जब हम ‘आज़ादी’ शब्द सुनते हैं, तो हमारे मन में सबसे पहले तिरंगा लहराता है, स्वतंत्रता संग्राम की यादें ताज़ा होती हैं, और देशभक्ति की लहर दौड़ जाती है। लेकिन क्या हमने कभी ठहरकर सोचा है कि आज़ादी का असली मतलब क्या है?
क्या यह केवल 15 अगस्त 1947 की तारीख तक सीमित है, या यह एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है? आप खुद सोचे यहां ??
मेरा मानना है ....जिस तरह एक देश को गुलामी से मुक्ति चाहिए, उसी तरह देश के नागरिकों, ख़ासकर स्त्रियों को, हर तरह के बंधनों से मुक्ति मिलना भी उतना ही ज़रूरी है। क्योंकि अगर आधी आबादी ही आज़ाद नहीं है, तो देश की आज़ादी अधूरी है।
भारत की आज़ादी की कहानी बलिदानों, संघर्ष और एकता की कहानी है। सैकड़ों साल की गुलामी, अत्याचार, आर्थिक लूट और सांस्कृतिक दमन के बाद, 15 अगस्त 1947 को हमें राजनीतिक आज़ादी मिली।
लेकिन उस आज़ादी की असली नींव सिर्फ अंग्रेज़ों को देश से निकालना नहीं थी, बल्कि एक ऐसा समाज बनाना था जहाँ सभी को समान अधिकार और सम्मान मिले।
संविधान ने हमें स्वतंत्रता, समानता और न्याय का वादा किया। कई सारे आर्टिकल है जो स्त्री के हित में बात करता है , पर क्या सिर्फ हित में बातें करने या कानूनी अधिकार मिलने से आजादी हमें मिलेगी ।
लेकिन सच्चाई यह है कि राजनीतिक आज़ादी के साथ-साथ सामाजिक, आर्थिक और मानसिक आज़ादी भी उतनी ही ज़रूरी है। जितना जरूरी है समाज को देश में रह रहे लोगों को अपनी सोच बदलने की और जो उनके मन में स्त्रियों के प्रति मिथ्य बना है उस सोच को बदल कर कदम साथ उठाने की ।
जरा पूछो हमसे आजादी मिलने के बाद भी खुद को आजाद नहीं महसूस नहीं करते हैं, जिस देश में रहते हैं खुद को अकेले असुरक्षित महसूस करते हैं......
आज़ादी से पहले भारत की स्त्रियाँ बहुत सीमित दायरे में जीती थीं। बाल विवाह, पर्दा प्रथा, शिक्षा से वंचित रहना, संपत्ति में अधिकार न होना — ये सब आम बातें थीं।
हाँ, कुछ रानियाँ, स्वतंत्रता सेनानियाँ और सुधारक महिलाएँ थीं जिन्होंने अपने दम पर पहचान बनाई, जैसे रानी लक्ष्मीबाई, सरोजिनी नायडू, और विजयलक्ष्मी पंडित। लेकिन ये अपवाद थे, नियम नहीं।
आज़ादी के बाद क़ानून बदले, शिक्षा के अवसर बढ़े, कामकाज के क्षेत्र खुले। लेकिन सवाल यह है क्या स्त्रियाँ वाक़ई पूरी तरह आज़ाद हो पाईं?
कागज़ों पर और संविधान में तो महिलाओं को बराबरी का दर्जा है, लेकिन ज़मीन पर हालात अब भी चुनौतीपूर्ण हैं हमारे लिए...
लैंगिक भेदभाव बेटा-बेटी में अंतर करना अब भी बहुत जगहों पर आम है। खास कर छोटे कस्बों और गांवों में ।
शिक्षा में असमानता गाँवों में लड़कियों की शिक्षा अब भी जल्दी छुड़वा दी जाती है। जहां देश में पुरुषों की साक्षरता दर 87.2% है वहीं महिला साक्षरता दर 74.6% है ।
आर्थिक निर्भरता काम करने वाली महिलाओं का प्रतिशत पुरुषों की तुलना में बहुत कम है।
सुरक्षा , यौन उत्पीड़न, घरेलू हिंसा और दहेज जैसी समस्याएँ अब भी मौजूद हैं। दहेज के नाम पर कई लड़कियों का बली चढ़ा दी जाती है।
दहेज का नाम सुनते ही मुझे तो मध्यकालीन भारत के अलाउद्दीन खिलजी की वस्तु विनिमय प्रणाली याद आती है...आज के समय में वस्तु ही समझा जाता है तभी तो बोली लगती है ।
अगर एक महिला को रात में अकेले सड़क पर चलने से डर लगता है, तो क्या हम कह सकते हैं कि वह आज़ाद है? रेप की न्यूज सुर्खियों में कम नहीं है , इससे आप सभी परिचित हैं । और इस बात से भी परिचित हैं गुनहगारों को सजा नहीं मिलती...आजाद घूमते हैं एक और गुनाह करने के इरादे से।
इतिहास से लेकर वर्तमान तक, यह साफ है कि जब-जब महिलाओं को समान अवसर मिले हैं, समाज और देश ने तेज़ी से प्रगति की है।
शिक्षा में महिलाएँ आगे बढ़ीं तो साक्षरता दर बढ़ी।
कार्यक्षेत्र में आईं तो GDP और नवाचार में इज़ाफा हुआ।
राजनीति में आईं तो नीतियों में संवेदनशीलता और समावेशिता बढ़ी।
असली बात यह है कि महिलाओं की भागीदारी देश की ताक़त को दोगुना कर देती है।
पर हमारा तुश समाज अपने मन में अलग ही विडंबना बना रखी है।
आज़ादी का असली अर्थ अभी मैं समझ ही रही हूं ...
मेरे लिए आज़ादी का मतलब है
डर से मुक्ति चाहे वह किसी अपराध का डर हो, समाज की सोच का या आर्थिक असुरक्षा का।
चुनने की आज़ादी शिक्षा, करियर, शादी, मातृत्व हर चीज़ का फैसला महिला खुद करे।
समान अवसर नौकरी, राजनीति, विज्ञान, खेल हर क्षेत्र में बराबर मौका।
सम्मान घर से लेकर संसद तक, महिलाओं को सम्मान के साथ सुना जाए।
अगर देश आज़ाद है लेकिन महिलाओं को अपने सपनों के लिए संघर्ष करना पड़ता है, तो वह आधी आज़ादी है।
एक उदाहरण सोचिए ....अगर एक पक्षी का एक पंख मजबूत है और दूसरा पंख कमजोर, तो वह उड़ तो सकता है, लेकिन ऊँचाई और दूरी दोनों सीमित होंगी। ऊंचाइयां छू ही नहीं सकती है इसीलिए कई देश भारत से आगे नहीं बहुत आगे है।
देश पुरुष और महिला दोनों पंखों से उड़ता है। मेरे कहने का अर्थ है चलता है।
कानून बदलने से पहले सोच बदलनी होगी।
शिक्षा में लिंग-समानता के विषय को बचपन से शामिल करना चाहिए।
हर लड़की को कम से कम उच्च माध्यमिक स्तर तक शिक्षा देना अनिवार्य हो। काफी हद तक शिक्षा में सुधार हुआ है पर फिर भी अभी बहुत पीछे है।
नौकरी और उद्यमिता में महिलाओं को बढ़ावा देने के लिए सरकारी योजनाओं का सही योजना हो।
तेज़ और सख़्त कानूनी कार्यवाही। ताकि रेप और यौन उत्पीड़न जैसी स्थिति न हो .... गुनाहगार डरे...
पुलिस में महिलाओं की संख्या बढ़ाना। पर कई ऐसे न्यूज सामने आई है पुलिस की वर्दी पहनने के बाद भी स्त्रियां सुरक्षित नहीं हैं..
महिलाओं को लघु उद्योग, स्टार्टअप और खेती में प्रोत्साहन।
समान वेतन का कड़ाई से पालन। कई प्राइवेट संस्थानों में लड़कों से लड़कियों की सैलरी कम दी जाती है।
मैं मानती हूँ कि आज़ादी एक सतत यात्रा है। 1947 ने हमें शुरुआत दी, लेकिन मंज़िल अभी बाकी है।
जब एक लड़की बिना डर के अपने सपनों की उड़ान भर सके, जब किसी महिला को सिर्फ इसलिए पीछे न रखा जाए क्योंकि वह महिला है, तब मैं कहूँगी कि भारत सच में आज़ाद हुआ है।
इसकी शुरुआत आपके घर से होना चाहिए सबसे पहले.....खुद को हर वक्त स्त्री समझ कर अपने कदम पीछे न खींचे , आगे बढ़े ..अपने लिए कुछ करने की जिद करे । घर के पुरुषों से मैं कहना चाहूंगी उन्हें घर में सिर्फ काम करने वाली स्त्री कह कर संबोधित न करे , आपके घर न होने पर आपके घर को घर बनाने की जिम्मेदारी उठाई होती है । उसे यह एहसास न कराए घर में रहने के लिए है...कुछ करना चाहे उसे सपोर्ट करे यह कर की यूं कैन दु ईट मै कर सकता हूं तो तुम भी कर सकती हूं...कई तो सपने देखना भी छोड़ देती है , पर उनसे जानने की कोशिश करें। वक्त के साथ उन्हें ख़ामोश न होने दे ।
"जब एक लड़की बिना डर के अपने सपनों की उड़ान भर सके,
जब किसी महिला को सिर्फ़ ‘महिला’ होने के कारण पीछे न रखा जाए,
तब ही मैं कहूँगी भारत सच में आज़ाद है।
और उस दिन की शुरुआत हमारे घरों से होगी… आज, अभी से इसकी शुरुआत करे ......"
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