश्ता सिर्फ़ कानूनी रह गया है, दिल का नहीं। पर फिर भी उसने कोई तकरार नहीं की।
उसी दोपहर, अचानक उसका फोन बजा।
"हैलो मैडम, क्या आप इन्हें जानती हैं?"
"किसे?"
"ये मोबाइल जिन भईसाहब का है, उनका अभी-अभी एक्सीडेंट हुआ है। ट्रक से टक्कर लगी है। उन्हें सिटी हॉस्पिटल ले जा रहे हैं, जल्दी आइए।"
फोन कटते ही जैसे ज़मीन खिसक गई। अनुराधा भागती हुई अस्पताल पहुँची। अमित ऑपरेशन थियेटर से बाहर आया — दोनों पैर जा चुके थे।
वो अनुराधा को देखकर फूट-फूट कर रो पड़ा।
“अनु… मुझे माफ़ कर दो… मैंने तुम्हें कभी समझा नहीं… तुम्हारा दर्द नहीं जाना। सब कुछ सहकर भी तुम मेरे साथ रहीं, और मैं… मैं सिर्फ़ अपनी खुशियाँ ढूंढता रहा।”
अनुराधा की आँखों से आँसू बह निकले। उसने अमित का सिर अपनी गोद में रखा और कहा —
“हाफ़ में हमसफ़र को छोड़ देना कौन सी समझदारी है, अमित? मैं तुम्हारी अर्धांगिनी थी… हूँ… और रहूँगी।
प्यार सिर्फ़ साथ मुस्कुराने का नाम नहीं… कभी-कभी साथ रोने का भी नाम होता है।”
अमित ने उसका हाथ थामा — और शायद पहली बार दिल से उसे अपनाया।