Heroines in Hindi Motivational Stories by Deepak sharma books and stories PDF | वीरांगनाएं

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वीरांगनाएं

“एक पीढ़ी पेड़ लगाती है और दूसरी उस की छाया पाती है,” अपनी बैठक में कुंती की मां, परमीता, के साथ अपनी बातचीत मैं ने इस लोकोक्ति से आरंभ की।

कुंती की पृष्ठभूमि की सामग्री एकत्रित करने के अन्तर्गत।

अपनी पुस्तक ‘किशोरी कुंज’ की ‘प्रतिभासंपन्न’ किशोरियों में कुंती भी उन में से एक थी।

“पेड़ लगाना हम झाड़- झंखाड़ के नसीब में नहीं,” परमीता का चेहरा इतना दुबला था कि उस के दांत उस के मुंह से बड़े दिखाई दे रहे थे, “हम झाड़ अपने पीछे बस झाड़ ही छोड़ कर जाते हैं। बिना जड़ के। बिना तने के।बिना फूल- पत्ती के। कमज़ोर खाद वाले। जो ऊंचे बढ़ ही नहीं सकते। कांटेदार झाड़ियों के बीच उगे और वहीं कांटों से उलझते हुए खत्म हो गए…..”

“कुंती जैसी होनहार बेटी के रहते आप ऐसा न बोलिए,” परमीता के आत्मतिरस्कार ने मुझे व्याकुल कर दिया, “वह तो एक हरे- भरे बाग का खिलता हुआ फूल है जिसे आगे चल कर खूब फलना है, फूलना है…..”

“ऐसा कैसे नहीं बोलूं?” परमीता खीझ गई, “मालूम है गरीबी की किस काईदार दलदल में मैं कितने सालों से फंसी हूं?”

“जानती हूं,” मैं ने कहा, “पिछले दस साल से आप अपनी बेटियों को पाल रही हैं,पढ़ा रहीं हैं,अकेले हाथ…..”

कुंती ने मुझे बता रखा था जिस प्रिंटिंग प्रैस में उस के पिता एक कंपोज़र का काम किया करते थे, दस साल पहले उस के मालिक की मृत्यु के बाद वह बंद कर दी गई थी और अपनी पांचवीं बेटी के जन्म ही के दिन वह अपने घर से निकल लिए थे और उन की खबर आनी अभी बाकी थी।

“खैर, अकेली हाथ तो मैं नहीं ही हूं,” परमीता ने कहा, “कुंती अपने हाथ मुझे दिए रहती है। इधर मैं ने अपनी टैक्सटाइल मिल की नौकरी पकड़ी तो उधर उस ने घरदारी की और बहनों की ज़िम्मेदारी पकड़ ली। आठ साल की उस छोटी उम्र में मानो वह उसी दिन बूढ़ी हो गई जिस दिन उस का बाप हमें अनाथ छोड़कर भागा था। तभी से थकी- मांदी जब मैं घर लौटती हूं तो जहां दूसरी चारों लड़कियां अपनी मनचाही मांगें और बचकानी शिकायतें मेरे पास लाया करती हैं, कुंती अकेली ही वह जन है जो अपनी नहीं, मेरी ज़रूरत की बात करती है : मां, मैं पानी लाऊं? मां, मैं खाना लाऊं? और रात में मेरे सोते में कोई लड़की मुझे बुलाती भी है तो वह वहीं उसे टोक देती है, मुझे बता, क्या चाहिए, मां को सो लेने दे, कल उसे फिर मिल में खटना है, सारा दिन भी और मौका मिलने पर ओवरटाइम भी…..”

परमीता के ओवरटाइम की बात कुंती मुझ से पहले भी कर चुकी थी।असल में मैं उस की मां से उस के घर पर मिलना चाहती थी ताकि कुंती की पृष्ठभूमि के विषय में ज़्यादा से ज़्यादा जान सकूं,किंतु कुंती ने मुझे टोक दिया था, ‘नहीं मैडम, मेरी मां ही इधर आप के पास आ जाएंगी, क्योंकि उनके घर आने का कोई भी समय निश्चित नहीं है, बहुत बार वह ओवरटाइम लगा लिया करती हैं…..’

“और कुंती के हाथ के बनाए हुए स्कैच की भी बात करिए,” मैं ने बिस्कुट की प्लेट परमीता की ओर बढ़ाई।

निश्चित रूप से परमीता को मैं ने कुंती की चाकरी और चौकीदारी की बात करने के लिए नहीं बुलाया था।

 

(2)

 

तीन महीने पहले कुंती हमारे कंप्यूटर कोचिंग सेंटर पर ट्रेनिंग लेने आई थी तो अपने हाथ में अपनी फ़ीस की जगह अपने कुछ स्कैच ही लाई थी, “मुझे स्कैचिंग के एक कोर्स के लिए कुछ रुपए जोड़ने हैं और जो नौकरी मेरे इंटर कालेज वाले मेरे इंटर पास होते ही मुझे दे सकते हैं, उस के लिए कंप्यूटर की जानकारी ज़रूरी है। और अगर आप लोग की मंजूरी हो तो मैं अपने इंटर कॉलेज जाने से पहले अपनी फ़ीस की एवज़ में आप का घर संभाल दूंगी, फिर अपनी पढ़ाई के बाद आप के सेंटर पर फ़ोटोकापी का काम देख लूंगी …..”

कुंती के बनाए स्कैच मैं ने बहुत ध्यान से देखे थे और प्रभावित होकर जब उस की क्षमता का मैं ने प्रत्यक्ष प्रमाण मांगा था तो वह झट तैयार हो गई थी।

अपने झोले से उस ने कुुछ पेंसिलें निकाली थीं,मुझ से एक कोरा काग़ज़ मांगा था और सधे हुए अपने हाथ से लकीरें खींचने लगी थी : कुछ सीधी और वज़नदार, कुछ छोटी और घुमावदार, कुछ गहरी और समतल,कुछ हल्की और खंडित।

फिर उस ने कुछ भाग में छाया की थी और मेरे नैन- नक्श अपनी गोलाई और चौड़ाई के साथ आन प्रकट हुए थे।

हूबहू मेरे ड्राइविंग लाइसेंस की फ़ोटो जैसे।

मेरे पति ने भी वह स्कैच देखा था और कुंती को अगले ही दिन से इधर आने की अनुमति दे दी थी।

जभी से कुंती हमारा नाश्ता बनाने लगी थी, फ़ोटो- कापी तैयार करने लगी थी और कंप्यूटर सीखने लगी थी। काम तो उस का अनिंद्य रहा ही, कंप्यूटर पर भी उस ने अपनी असामान्य ग्रहण- शक्ति का परिचय दिया था। और फिर एक सप्ताह के अंदर ही वह इंटर नेट से मेरे क्लास- नोट्स भी खोजने और प्रिंट करने लगी थी। उसी वर्ष हमारे विश्वविद्यालय ने हमारे समाज- शास्त्र के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में कई परिवर्तन किए थे और मुझे नए सिरे से अनेक प्रसंग व प्रकरण चाहिए होते थे।

 

(3)

 

“मैं कुछ खाऊंगी नहीं,” परमीता ने प्लेट से कोई बिस्कुट नहीं उठाया, “आप का यह शर्बत अच्छा ठंडा है । उस का स्वाद यह बिस्कुट बिगाड़ देगा…..”

“तो कुंती की उस दूसरी खूूबी हो की बात बताएं, जिस के बूते वह कमाल की ड्राइंग कर पाती है,” बिस्कुट की प्लेट मैं ने मेज़ पर वापस धर दी।

“वह कमाल तो उस के बाप के पास भी रहा। मगर उस कमाल से मिला कोई लाभ? कुछ भी लाभ? उसे? हमें?”

“तो क्या कुंती ने यह कौशल पिता से सीखा? उन से पाया?” कुंती की पृष्ठभूमि का एक सूत्र मेरे सामने उद्घाटित हो रहा था।

“बचपन में अपने बाप को लकीरें खींचते तहुए देखती तो ज़रूर रहती थी।मगर क्या तो उस ने सिखाया होगा? उसे जब हम लोग की फ़िक्र ही नहीं रही कभी? मालूम है? जिस रात वह गायब हुआ उसी रात मेरी छुटकी अभी पैदा ही हुई थी। और जैसे ही दाई ने छुटकी की बधाई मांगी थी वह उस के अगले दम ही मेरी रेज़गारी की थैली और गोलक ले कर घर से चंपत हो लिया …..”

“वह सब छोड़िए,” मैं अपना धैर्य खोने लगी, “कुंती के बारे में बताइए। उस के स्कैच आप ने भी तो देखे होंगे…..”

“मुझे फ़ुर्सत ही कहां है जो मैं उसे काग़ज़ भरते हुए देखा करूं?”

“मतलब? आप ने उस के स्कैच कभी देखे ही नहीं?”

“देखे क्यों नहीं? पहली बार उस का बना देखा था जब उस ने अपने बाप का चेहरा खींचा था और उस की टीचर ने उसे अव्वल नंबर दिए थे। बाप के नैन- नक्श तो खैर उस ने टेढ़े- मेढ़े ही बनाए थे मगर बाप की त्यौरी और तिरछी हंसी उस ने खूब पकड़ी थी…..”

“वही तो,” मैं मुस्कराई, “जो भी वह खींचती है उस की रूह बाहर ले आती है मानो वह उस के दिल की बात भी कह जाती है : खुश,नाराज़,लीन,उदास…..”

“मगर उस से क्या होता है?” परमीता चिढ़ गई, “उस से कोई आमदनी तो पैदा नहीं हो सकती न! हम लोग को तो कोई नौकरी चाहिए जैसे वह कम्प्यूटर वाली है…..”

“उस की तैयारी तो वह कर ही रही है। देखिए, इधर कम्प्यूटर सीखती भी है और उधर हमारे भी तमाम काम निपटा दिया करती है। बहुत बहादुर लड़की है…..”

“अभी तो उसे और बहादुर भी बनना होगा,” परमीता ने एक लंबी आह भरी, “चार छोटी बहनों को पालना होगा, पढ़ाना होगा, ब्याहना होगा…..”

“वे बहनें भी तो बड़ी हो रही हैं। वे अपने को क्यों नहीं संभाल सकेंगी? और फिर आप भी तो हैं…..”

“मैं आज हूं। कल नहीं हूं…..”

“मतलब?”

“मुझे बड़ी अंतड़ी का कैंसर है,” बहुत धीमी,हताश आवाज़ में वह फट पड़ी।

“क्या…या… या?” मैं चौंक गई।

“यह अंतड़ी तो कब से मेरे गले पड़ी थी! मगर मैं ने इस पर गौर नहीं किया था। पाखाने में खून आता तो मैं समझती, बवासीर है। म्यूकस बहता तो मैं समझती, बदहज़मी है। पेट की निचली तरफ़ आग लगती तो सोचती, यह दुख की तड़पन है। पेट में मरोड़-बल पड़ते तो कहती, यह भूख है। फिर कोई डेढ़- दो साल पहले उधर मिल ही में जब मेरा पूरा पेट जल उठा तो साथिनें मुुझे वहीं मिल ही की डिस्पेंसरी में ले गईं। डाक्टर ने मुझे बड़े अस्पताल में दिखाने की सलाह दी। वहां टेस्ट हुए तो उन्हों ने मुझे कैंसर वार्ड भेज दिया। वहां जा कर भेद खुला वह आग और वे मरोड़-बल कैंसर की उन गांठों की वजह से थे जो अब अंतड़ी की दीवार फांद कर पेट में फैल चुकी थीं। डाक्टर ने कहा, आपरेशन होना चाहिए। मगर उस के लिए रुपए चाहिए थे। समय चाहिए था। कहां से लाती वह?सो अब दवा खा रही हूं और रेडियो- थैरेपी करवा लेती हूं।उस से ज़िंदगी के कुछ महीने बढ़ रहे हैं और लड़कियां सोचती हैं, मैं ओवरटाइम कर रही हूं। गनीमत है जो मेरी कुछ साथिनों ने मेरे लिए कुछ रुपए जमा कर दिए हैं और कुछ हमारी यूनियन ने मिल मालिक से दिला दिए हैं…..”

“कुछ रुपए आप मुझ से भी ले सकती हैं,” मैं ने कहा, “कुंती जानती है मैं एक कालेज में पढ़ाती हूं और बिना अपने पति पर बोझ डाले आप को रूपए दे सकती हूं। बल्कि मेरे पति ही मुझे आप की सहायता करने को बोल देंगे…..”

“अब मुझे अपनी फ़िक्र तो रही ही नहीं,” परमीता रोने लगी, “ फ़िक्र है तो लड़कियों की। उन का बाप सिर पर होता तो और बात थी…..”

“वह दूर हैं तो क्या हुआ? हम लोग तो हैं। फिर आप की साथिनें हैं। यूनियन है। मिल मालिक हैं।लेकिन एक बात मुझे जंची नहीं। आप बेटियों को क्यों नहीं बता देतीं आप बीमार हैं…..”

“उन्हें पता चला तो छोटी चार तो रो-रो कर अभी से हलकान होती रहेंगी और कुंती अपना इंटर,अपना कम्प्यूटर सब छोड़-छाड़ कर मेरी टहल में लग जाएगी। अभी तो मैं चल ही रही हूं।वक्त आने पर सब कहना ही है…..”

 

(4)

 

वक्त अगले माह आन पहुंचा।

सुबह सवेरे कुंती का फ़ोन आया, “कल रात मां को कैंसर वार्ड में दाखिल करवाना पड़ा। आज मैं आप के पास नहीं आंऊगी…..”

“आज मैं तुम्हारे पास आ रही हूं…..”

 

कैंसर वार्ड के बाहर कुंती एमरजेंसी के बाहर खड़ी थी। बहुत घबराई हुई।

“मां ए.सी.यू. में हैं….”

“उन्हें कैंसर था?” मैं ने अनजान बन कर उस का मन टोहा।

“हां,” कारुणिक उस की आंखे छलक पड़ीं, “और हमें पता तक नहीं। वह तो उन्हों ने अपने बक्से की चाभी जब मुझे दी और कहा,उस में से उन की पर्चियां मैं निकाल लाऊं जब मैं ने जाना…..”

तभी सामूहिक कुछ हिचकियों की आवाज़ मेरे निकट चली आई।

चार लड़कियां परस्पर सट कर फूट- फूट कर रो रही थीं।

“तुम्हारी बहनें?

कुंती ने ‘हां’ में सिर हिला दिया।

“ये बहुत ज़्यादा घबरा गई हैं…..”

“इसीलिए शायद मां यह सब छुपाए रखीं…..”

“उधर एमरजेंसी के बाहर कुछ कुर्सियां रखी हैं,” मैं ने उस का ध्यान बंटाना चाहा, “वहीं चल कर बैठते हैं…..”

“आप इन्हें ले जाइए,” कुंती ने कहा, “मैं अभी यहीं रुकेंगी…..”

 

किसी भी कतार में एक साथ पांच कुर्सियां खाली न थीं।

“हमारी मम्मी बच जाएंगी न?” चारों में से सब से बड़ी ने मुझ से बहुुत भोला सवाल पूछा।

वह लगभग सत्तरह वर्ष की थी। उस ने जीन्स के साथ एक टी- शर्ट पहन रखी थी। और घुंघराले उस के बाल कटे हुए थे, भौंहें ताज़ी नुची। हालांकि कुंती ने अपने इस अठारहवें वर्ष में भी अपनी भौंहों को प्राकृतिक आकृति में ही रखे रहने दिया था। उन्हें कहीं से भी नोचा- नुचवाया नहीं था। परिधान में भी वह मुझे हमेशा अपने इंटर कॉलेज की सादी सलवार कमीज़ वाली यूनिफ़ार्म में मिलती रही थी।

“नहीं बचेंगी क्या?” उन में कोई दूसरी बोली। वह शायद तीसरे नंबर वाली थी। बारह और तेरह के बीच। उस ने एक स्कर्ट के साथ एक बेढंगी टॉप पहन रखी थी।

मैं ने उन दूसरी लड़कियों को भी अपनी निगाह में उतारा। वे भी मेरी तरफ़ देख रही थीं। उन में बड़ी चौदह और पंद्रह के बीच की मालूम देती थी और छोटी दस की। दोनों मटमैले किसी रंग की फ्राक में थीं।

“आप की मम्मी भगवान से कौन सी प्रार्थना करती हैं?” मैं ने उन के सवाल का जवाब नहीं दिया।

जवाब शायद हम सभी जानतीं थीं।

“कोई भी नहीं,” चारों एक साथ बोल पड़ीं, “वह भगवान को नहीं मानतीं।”

“आप लोग के घर में किसी भी देवी- देवता की कोई मूर्त, कोई तस्वीर भी नहीं?”

“पहले थीं। बहुुत थीं। पापा तो सभी को मानते थे। बहुत मानते थे। दीदी बताती हैं हमारे पापा जब हमें छोड़ गए तो मम्मी ने उन सब को उठा कर उन के बक्से में धर दीं।”

“आप के पापा के पास अपना अलग बक्सा रहता था क्या?”

“हां, रहता था। जहां वह अपने कपड़े और अपने काग़ज़ पैंसल अलग रखा करते थे…..”

“अब अलग नहीं रहा क्या?”

“अलग ही रख रखा है। उन का चिह्मित मग और थाली- कटोरी भी मां ने उसी में रख रखी हैं। दीदी के सिवा उसे कोई और खोलता भी नहीं…..”

“क्यों?”

“दीदी भी अपना काग़ज़ पेंसिल उसी में रखती हैं…..”

“और आप बच्चियां ? मुश्किल के समय, इम्तिहान के समय प्रार्थना नहीं करतीं? ईश्वर से विनय नहीं करतीं?”

“करती हैं,” उन के चेहरे की झेंप उन की चुगली कर गई, “मंदिर में। वहां जा कर।”

“इधर दो- दो कुर्सियां खाली दिखाई दे रहीं हैं, मैं ने उनका ध्यान उन कतारों की ओर मोड़ डाला जहां वे कुर्सियां मुझे दिखाई दे गईं थी, “आप वहीं बैठ लो। प्रार्थना तो कहीं भी की जा सकती है।आप आज वहीं अपनी- अपनी विनय-प्रार्थना करो।वहीं आप को जवाब भी मिल जाएगा और हौसला भी…..”

 

कुंती के पास मैं वापस आन खड़ी हुई।

“उन्हें मैं उधर बिठला आई हूं। तुम जैसा हौसला उन में नहीं।तुम्हारा हौसला ऊंचा है। तुम्हारी हिम्मत बहुत बड़ी…..”

“मां की तुलना में तिनका बराबर भी नहीं। देखिए, इतनी विकट बीमारी और वह डोली नहीं। चुपचाप सब झेलती गईं। एक चट्टान की मानिंद…..”

“इतनी ताकत कहां से लेतीं थीं? तुम्हारी बहनें बताती हैं वह ईश्वर को तो मानतीं ही न थीं…..”

“मुझे यकीन है वह ज़रूर मानतीं थीं।दस मिनट सुबह और दस मिनट शाम के समय जिसे हम लोग को अपना ‘ध्यान’ बताया करतीं,उस समय अवश्य ही ईश्वर से ताकत लेती रही होंगी…..”

 

अस्पताल से लौटते समय अपने बटुए से मैं ने वह लिफ़ाफ़ा निकाल कर कुंती के हाथ में ला थमाया, जो इधर आते समय मैं उस के लिए लेती आई थी, “ये पांच हज़ार रूपए हैं। इन्हें तुम रख लो…..”

“इन की कोई ऐसी ज़रूरत नहीं…..मां की मिल वाली साथिनें और यूनियन के लोग भी कुछ इकट्ठा किए हैं। सब हो जाएगा…..”

“लेेकिन यह भी रख लो। मुझे यकीन है, तुम सब निभा ले जाओगी,” मैं ने उसे अपने अंक में भर लिया।

“अभी तो मैं रख लेती हूं,” कुंती ने अपने आंसू अंदर ही दबा लिए, “मगर फिर जल्दी ही लौटा दूंगी…..”

“मुझे कोई जल्दी नहीं,” मैं ने उस की पीठ थपथपाई, “लेकिन तुम घबराना नहीं। तुुम यहां अकेली नहीं। हम सब तुम्हारे साथ खड़े हैं। हमारे कम्प्यूटर सेंटर वाले तुम्हारे साथ खड़ें हैं। मिल वाली वे साथिनें तुम्हारे साथ खड़ी हैं। यूनियन वाले तुम्हारे साथ खड़े हैं और सब ईश्वर से यही मांग रहे हैं जो वह तुम्हें भी वही ताकत दें जो वह परमीता को दिए रखे हैं…..”

 

अगले माह हुई परमीता की मृत्यु ने कुंती को परिवार की मुखिया की भूमिका आन सौंपी।और उस ने मां की मिल वाली नौकरी पकड़ ली। अपने इंटर कालेज जाना छोड़ दिया। मगर हमारा घर नहीं छोड़ा। कम्प्यूटर सीखना नहीं छोड़ा। समय निकाल कर रोज़ आ ही जाती।

मुझे नहीं लगता मिल की नौकरी वह जल्दी छोड़ पाएगी।

इस के बावजूद एक बात का मुझे ज़रूर भरोसा है।

आज भी कोरे कागज़ को देख कर उस की पैंसिलें ज़रूर उस पर अपने चिह्न छोड़ने के लिए मचल उठती हैं। हाथों- लगे।

उस के हाथ की टाप पर।

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