रात असामान्य रूप से शांत थी। आधी खुली खिड़की से छनकर आती चाँदनी कमरे को चाँदी से नहला रही थी। दीया बिस्तर पर लेटी थी, उसकी साँसें धीमी थीं, आँखें अंतहीन आँसुओं से सूजी हुई थीं। उसका दिल टूटा हुआ था, उन लोगों ने कुचला था जिन पर वह सबसे ज़्यादा भरोसा करती थी—उसके पिता रंजीत कुमार, उसकी सौतेली माँ अंजलि, उसकी सौतेली बहन मीरा, और वह आदमी जिसे वह प्यार करती थी, तेजा।
“मैं नहीं जाऊँगी, अविनाश। अभी नहीं, कभी नहीं। मैं तुम्हारी हूँ।”
तेजा लड़खड़ाते हुए अपने पैरों पर खड़ा हुआ, उसका चेहरा अपमान से लाल हो गया। “दिया! यह क्या पागलपन है? मैं तुमसे प्यार करता था। मैं—”
“मुझसे प्यार करता था?” दीया ने उसे बीच में ही रोक दिया, उसकी आवाज़ धारदार थी। “तुम्हारा प्यार बस एक मुखौटा था। मैं सब जानती हूँ। तुम और मीरा—” उसने अपनी सौतेली बहन को घूरा जो भीड़ में पीली पड़ गई थी—“मुझ पर हँस रही थी, मेरा मज़ाक उड़ा रही थी, तब भी जब मैं अपने पिछले जन्म में मर गई थी।”
उसके शब्दों ने सबको चौंका दिया, लेकिन अविनाश की उसकी कमर पर पकड़ और मज़बूत हो गई। वह जानता था कि उसका क्या मतलब है, भले ही दूसरे नहीं जानते हों।
“तुमने मुझे एक बार धोखा दिया था, तेजा,” उसने ठंडे स्वर में कहा। “इस बार, मैं इसे दोबारा नहीं होने दूँगी।”
अविनाश के होंठों पर एक खतरनाक मुस्कान आ गई जब उसने दीया को अपने करीब खींचा। “अब वह मेरी है। दुआ करता हूँ कि तुम फिर कभी मेरे रास्ते में न आओ।”
उसने अपनी बाँह दीया की कमर पर कसकर लपेटी और भीड़ की फुसफुसाहट को अनसुना करते हुए उसे ले गया।
---
चमकदार काली कार शहर की सड़कों पर तेज़ी से दौड़ती हुई चली गई। अविनाश का हाथ उसके हाथ से हटा ही नहीं। उसकी उँगलियाँ सफ़ेद हो गई थीं, जबड़ा तना हुआ था। वह चुप था, लेकिन उसके अंदर का तूफ़ान साफ़ दिखाई दे रहा था।
दीया उसकी ओर मुड़ी, उसकी आवाज़ धीमी थी।
"अविनाश... मुझे घर जाना है। बस थोड़ी देर के लिए। मेरी दादी की तस्वीर... बस यही बची है उनके बारे में।"
उसका सिर उसकी ओर झुका, उसकी आँखें जल रही थीं।
"नहीं। वह घर ज़हरीला है। मैं तुम्हें उसमें दोबारा क़दम नहीं रखने दूँगी।"
उसने धीरे से उसका हाथ छुआ। "प्लीज़। बस एक बार। मैं ज़्यादा देर नहीं रुकूँगी। मैं वादा करती हूँ।"
काफ़ी देर तक वह उसे घूरता रहा, तेज़ साँसें लेता रहा, फिर उसने एक गहरी आह भरी।
"ठीक है। लेकिन मेरी बात सुनो, दिया—अगर उन्होंने तुम्हें चोट पहुँचाई, अगर उन्होंने तुम्हारे आस-पास ज़रा भी गलत साँस ली, तो मैं उन्हें बर्बाद कर दूँगी। मैं उस हवेली का एक भी पत्थर नहीं रहने दूँगी।"
उसने उसका हाथ दबाते हुए हल्की सी मुस्कान दी। "ठीक है। मुझे तुम पर भरोसा है।"
---
हवेली के अंदर की हवा भारी और घुटन भरी थी। जैसे ही दिया अंदर आई, उसकी सौतेली माँ अंजलि आगे बढ़ी, उसका चेहरा झूठी चिंता से भरा हुआ था।
"दिया, मेरी बच्ची! तुम लौट आई हो। हमें तुम्हारी बहुत याद आई।"
उसकी सौतेली बहन मीरा भी पीछे-पीछे आई, उसकी आवाज़ में रुआँसीपन था।
"हाँ, बहन। तुम्हारे बिना, घर कितना सूना लग रहा था।"
दिया की आँखें सिकुड़ गईं। "खाली? या सुविधाजनक? नाटक मत करो, मीरा। मैं जानता हूँ तुम असल में कौन हो।"
तभी तेजा अंदर आया, उसके चेहरे पर दर्द साफ़ झलक रहा था।
"दिया... तुम ऐसा क्यों कर रही हो? तुमने मेरे सच्चे प्यार को क्यों ठुकरा दिया? मैंने तुम्हें सब कुछ दिया था।"
“सब कुछ?” दीया फूट-फूट कर हँसी। “तुमने मुझे धोखा दिया। तुम और मीरा ने मुझे मोहरे की तरह इस्तेमाल किया। और तुम इसे प्यार कहते हो?”
उसके चेहरे का रंग उड़ गया।
तभी रंजीत कुमार अंदर आए, उनके भारी कदम संगमरमर के फर्श पर गूँज रहे थे। उनकी तीखी और लालची आँखें दीया पर टिकी थीं।
“बस करो ये ड्रामा। दीया, कंपनी के प्लॉट तुम्हारे नाम हैं। इन्हें मेरे नाम कर दो। परिवार का ख्याल करो, हमारे कारोबार का ख्याल करो।”
दीया मुड़ी, उसका चेहरा शांत था लेकिन उसकी आवाज़ में कठोरता थी।
“मैं तुम्हें क्यों दूँ? ये प्लॉट मेरी माँ की विरासत हैं। मैं तुम्हारे लालच के लिए उनकी यादें नहीं बेचूँगी।”
अंजलि का चेहरा गुस्से से तमतमा गया।
“तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई अपने पिता से इस तरह बात करने की?”
लेकिन दीया के जवाब देने से पहले ही तेजा का हाथ उसके चेहरे पर पड़ गया। थप्पड़ हॉल में गूँज उठा।
सब स्तब्ध रह गए।
दिया का गाल चुभ गया, लेकिन पीछे हटने की बजाय, उसने उसकी कलाई पकड़ ली। धीरे-धीरे, जान-बूझकर, उसने उसका हाथ फिर से उठाया और खुद को दूसरी बार थप्पड़ मारा।
तेजा की आँखें सदमे से चौड़ी हो गईं। "तुम क्या कर रहे हो?"
दिया की आँखें लाल हो गईं। "मैं चाहती हूँ कि यहाँ मौजूद हर कोई याद रखे कि तुमने क्या किया। मेरे चेहरे पर यह निशान तुम्हारी कायरता का सबूत है। तुम अपना सच फिर कभी नहीं छिपा पाओगे।"
मीरा हांफने लगी। अंजलि आगे बढ़ी। लेकिन इससे पहले कि वे उसके पास पहुँच पाते, सामने के दरवाज़े धड़ाम से खुल गए।
अविनाश वर्मा तूफ़ान की तरह अंदर आया, उसकी मौजूदगी से हवा घुट रही थी। उसकी नज़र दीया के लाल हो चुके गाल पर पड़ी, और उसके अंदर कुछ टूट गया।
उसने तेजा का कॉलर पकड़ा और उसे दीवार से टकरा दिया।
"तुमने उसे छूने की हिम्मत की?" उसकी आवाज़ धीमी, जानलेवा थी। "मैं तुम्हारे शरीर की हर हड्डी तोड़ दूँगा।"
"छोड़ दो उसे!" रंजीत दहाड़ा। "तुम कौन होते हो दखल देने वाले? ये मेरा घर है!"
अविनाश ने धीरे से अपना सिर घुमाया, उसके होंठों पर एक ठंडी मुस्कान आ गई।
"नहीं। अब ये दीया का घर है। और उसका हर आँसू तुम्हारा विनाश लिखेगा।"
उसने तेजा को कूड़े की तरह ज़मीन पर पटक दिया। वह आदमी अपमानित होकर कराह उठा।
दीया उन सबके पास से गुज़री, उसका सिर ऊँचा था। वह अपने कमरे में गई, अपनी दादी की तस्वीर उठाई और उसे सीने से लगा लिया। उसकी आँखों में आँसू छलक आए।
"दादी, अब मैं अकेली नहीं हूँ। अविनाश मेरे साथ है।"
जब वह लौटी, तो अविनाश दरवाज़े पर इंतज़ार कर रहा था। जैसे ही वह बाहर निकली, उसने उसे अपनी बाहों में भर लिया, उसका हाथ उसके सिर के पिछले हिस्से पर था।
"अब कोई तुम्हें चोट नहीं पहुँचाएगा, दीया। जब तक मैं साँस लेता रहूँगा, तब तक नहीं।"
उसका दिल भर आया। उसने उसकी तरफ देखा, उसकी आवाज़ काँप रही थी।
"मैं सिर्फ़ तुमसे प्यार नहीं करती, अविनाश... मैं तुम्हारी हूँ। पूरी तरह से।"
उसका कठोर चेहरा आखिरकार नरम पड़ गया। उसके होंठ उसके माथे को छू गए, कुछ देर तक। "और मैं तुम्हारी हूँ। हमेशा के लिए।"
---
उस रात बाद में, अविनाश की हवेली में, उनके बीच भावनाओं का तूफ़ान आखिरकार टूट गया। उन्हें अलग रखने वाली दीवारें ढह गईं।
दीया खिड़की के पास खड़ी थी, चाँदनी उसके चेहरे को चाँदी से रंग रही थी। अविनाश उसके पीछे-पीछे आया, उसका हाथ उसकी कमर पर लिपटा हुआ था, उसे अपनी छाती से सटा रहा था।
"तुम्हें अंदाज़ा भी नहीं है," उसने उसके कान में फुसफुसाया, उसकी साँसें गर्म थीं, "कितनी रातें मैंने तुम्हारे लिए जलाईं। कितनी बार मैंने इस पल के सपने देखे।"
दीया मुड़ी, उसकी आँखें आँसुओं और लालसा से भरी थीं। उसने उसका चेहरा अपने हाथों में लिया, उसका अंगूठा उसके जबड़े को छू रहा था।
"तो अब और सपने मत देखो। मैं यहाँ हूँ। मैं तुम्हारी हूँ।"
उसके होंठ उसके होंठों से टकराए, उग्र और बेताब। उनका चुंबन गहरा होता गया, और भी गर्म, और भी ज़्यादा माँग भरा होता गया, मानो वे अपने खोए हुए हर पल को वापस पा रहे हों।
उसने अपनी उंगलियाँ उसके बालों में उलझा दीं, उसे और करीब खींच लिया, खुद को पूरी तरह से समर्पित कर दिया। उसके हाथ उसकी पीठ, उसकी कमर पर फिर रहे थे, उसे ऐसे पकड़े हुए थे जैसे वही उसे ज़िंदा रखे हुए थी।
जब वह आखिरकार पीछे हटा, उनके माथे आपस में सटे हुए थे, दोनों की साँस फूल रही थी, उसने फुसफुसाते हुए कहा—
“मुझे कभी मत छोड़ना, दीया। तुम मेरा जुनून हो, मेरा पागलपन हो, मेरा सब कुछ हो।”
वह मुस्कुराई, उसके होंठ उसके होंठों से छू गए।
“मैं नहीं जाऊँगी। इस बार, मैं रहूँगी। मरते दम तक... और उसके बाद भी।”
---
उस रात के बाद से, दीया अब वह बेबस लड़की नहीं रही जिसे उसका परिवार बरगला सकता था। उसका पुनर्जन्म हुआ—मजबूत, निडर और प्यारी।
उसके पिता का साम्राज्य अविनाश के निर्दयी हाथों से टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर गया। तेजा और मीरा का विश्वासघात उजागर हो गया, उनकी प्रतिष्ठा नष्ट हो गई। अंजलि की योजनाएँ धूल में मिल गईं।
और इन सबके बीच, दीया अविनाश के साथ खड़ी रही, उसका हाथ उसके हाथ में था, उसका दिल उसके प्रचंड प्रेम में सुरक्षित था।
क्योंकि जब प्रेम आग, विश्वासघात और पुनर्जन्म में गढ़ा जाता है...
तो वह सिर्फ़ जीवित नहीं रहता।
वह सब कुछ जीत लेता है।
रात गहरी हो चुकी थी, और अविनाश वर्मा की हवेली के मंद रोशनी वाले हॉल में, साये खामोश फुसफुसाहटों की तरह रेंग रहे थे। मीरा, जिसके होंठ महत्वाकांक्षा से रंगे थे और आँखें लालच से चमक रही थीं, आगे बढ़ी। वह अविनाश के अध्ययन कक्ष में एक रेशमी पोशाक पहने हुए चली गई जो उससे बहुत कसकर चिपकी हुई थी, मासूमियत का दिखावा करते हुए भी मोहक लग रही थी।
"अविनाश..." उसने अपने बालों को पीछे करते हुए फुसफुसाया, "तुम अपना समय दीया पर क्यों बर्बाद कर रहे हो? मेरी तरफ देखो... मैं तुम्हें वो सब कुछ दे सकती हूँ जो वह नहीं दे सकती।"
लेकिन अविनाश की आँखें गुस्से से लाल हो गईं। इससे पहले कि वह अपना हाथ उसकी छाती पर रख पाती, उसने उसकी कलाई पकड़ ली और घृणा से उसे एक तरफ फेंक दिया।
"हिम्मत मत करना," उसकी आवाज़ गरज उठी। "तुम कभी दीया नहीं बन पाओगी। उसकी जगह लेने का सपना भी मत देखना।"
तभी, दरवाज़ा चरमराया - और दीया अंदर आई। अविनाश की आँखों से मिलते ही उसकी आँखें नरम पड़ गईं। उसने बहुत कुछ सुना था, बहुत कुछ देखा था। विश्वासघात का दर्द, बदले की आग और प्यार की गर्माहट, सब उसके दिल में घुल-मिल गए थे।
“अविनाश…” उसने फुसफुसाया।
एक पल के लिए, बाहर की दुनिया गायब हो गई। अविनाश का गुस्सा पिघल गया जब उसने उसे, अपनी दीया को, अंधेरे में लौ की तरह खड़ा देखा। वह उसके पास आई और उसके गाल को धीरे से सहलाया।
“तुम गुस्से से जल रहे हो,” उसने धीरे से कहा, “जाओ, नहा लो… इस ज़हर को धो डालो। मैं इंतज़ार करूँगी।”
अविनाश का दिल काँप उठा। सालों में पहली बार उसे शांति का एहसास हुआ। उसने उसकी बात मान ली, और जब वह लौटा, तो उसकी त्वचा पर ताज़ा पानी चमक रहा था, दीया वहाँ थी। दोनों ने एक शांत, भावुक पल बिताया – उसकी उंगलियाँ उसके हाथों को छू रही थीं, उसके होंठ उसके माथे को छू रहे थे। बदले की आग दोनों में जल रही थी, लेकिन साथ ही वासना की गर्मी भी।
---
अगली सुबह, दीया मीरा को हवेली के तहखाने में घसीट ले गई, सबसे अँधेरे कोने में जहाँ कोई कदम रखने की हिम्मत नहीं करता था। दीवारों से ज़ंजीरें लटकी हुई थीं, हवा ठंडी थी, और सन्नाटा शब्दों से ज़्यादा ज़ोर से चीख रहा था।
"सच बताओ मीरा," दीया की आवाज़ तीखी थी, गुस्से से काँप रही थी। "मेरी माँ कैसे मरीं? उस रात क्या हुआ था?"
मीरा पहले तो मुस्कुराई, मज़बूत बनने की कोशिश कर रही थी। लेकिन जब दीया ने अपनी पकड़ मज़बूत की और उसे दीवार से सटा दिया, तो उसका आत्मविश्वास डगमगा गया।
"तुम्हें लगता है कि अब तुम मज़बूत हो?" दीया फुसफुसाई। "तुम्हें लगता है कि अविनाश तुम्हें बचाएगा? नहीं, मीरा। आज तुम बोलोगी।"
मीरा के गालों पर आँसू बह निकले। "यह... यह तुम्हारी गलती नहीं थी, दीया," वह हकलाते हुए बोली। "तुम्हारी माँ की मौत... तुम्हारी गलती नहीं थी। वह एक कार दुर्घटना में मर गईं।... मेरी माँ के पति के साथ। उस रात दोनों एक साथ मर गए।"
दीया ठिठक गई। उसका सीना चौड़ा हो गया। इतने सालों तक वह अपराधबोध से ग्रस्त रही, यही सोचती रही कि उसकी माँ की मौत का कारण वही थी। और अब... सच ने उसे बिजली की तरह झकझोर दिया। वह लड़खड़ाती हुई पीछे हटी, उसका शरीर काँप रहा था, इससे पहले कि सब कुछ अँधेरा हो जाए।
---
जब दीया बेहोश हो गई, तो अविनाश दौड़कर आया, उसकी बाहें मज़बूत थीं और वह उसे तहखाने से बाहर ले गया। उसने उसे धीरे से बिस्तर पर लिटाया, उसके बालों को पीछे करते हुए फुसफुसाया, "दीया... मेरी दीया... अपनी आँखें खोलो। मैं यहाँ हूँ। मैं हमेशा यहाँ रहूँगा।"
धीरे-धीरे, वह उठी, उसके आँसू चमक रहे थे। अविनाश उसके पास झुका, उसका माथा उसके माथे से छू गया।
"तुम्हें कोई दोष नहीं है," उसने गुस्से से कहा। "ऐसा दोबारा कभी मत सोचना। तुम्हारी माँ की मौत का बोझ तुम्हें नहीं उठाना था। बस गलती यही थी कि तुमने गलत लोगों पर भरोसा किया।"
उनके होंठ एक चुंबन में मिले - पहले कोमल, फिर हताश, वर्षों की अनकही लालसा से भरा हुआ। अविनाश ने उसे ऐसे थाम रखा था जैसे दुनिया बिखर सकती है, लेकिन वह उसे कभी जाने नहीं देगा।
"वादा करो, दीया," उसने उसके होठों से फुसफुसाया, "मुझे फिर कभी मत छोड़ना।"
"वादा करती हूँ," उसने साँस ली, उसकी बाहें उसे कसकर जकड़ रही थीं।
--
दोनों ने मिलकर एक योजना बनाई—अंजलि, मीरा और तेजा को तलवारों से नहीं, बल्कि खुलेआम तबाह करने की।
नाश्ते के समय, अविनाश सबके सामने ऊँची आवाज़ में बोला:
"मैंने फैसला कर लिया है। मैं मीरा से शादी करूँगा।"
मीरा की आँखें लालच से चमक उठीं। अंजलि खुशी से हांफने लगी, जो पहले से ही धन और नियंत्रण के सपने देख रही थी। रंजीत कुमार हल्के से मुस्कुराए, यह सोचकर कि यह गठबंधन उनके ढहते साम्राज्य को बचा लेगा।
लेकिन अविनाश की आँखों के पीछे, बस एक ही सच्चाई थी—उसका दिल दीया का था, और यह उनके जाल की शुरुआत भर थी।
---
हवेली रोशनी से जगमगा उठी। मेहमानों से हॉल भर गया। अंजलि और मीरा रानियों की तरह, गर्व और अहंकार से भरी, एक-दूसरे से फुसफुसाती हुई घूम रही थीं कि यह सब जल्द ही उनका हो जाएगा।
लेकिन फिर... ट्विस्ट आया। हॉल में लगी विशाल स्क्रीन पर एक वीडियो चलने लगा - अंजलि किसी दूसरे आदमी के साथ आपत्तिजनक दृश्य में कैद हो गई। हवा में हड़बड़ाहट भर गई। फुसफुसाहट हँसी में बदल गई, फिर घृणा में।
रंजीत कुमार का चेहरा शर्म से लाल हो गया। गुस्से से उनका हाथ उठा, और भीड़ के सामने उन्होंने अंजलि के चेहरे पर तमाचा जड़ दिया।
"तुमने मुझे धोखा दिया!" वह दहाड़े। "इतने साल, ये सारे झूठ...!"
खबर जंगल की आग की तरह फैल गई। रिपोर्टर लिख-लिख रहे थे, कैमरे चमक रहे थे। अंजलि के धोखे का साम्राज्य मिनटों में ढह गया।
मीरा अपनी माँ का बचाव करने की कोशिश में चीखी, लेकिन किसी ने नहीं सुना। तेजा शर्मिंदा और बेपर्दा होकर पीछे हट गया।
और तूफ़ान के बीच में, दीया खड़ी थी - शांत, उग्र, विजयी।
---
उस रात बाद में, जब मेहमान चले गए और घर में सन्नाटा छा गया, दीया बालकनी में खड़ी थी। अविनाश उसके पीछे आया और उसकी कमर में बाहें डाल दीं।
"अब सब ख़त्म हो गया," उसने फुसफुसाया। "वे अब तुम्हें और चोट नहीं पहुँचा सकते।"
दीया उसकी ओर झुक गई, उसकी आँखें ज़िंदगी में पहली बार शांति से बंद हो गईं।
"मैंने कभी बदला नहीं चाहा, अविनाश," वह धीरे से बोली। "मुझे सिर्फ़ प्यार चाहिए था। लेकिन उन्होंने मेरे पास कोई विकल्प नहीं छोड़ा।"
"और अब," उसने उसके बालों को धीरे से चूमते हुए कहा, "तुम्हारे पास दोनों हैं। मेरा प्यार। मेरी ज़िंदगी। हमेशा के लिए।"
वह मुड़ी, उसके होंठ एक बार फिर उसके होंठों से मिले - इस बार हताशा में नहीं, बल्कि शुद्ध इच्छा और भक्ति में। ऊपर के तारे साक्षी थे जब दीया और अविनाश ने अपने बंधन को पक्का किया, उनका पुनर्जन्म पूरा हुआ।
इच्छा का पुनर्जन्म।
अँधेरे में डूबने से पहले उसकी आखिरी याद उनकी हँसी थी। वे हॉल में खड़े थे, उसके दर्द का, उसके प्यार का, उसके अस्तित्व का मज़ाक उड़ा रहे थे।
और फिर... सन्नाटा।
दीया का शरीर शांत हो गया। लेकिन उसकी आत्मा—उसका सार—दीपक से मुक्त हुई लौ की तरह उठी। उसने अपने बेजान रूप को देखा, उसकी आँखें भय से चौड़ी हो गईं।
"नहीं...नहीं, यह अंत नहीं हो सकता," उसने फुसफुसाया। उसकी आवाज़ अजीब तरह से गूँजी, अब उसके शरीर से बंधी नहीं।
और फिर उसने उसे सुना। वह आवाज़ जिसने उसे मौत से भी ज़्यादा तोड़ दिया—
हँसी।
वह हॉल की ओर बढ़ी, उसकी रूह काँप रही थी, और वहाँ उसने उन्हें देखा।
रंजीत ने शराब का गिलास उठाया।
अंजलि मुस्कुरा रही थी।
मीरा तेजा की बाँह से लिपटी हुई थी, उसके होंठ उसके गालों को छू रहे थे।
और तेजा... गर्व से मुस्कुरा रहा था, मानो उसने जीत हासिल कर ली हो।
"वे मुझ पर... मेरी मौत पर..." दीया की रूह गुस्से से काँप उठी। "मैंने उन्हें सब कुछ दिया। मैंने उनके झूठ पर यकीन किया। और यह... यह मेरा इनाम है?"
वह चीखी, पर किसी ने नहीं सुना। वह रोई, पर किसी ने नहीं देखा। और फिर उसके आँसू आग में बदल गए।
उसी क्षण, दूर एक परछाई से ढकी हवेली में, अविनाश वर्मा—शहर का सबसे खूँखार आदमी—घुटनों पर था। गिलास में ज़हर डालते हुए उसका हाथ काँप रहा था। उसका चेहरा, जो आमतौर पर स्टील में उकेरा जाता था, अब टूट गया था।
"उन्होंने तुम्हें मुझसे छीन लिया, दीया," उसने भारी आवाज़ में फुसफुसाया। "मैं तुम्हें अपनी जान से भी ज़्यादा प्यार करता था... लेकिन मैं कायर था। मैंने तुम्हें कभी नहीं दिखाया कि तुम मेरे लिए क्या मायने रखती हो।"
उसने पी लिया। ज़हर उसके गले में उतर गया। उसकी छाती धड़क रही थी, उसकी नज़र धुंधली हो गई थी। उसका आखिरी ख़याल उसी का था—उसकी मुस्कान, उसकी मासूमियत, उसका दर्द।
और जैसे ही अँधेरे ने उसे अपने आगोश में लिया, उसकी आत्मा भी जाग उठी। और वहाँ, ज़िंदगी और मौत के बीच के शून्य में, दो आत्माएँ मिलीं।
"अविनाश..." दीया की आवाज़ फट गई, उसकी आत्मा काँप रही थी।
"दीया..." उसकी आँखें अनछुए आँसुओं से भर गईं। उसने उसे पकड़ने की कोशिश की, लेकिन उनके हाथ धुएँ की तरह एक-दूसरे से होकर गुज़र गए।
"इस दुनिया ने हमें धोखा दिया," उसने फुसफुसाते हुए कहा।
"लेकिन मैं इसे यहीं खत्म नहीं होने दूँगा," अविनाश गुर्राया, उसकी आँखें मौत में भी जल रही थीं। "अगर किस्मत हमें मार सकती है... तो किस्मत हमें वापस भी लाएगी। साथ-साथ।"
और फिर—उजाला। अंधा कर देने वाला, झुलसाने वाला उजाला।
---
दीया ने आँखें खोलते ही हाँफते हुए कहा। वह अब मृत्युशय्या पर नहीं पड़ी थी। वह भटकती आत्मा नहीं थी। वह जीवित थी—अपने युवा शरीर में वापस, एक सजे हुए बगीचे के बीच खड़ी।
संगीत बज रहा था। लोगों ने तालियाँ बजाईं। और उसके सामने तेजा घुटनों के बल बैठा था, एक गुलदस्ता लिए हुए।
"दिया, क्या तुम मुझसे शादी करोगी?" उसने बनावटी मिठास से मुस्कुराते हुए पूछा।
लेकिन इस बार, दीया अंधी नहीं थी। उसके पुनर्जन्म वाले दिल को सब कुछ याद था। उसे उसके विश्वासघात, मीरा के धोखे, अंजलि की क्रूरता और उसके पिता के लालच की याद थी। और सबसे बढ़कर... उसे अविनाश याद था।
उसकी आँखें भीड़ में घूम गईं। और वह वहाँ था। अविनाश वर्मा। जीवित। उसे उन्हीं पैनी निगाहों से देख रहा था, लेकिन इस बार, उसकी निगाहें भाग्य की ज़ंजीरों की तरह उस पर टिकी थीं।
उसके होंठ काँप रहे थे। उसका दिल धड़क रहा था। वह आदमी जो उसके लिए मर गया, जिसने उसे खामोशी से प्यार किया, जिसने उसे फिर कभी न खोने की कसम खाई थी—वह यहाँ था।
“चुन लो, दीया,” अविनाश की आवाज़ धीमी, ख़तरनाक और संयमित हताशा से भरी थी। “उसे... या मुझे।”
भीड़ में अकड़न छा गई।
तेजा का चेहरा पीला पड़ गया। “यह क्या बकवास है? दीया, उसकी बात मत सुनो—”
लेकिन इससे पहले कि वह अपनी बात पूरी कर पाता, दीया ने उसके हाथ से गुलदस्ता छीन लिया, मुट्ठी में बंद गुलाबों को मसला और उन्हें ज़मीन पर पटक दिया।
“मैं तुम्हें चुनती हूँ, अविनाश,” उसने फुसफुसाते हुए कहा, उसकी आवाज़ काँप रही थी, लेकिन दृढ़ थी।
फिर वह दौड़ी—सीधी उसकी बाहों में। उसका शरीर अकड़ा हुआ था, लेकिन जैसे ही उसने उसे दबाया, उसकी बाहें उसे जकड़ गईं, कस कर, अडिग, मानो वह उसे फिर कभी जाने ही न दे।
उसकी आँखों में आँसू भर आए। “मैं तुमसे प्यार करती हूँ... हमेशा करती थी। मैं पहले अंधी थी। लेकिन अब कभी नहीं।”
अविनाश के होंठ काँप रहे थे। जैसे ही उसने अपना चेहरा उसके बालों में छिपाया, उसकी आवाज़ फट गई।
“मुझे फिर कभी मत छोड़ना, दिया। कभी नहीं। वरना मैं पूरी दुनिया तबाह कर दूँगी।”
वह आँसुओं के बीच मुस्कुराई, उसके चेहरे को अपने हाथों में लिया और फिर उसे चूमा—पहले तो कोमल, फिर हताश, उनके होंठ बरसों की दबी हुई लालसा और दर्द से टकरा रहे थे।
उनके आस-पास की दुनिया धुंधली पड़ गई। बस उनकी धड़कनें, उनकी आग, उनका पुनर्जन्म था।
चुंबन सिर्फ़ इसलिए टूटा क्योंकि दिया को साँस की ज़रूरत थी। जैसे ही वह पीछे हटी, उसके होंठ काँपने लगे, उसकी आँखें अविनाश के चेहरे पर टिक गईं। भीड़ जमी हुई थी, जो उन्होंने देखा था उससे स्तब्ध थी, लेकिन दिया को कोई परवाह नहीं थी। ज़िंदगी में पहली बार, उसने अपने लिए चुनाव किया था।
अविनाश ने उसके चेहरे को ज़ोर से थामा, उसके अंगूठे ने उसके गाल पर बहते आँसुओं को पोंछ दिया। उसकी आवाज़ धीमी थी लेकिन गुस्से और डर से भरी हुई थी।
“अगर तुमने फिर कभी जाने की कोशिश की, दिया... कसम खाता हूँ, मैं तुम्हें वापस खींच लूँगा, चाहे नर्क से ही क्यों न हो।”
उसके स्वर में कठोरता देखकर उसका दिल दुख गया। उसने धीरे से उसके सीने को छुआ।
उसके स्वर में कठोरता देखकर उसका दिल दुख गया। उसने धीरे से उसके सीने को छुआ।
"मैं नहीं जाऊँगी, अविनाश। अभी नहीं, कभी नहीं। मैं तुम्हारी हूँ।"
तेजा लड़खड़ाते हुए अपने पैरों पर खड़ा हुआ, उसका चेहरा अपमान से लाल हो गया। "दिया! यह क्या पागलपन है? मैं तुमसे प्यार करता था। मैं—"
"मुझसे प्यार करता था?" दीया ने उसे बीच में ही रोक दिया, उसकी आवाज़ धारदार थी। "तुम्हारा प्यार बस एक मुखौटा था। मैं सब जानती हूँ। तुम और मीरा—" उसने अपनी सौतेली बहन को घूरा जो भीड़ में पीली पड़ गई थी— "मुझ पर हँस रही थी, मेरा मज़ाक उड़ा रही थी, तब भी जब मैं अपने पिछले जन्म में मर गई थी।"
उसके शब्दों ने सबको चौंका दिया, लेकिन अविनाश की उसकी कमर पर पकड़ और मज़बूत हो गई। वह जानता था कि उसका क्या मतलब है, भले ही दूसरे नहीं जानते हों।
"तुमने मुझे एक बार धोखा दिया था, तेजा," उसने ठंडे स्वर में कहा। "इस बार, मैं इसे दोबारा नहीं होने दूँगी।"
अविनाश के होंठों पर एक खतरनाक मुस्कान आ गई जब उसने दीया को अपने करीब खींचा। "अब वो मेरी है। दुआ करता हूँ कि तुम फिर कभी मेरे रास्ते में न आओ।"
उसने दीया की कमर पर कसकर हाथ रखा और भीड़ की फुसफुसाहट को अनसुना करते हुए उसे ले गया।
---
चमकदार काली कार शहर की सड़कों पर तेज़ी से दौड़ रही थी। अविनाश का हाथ उसके हाथ से हटा ही नहीं। उसकी उँगलियाँ सफ़ेद हो गई थीं, जबड़ा तना हुआ था। वह चुप था, लेकिन उसके अंदर का तूफ़ान साफ़ दिखाई दे रहा था।
दीया उसकी ओर मुड़ी, उसकी आवाज़ धीमी थी।
"अविनाश... मुझे घर जाना है। बस थोड़ी देर के लिए। मेरी दादी की तस्वीर... बस यही बची है मेरे पास उनकी।"
उसका सिर उसकी ओर झुका, उसकी आँखें जल रही थीं।
"नहीं। वो घर ज़हरीला है। मैं तुम्हें उसमें दोबारा क़दम नहीं रखने दूँगी।"
उसने धीरे से उसका हाथ छुआ। "प्लीज़। बस एक बार। मैं ज़्यादा देर नहीं रुकूँगी। मैं वादा करती हूँ।"
काफ़ी देर तक, वह उसे घूरता रहा, तेज़ साँसें लेता रहा, फिर उसने एक गहरी आह भरी।
"ठीक है। लेकिन मेरी बात सुनो, दिया—अगर उन्होंने तुम्हें चोट पहुँचाई, अगर उन्होंने तुम्हारे आस-पास ज़रा भी गलत साँस ली, तो मैं उन्हें बर्बाद कर दूँगी। मैं उस हवेली का एक भी पत्थर नहीं रहने दूँगी।"
उसने उसका हाथ दबाते हुए हल्की सी मुस्कान दी। "ठीक है। मुझे तुम पर भरोसा है।"
---
हवेली के अंदर की हवा भारी और घुटन भरी थी। जैसे ही दिया अंदर आई, उसकी सौतेली माँ अंजलि आगे बढ़ी, उसका चेहरा झूठी चिंता से भरा हुआ था।
"दिया, मेरी बच्ची! तुम लौट आई हो। हमें तुम्हारी बहुत याद आई।"
उसकी सौतेली बहन मीरा भी पीछे-पीछे आई, उसकी आवाज़ में रुआँसीपन था।
"हाँ, बहन। तुम्हारे बिना, घर कितना सूना लग रहा था।"
दिया की आँखें सिकुड़ गईं। "खाली? या सुविधाजनक? नाटक मत करो, मीरा। मैं जानता हूँ तुम असल में कौन हो।"
तभी तेजा अंदर आया, उसके चेहरे पर दर्द साफ़ झलक रहा था।
"दिया... तुम ऐसा क्यों कर रही हो? तुमने मेरे सच्चे प्यार को क्यों ठुकरा दिया? मैंने तुम्हें सब कुछ दिया था।"
“सब कुछ?” दीया फूट-फूट कर हँसी। “तुमने मुझे धोखा दिया। तुम और मीरा ने मुझे मोहरे की तरह इस्तेमाल किया। और तुम इसे प्यार कहते हो?”
उसके चेहरे का रंग उड़ गया।
तभी रंजीत कुमार अंदर आए, उनके भारी कदम संगमरमर के फर्श पर गूँज रहे थे। उनकी तीखी और लालची आँखें दीया पर टिकी थीं।
“बस करो ये ड्रामा। दीया, कंपनी के प्लॉट तुम्हारे नाम हैं। इन्हें मेरे नाम कर दो। परिवार का ख्याल करो, हमारे कारोबार का ख्याल करो।”
दीया मुड़ी, उसका चेहरा शांत था लेकिन उसकी आवाज़ में कठोरता थी।
“मैं तुम्हें क्यों दूँ? ये प्लॉट मेरी माँ की विरासत हैं। मैं तुम्हारे लालच के लिए उनकी यादें नहीं बेचूँगी।”
अंजलि का चेहरा गुस्से से तमतमा गया।
“तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई अपने पिता से इस तरह बात करने की?”
लेकिन दीया के जवाब देने से पहले ही तेजा का हाथ उसके चेहरे पर पड़ गया। थप्पड़ हॉल में गूँज उठा।
सब स्तब्ध रह गए।
दिया का गाल चुभ गया, लेकिन पीछे हटने की बजाय, उसने उसकी कलाई पकड़ ली। धीरे-धीरे, जान-बूझकर, उसने उसका हाथ फिर से उठाया और खुद को दूसरी बार थप्पड़ मारा।
तेजा की आँखें सदमे से चौड़ी हो गईं। "तुम क्या कर रहे हो?"
दिया की आँखें चमक उठीं। "मैं चाहती हूँ कि यहाँ मौजूद हर कोई याद रखे कि तुमने क्या किया। मेरे चेहरे पर यह निशान तुम्हारी कायरता का सबूत है। तुम अपना सच फिर कभी नहीं छिपा पाओगे।"
मीरा की साँस रुक गई। अंजलि आगे बढ़ी। लेकिन इससे पहले कि वे उस तक पहुँच पाते, सामने के दरवाज़े धड़ाम से खुल गए।
अविनाश वर्मा तूफ़ान की तरह अंदर आया, उसकी मौजूदगी से हवा घुट रही थी। उसकी नज़र दीया के लाल हो चुके गाल पर पड़ी और उसके अंदर कुछ टूट गया।
उसने तेजा का कॉलर पकड़ा और उसे दीवार से टकरा दिया।
"तुमने उसे छूने की हिम्मत की?" उसकी आवाज़ धीमी और जानलेवा थी। "मैं तुम्हारे शरीर की हर हड्डी तोड़ दूँगा।"
"छोड़ दो उसे!" रंजीत दहाड़ा। "तुम कौन होते हो दखल देने वाले? यह मेरा घर है!"
अविनाश ने धीरे से अपना सिर घुमाया, उसके होंठों पर एक ठंडी मुस्कान आ गई।
"नहीं। अब यह दीया का घर है। और उसका हर आँसू तुम्हारा विनाश लिखेगा।"
उसने तेजा को कूड़े की तरह ज़मीन पर पटक दिया। वह आदमी अपमानित होकर कराह उठा।
दीया उन सबके पास से गुज़री, उसका सिर ऊँचा था। वह अपने कमरे में गई, अपनी दादी की तस्वीर उठाई और उसे सीने से लगा लिया। उसकी आँखों में आँसू झिलमिला रहे थे।
“दादी, अब मैं अकेली नहीं हूँ। अविनाश मेरे साथ है।”
जब वह लौटी, तो अविनाश दरवाज़े पर इंतज़ार कर रहा था। जैसे ही वह बाहर निकली, उसने उसे अपनी बाहों में भर लिया और उसका हाथ उसके सिर के पिछले हिस्से पर था।
“अब कोई तुम्हें चोट नहीं पहुँचाएगा, दीया। जब तक मैं साँस ले रहा हूँ, तब तक नहीं।”
उसका दिल धड़क उठा। उसने उसकी तरफ देखा, उसकी आवाज़ काँप रही थी।
“मैं सिर्फ़ तुमसे प्यार नहीं करती, अविनाश... मैं तुम्हारी हूँ। पूरी तरह से।”
उसका कठोर चेहरा आखिरकार नरम पड़ गया। उसके होंठ उसके माथे को छू गए, कुछ देर के लिए। “और मैं तुम्हारा हूँ। हमेशा के लिए।”
---
उस रात बाद में, अविनाश के घर में, उनके बीच भावनाओं का तूफ़ान आखिरकार टूट गया। उन्हें अलग रखने वाली दीवारें ढह गईं।
दीया खिड़की के पास खड़ी थी, चाँदनी उसके चेहरे को चाँदी से रंग रही थी। अविनाश उसके पीछे आया, उसका हाथ उसकी कमर पर लिपटा हुआ था, उसे अपनी छाती से सटा रहा था।
"तुम्हें अंदाज़ा भी नहीं है," उसने उसके कान में फुसफुसाया, उसकी साँसें गर्म थीं, "कितनी रातें मैंने तुम्हारे लिए जलाईं। कितनी बार मैंने इस पल के सपने देखे।"
दिया मुड़ी, उसकी आँखें आँसुओं और लालसा से भरी थीं। उसने उसका चेहरा थाम लिया, उसका अंगूठा उसके जबड़े को छू रहा था।
"तो अब और सपने मत देखो। मैं यहाँ हूँ। मैं तुम्हारा हूँ।"
उसके होंठ उसके होंठों से टकराए, उग्र और बेताब। उनका चुंबन गहरा होता गया, और भी गर्म, और भी ज़्यादा माँग वाला होता गया, मानो वे अपने खोए हुए हर पल को वापस पा रहे हों।
उसने अपनी उंगलियाँ उसके बालों में उलझा दीं, उसे और करीब खींच लिया, खुद को पूरी तरह से समर्पित कर दिया। उसके हाथ उसकी पीठ, उसकी कमर पर फिर रहे थे, उसे ऐसे पकड़े हुए थे जैसे वही उसे ज़िंदा रखे हुए थी।
जब वह आखिरकार पीछे हटा, तो उनके माथे आपस में चिपक गए, दोनों की साँस फूल रही थी, उसने फुसफुसाया—
"मुझे कभी मत छोड़ना, दिया। तुम मेरा जुनून हो, मेरा पागलपन हो, मेरा सब कुछ हो।"
वह मुस्कुराई, उसके होंठ उसके होंठों से छू गए।
"नहीं रहूँगा। इस बार, मैं रुकूँगा। मरते दम तक... और उसके बाद भी।"
उस रात के बाद से, दीया अब वो बेबस लड़की नहीं रही जिसे उसका परिवार बरगला सकता था। उसका पुनर्जन्म हुआ था—मज़बूत, निडर और प्यारी।
अविनाश के निर्दयी हाथों से उसके पिता का साम्राज्य टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर गया। तेजा और मीरा का विश्वासघात उजागर हो गया, उनकी प्रतिष्ठा नष्ट हो गई। अंजलि की साज़िशें धूल में मिल गईं।
और इन सबके बीच, दीया अविनाश के साथ खड़ी रही, उसका हाथ उसके हाथ में था, उसका दिल उसके प्रचंड प्रेम में सुरक्षित था।
क्योंकि जब प्रेम आग, विश्वासघात और पुनर्जन्म में गढ़ा जाता है...
तो वह सिर्फ़ ज़िंदा नहीं रहता।
वह सब कुछ जीत लेता है।
रात भारी हो गई थी, और अविनाश वर्मा की हवेली के मंद रोशनी वाले हॉल में, परछाइयाँ खामोश फुसफुसाहटों की तरह रेंग रही थीं। महत्वाकांक्षा से रंगे होंठों और लालच से चमकती आँखों वाली मीरा ने उसे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। वह अविनाश के अध्ययन कक्ष में एक रेशमी पोशाक पहने हुए चली गई, जो उससे बहुत चिपकी हुई थी, मासूमियत का दिखावा करते हुए भी मोहक लग रही थी।
“अविनाश…” उसने अपने बालों को पीछे करते हुए कहा, “तुम अपना समय दीया पर क्यों बर्बाद कर रहे हो? मेरी तरफ देखो… मैं तुम्हें वो सब कुछ दे सकती हूँ जो वह नहीं दे सकती।”
लेकिन अविनाश की आँखें गुस्से से चमक उठीं। इससे पहले कि वह अपना हाथ उसकी छाती पर रख पाती, उसने उसकी कलाई पकड़ ली और घृणा से उसे एक तरफ़ फेंक दिया।
“हिम्मत मत करना,” उसकी आवाज़ गरज उठी। “तुम कभी दीया नहीं बन पाओगी। उसकी जगह लेने का सपना भी मत देखना।”
तभी, दरवाज़ा चरमराया और दीया अंदर आई। अविनाश की आँखों से मिलते ही उसकी आँखें नरम पड़ गईं। उसने बहुत कुछ सुना था, बहुत कुछ देखा था। विश्वासघात का दर्द, बदले की आग और प्यार की गर्माहट, सब उसके दिल में घुल-मिल गए थे।
“अविनाश…” उसने फुसफुसाया।
एक पल के लिए, बाहर की दुनिया गायब हो गई। अविनाश का गुस्सा पिघल गया जब उसने उसे, अपनी दीया को, अंधेरे में किसी लौ की तरह वहाँ खड़ा देखा। वह उसके पास आई और उसके गालों को हल्के से सहलाया।
"तुम गुस्से से जल रहे हो," उसने धीरे से कहा, "जाओ, नहा लो... इस ज़हर को धो डालो। मैं इंतज़ार करूँगी।"
अविनाश का दिल काँप उठा। बरसों में पहली बार उसे शांति का एहसास हुआ। उसने उसकी बात मान ली, और जब वह लौटा, तो उसकी त्वचा पर ताज़ा पानी चमक रहा था, दीया वहाँ थी। दोनों ने एक शांत, भावुक पल बिताया - उसकी उंगलियाँ उसके हाथों को छू रही थीं, उसके होंठ उसके माथे को छू रहे थे। दोनों में बदले की आग जल रही थी, लेकिन साथ ही वासना की तपिश भी।
---
अगली सुबह, दीया मीरा को हवेली के तहखाने में घसीट ले गई, सबसे अँधेरे कोने में जहाँ कोई कदम रखने की हिम्मत नहीं करता था। दीवारों से ज़ंजीरें लटकी हुई थीं, हवा ठंडी थी, और खामोशी शब्दों से ज़्यादा ज़ोर से चीख रही थी।
"सच बताओ मीरा," दीया की आवाज़ गुस्से से काँप रही थी। "मेरी माँ कैसे मरीं? उस रात क्या हुआ था?"
मीरा पहले तो मुस्कुराई, मज़बूत बनने की कोशिश कर रही थी। लेकिन जब दीया ने अपनी पकड़ मज़बूत की और उसे दीवार से सटा दिया, तो उसका आत्मविश्वास डगमगा गया।
"तुम्हें लगता है कि अब तुम मज़बूत हो?" दीया फुसफुसाई। "तुम्हें लगता है कि अविनाश तुम्हें बचाएगा? नहीं मीरा। आज तुम बोलोगी।"
मीरा के गालों पर आँसू बह निकले। "यह... तुम नहीं थीं, दीया," वह हकलाते हुए बोली। "तुम्हारी माँ की मौत... तुम्हारी कोई गलती नहीं थी। वह एक कार दुर्घटना में मर गईं। मेरी माँ के पति के साथ... उस रात दोनों एक साथ मर गए।"
दीया जड़ हो गई। उसका सीना सिकुड़ गया। इतने सालों तक, वह अपराधबोध से ग्रस्त रही, यह सोचकर कि उसकी माँ की मौत का कारण वही थी। और अब... सच्चाई ने उसे बिजली की तरह झकझोर दिया। वह लड़खड़ाती हुई पीछे हटी, उसका शरीर काँप रहा था, इससे पहले कि सब कुछ अँधेरा हो जाए।
जब दीया बेहोश हो गई, तो अविनाश दौड़कर अंदर आया, उसकी बाहें मज़बूत थीं और वह उसे बेसमेंट से बाहर ले जा रहा था। उसने उसे धीरे से बिस्तर पर लिटाया, उसके बालों को पीछे करते हुए फुसफुसाया, "दीया... मेरी दीया... अपनी आँखें खोलो। मैं यहाँ हूँ। मैं हमेशा यहाँ रहूँगा।"
धीरे-धीरे, वह जाग उठी, उसके आँसू चमक रहे थे। अविनाश उसके करीब झुका, उसका माथा उसके माथे को छू रहा था।
"तुम दोषी नहीं हो," उसने गुस्से से कहा। "ऐसा दोबारा कभी मत सोचना। तुम्हारी माँ की मौत का बोझ तुम्हें नहीं उठाना था। बस गलती यही थी कि तुमने गलत लोगों पर भरोसा किया।"
उनके होंठ एक चुंबन में मिले - पहले कोमल, फिर हताश, वर्षों की अनकही लालसा से भरा हुआ। अविनाश ने उसे ऐसे थाम लिया जैसे दुनिया बिखर सकती है लेकिन वह उसे कभी जाने नहीं देगा।
"मुझसे वादा करो, दीया," उसने उसके होंठों से फुसफुसाया, "मुझे फिर कभी मत छोड़ना।"
"मैं वादा करती हूँ," उसने साँस ली, उसकी बाहें उसे कसकर घेरे हुए थीं।
--
दोनों ने मिलकर एक योजना बनाई—अंजलि, मीरा और तेजा को तलवारों से नहीं, बल्कि ताक़त से तबाह करने की।
नाश्ते के वक़्त, अविनाश सबके सामने ज़ोर से बोला:
"मैंने फ़ैसला कर लिया है। मैं मीरा से शादी करूँगा।"
मीरा की आँखें लालच से चमक उठीं। अंजलि खुशी से झूम उठी, जो पहले से ही दौलत और हुकूमत का सपना देख रही थी। रंजीत कुमार हल्के से मुस्कुराए, यह सोचकर कि यह गठबंधन उनके ढहते साम्राज्य को बचा लेगा।
लेकिन अविनाश की आँखों के पीछे सिर्फ़ एक ही सच्चाई थी—उसका दिल दीया का था, और यह तो उनके जाल की शुरुआत भर थी।
---
हवेली रोशनियों से जगमगा उठी। मेहमान हॉल में भर गए। अंजलि और मीरा रानियों की तरह घूम रही थीं, घमंड और अहंकार से भरी, एक-दूसरे से फुसफुसाते हुए कि यह सब जल्द ही उनका होगा।
लेकिन फिर... ट्विस्ट आया। हॉल में लगी विशाल स्क्रीन पर एक वीडियो चलने लगा—अंजलि किसी दूसरे आदमी के साथ आपत्तिजनक दृश्य में कैद हो गई। हवा में साँसें भर गईं। फुसफुसाहटें हँसी में बदल गईं, फिर घृणा में।
रंजीत कुमार का चेहरा शर्म से लाल हो गया। गुस्से से उनका हाथ उठा और भीड़ के सामने उन्होंने अंजलि के चेहरे पर तमाचा जड़ दिया।
"तुमने मुझे धोखा दिया!" वह दहाड़े। "इतने साल, ये सारे झूठ...!"
खबर जंगल की आग की तरह फैल गई। रिपोर्टर लिख-लिख रहे थे, कैमरे चमक रहे थे। अंजलि के धोखे का साम्राज्य मिनटों में ढह गया।
मीरा अपनी माँ का बचाव करने की कोशिश में चीखी, लेकिन किसी ने नहीं सुना। तेजा शर्मिंदा और बेपर्दा होकर पीछे हट गया।
और तूफ़ान के बीच में, दीया खड़ी थी - शांत, उग्र, विजयी।
---
उस रात बाद में, जब मेहमान चले गए और घर में सन्नाटा छा गया, दीया बालकनी में खड़ी थी। अविनाश उसके पीछे आया और उसकी कमर में बाहें डाल दीं।
"अब सब ख़त्म हो गया," वह फुसफुसाया। "वे अब तुम्हें और नुकसान नहीं पहुँचा सकते।"
दीया उसकी ओर झुक गई, उसकी आँखें ज़िंदगी में पहली बार शांति से बंद हो गईं।
"मैंने कभी बदला नहीं चाहा, अविनाश," वह धीरे से बोली। "मुझे तो बस प्यार चाहिए था। लेकिन उन्होंने मेरे पास कोई चारा नहीं छोड़ा।"
"और अब," उसने उसके बालों को धीरे से चूमते हुए कहा, "तुम्हारे पास दोनों हैं। मेरा प्यार। मेरी ज़िंदगी। हमेशा के लिए।"
वह मुड़ी, उसके होंठ एक बार फिर उसके होंठों से मिले - इस बार हताशा में नहीं, बल्कि शुद्ध इच्छा और भक्ति में। ऊपर के तारे साक्षी थे जब दीया और अविनाश ने अपने बंधन को पक्का किया, उनका पुनर्जन्म पूरा हुआ।
इच्छा का पुनर्जन्म।