karmon ka fal in Hindi Motivational Stories by Astrodb books and stories PDF | कर्मों का फल

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कर्मों का फल

यह जरूर जान लें की शुभ-अशुभ कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है!

कर्मों की गति बड़ी गहन होती है । कर्म की गति जानने में देवता भी समर्थ नहीं हैं, मानव की तो बात ही क्या है ? काल के पाश में बंधे हुए समस्त जीवों को अपने द्वारा किये गये शुभ अथवा अशुभ कर्मों का फल निश्चित रूप से भोगना ही पड़ता है ।

 मनुष्य कर्म-जंजाल में फंसकर मृत्यु को प्राप्त होता है और फिर कर्मफल के भोग के लिए पुनर्जन्म धारण करता है । पृथ्वी पर जो मनुष्य-देह है, उसमें एक सीमा तक ही सुख या दु:ख भोगने की क्षमता है । जो पुण्य या पाप पृथ्वी पर किसी मनुष्य-देह के द्वारा भोगने संभव नही, उनका फल जीव स्वर्ग या नरक में भोगता है । पाप या पुण्य जब इतने रह जाते हैं कि उनका भोग पृथ्वी पर संभव हो, तब वह जीव पृथ्वी पर किसी देह में जन्म लेता है ।

धर्मराज (यमराज) सभी प्राणियों को उनके पाप-पुण्य का फल प्रदान करते हैं; लेकिन जब उनसे कोई गलती हो जाए तो क्या उन्हें माफ किया जा सकता है ? नहीं, कभी नहीं ! एक गलत कर्म से धर्मराज को भी दासीपुत्र के रूप में जन्म लेना पड़ा । इसीलिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है—

करम प्रधान बिस्व करि राखा ।
जो जस करइ तो तस फलु चाखा ।। (राचमा २।२१९।४)

जो हम बोते हैं, वही हमें कई गुना होकर वापिस मिलता है । प्रकृति की इस व्यवस्था से सुख बांटने पर वह हमें कई गुना होकर वापिस मिलता है और दूसरों को दु:ख देने पर वह भी कई गुना होकर हमारे पास आता है । जैसे बिना मांगे दु:ख मिलता है, वैसे ही बिना प्रयत्न के सुख मिलता है ।

महाभारत युद्ध में महाराज धृतराष्ट्र के सौ पुत्र (कौरव) क्यों मारे गए ?

एक दिन महाराज धृतराष्ट्र ने वेदव्यासजी से पूछा—‘भगवन् ! बड़ा आश्चर्य है कि मेरे सौ पुत्र मेरे सामने मारे गए । मुझे अपने पिछले सौ जन्मों का स्मरण है कि मैंने एक भी पाप नहीं किया, फिर मेरे सौ पुत्र मेरे सामने मृत्यु को क्यों प्राप्त हुए ?’

वेदव्यासजी ने कहा—‘मूर्ख ! तू तो जब से सृष्टि बनी है, तब से जन्म ले रहा है । उससे पहले के कल्प में तूने क्या किया, तुझे क्या पता ?’

महाराज धृतराष्ट्र के अंत:करण का अंधेरा छंटने लगा और उन्होंने वेदव्यासजी से अपने सौ पुत्रों के मारे जाने का रहस्य बताने की विनती की । 

वेदव्यासजी ने कहा—‘सौ जन्मों से पूर्व तुम भारत वर्ष के एक बड़े ही प्रतापी और धार्मिक राजा थे । एक बार मानसरोवर के हंसों के एक दल ने अपने परिवार के साथ रामेश्वरम् जाते हुए तुम्हारे बगीचे में बसेरा किया । उनमें से एक हंस की हंसिनी गर्भवती थी और प्रसव का समय नजदीक था । उस हंसिनी के पति हंस ने तुम्हारे पास आकर विनती की—‘राजन् ! मैं अपनी गर्भवती पत्नी को तुम्हारे बाग में छोड़े जा रहा हूँ । राजा होने के नाते उसकी रक्षा का भार तुम्हारा है ।’ ऐसा कह कर वह हंस रामेश्वरम् चला गया।

कुछ ही समय में उस हंसिनी ने सौ बच्चों को जन्म दिया । तुमने उन्हें चुगने के लिए मोती दिए। एक दिन तुम्हारे रसोइये ने एक हंस के बच्चे को पका कर तुम्हें खिला दिया । तुम्हें वह मांस बहुत स्वादिष्ट लगा और तुमने बिना विचार किए रसोइये को आज्ञा दी कि इसी प्रकार का मांस प्रतिदिन पकाया जाए । तुम रसनेन्द्रिय (जीभ) के इतने अधीन हो गए कि तुमने रसोइये से यह भी नहीं पूछा कि यह किसका मांस है और कहां से उसको प्राप्त हुआ है ? तुम स्वाद के मोह में इतने अंधे हो गए कि रोज उसी मांस की इच्छा करने लगे। इस प्रकार उस शरणागत हंसिनी के मोती चुगने वाले सौ-के-सौ बच्चों को तुम अकेले खा गए।

अब वह हंसिनी अकेली रह गई । हंस रामेश्वरम् की यात्रा से जब वापिस लौटा तो हंसिनी से नवजात बच्चों के बारे में पूछा । हंसिनी ने उसे अपने बच्चों की मृत्यु के बारे में बताया तो हंस ने आश्चर्यचकित होकर पूछा कि यह सब कैसे हुआ ? हंसिनी ने कहा कि तुम राजा से ही पूछो।

हंस ने राजा के पास जाकर कहा—‘तुमने मेरे सौ बच्चों का मांस खा लिया ?’

राजा इस बात से अनभिज्ञ था कि उसे किसका मांस परोसा जा रहा है ? उसने रसोइये को बुला कर पूछा तो रसोइये ने कहा—‘महाराज ! यह तो आपकी ही आज्ञा थी कि यही मांस प्रतिदिन बनाया करो ।’ राजा धर्मात्मा था परन्तु इस भयंकर पाप से वह घबरा गया । 

हंस-हंसिनी ने राजा को शाप देते हुए कहा—‘तूने अंधे होकर मेरे सौ बच्चों को मरवाया, तू भी अंधा हो जाएगा और तेरे सामने ही तेरे सौ पुत्र मृत्यु को प्राप्त हो जाएंगे ।’ ऐसा कह कर हंस-हंसिनी ने प्राण त्याग दिए ।

वेदव्यासजी ने कहा—‘हंस के बच्चों का मांस खाने वाले तुम दोनों राजा-रानी सौ जन्मों तक पति-पत्नी नहीं बने । अब इस जन्म में तुम दोनों एक साथ राजा-रानी बने हो तो यह घटना घटित हुई है और उस जन्म के कर्म का फल अब इस जन्म में तुम्हें भोगना पड़ा है ।’

कर्मफल अटल हैं इन्हें भोगे बिना छुटकारा नहीं मिलता है। हम अपने सुख-दु:ख, सौभाग्य-दुर्भाग्य के लिए स्वयं जिम्मेदार हैं । इसके लिए विधाता या अन्य किसी को दोष नहीं दिया जा सकता है ।