नागपुर, महाराष्ट्र का एक बड़ा और चहल-पहल भरा शहर है जहाँ सपने तो पलते हैं, पर सच्चाइया छुप जाती हैं। शहर की चमक में सपने तो चमकते हैं, पर उन सपनों के पीछे का अंधेरा कोई नहीं देख पाता।
नागपुर से कुछ दूर एक छोटा सा गाँव है पातालखेड़ी। जहाँ एक सुना सुना सा कॉलेज है — गवर्नमेंट कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी। शहर से लगभग 35 किलोमीटर दूर और इसलिए हॉस्टल और पीजी का सहारा सबको लेना पड़ता है।
जून का महीना था। आसमान मे बादल मंडरा रहे थे, नए सेमेस्टर की ख़ुशबू हवा में घुली थी। पर इस बार सिर्फ़ नए सेशन की तैयारी नहीं हो रही थी… कुछ और भी छुपा था, जो शायद कभी इस गाँव को छोड़ कर गया ही नहीं था… और किसी के आने का इंतज़ार कर रहा था।
तो चलिए चलते हैं एक साल पहले — इंजीनियरिंग का मेरा पहला दिन था। कॉलेज का कैंपस नए चेहरों से भरा था — सभी लड़के-लड़कियाँ नए सपनों के साथ क्लासरूम की ओर भाग रहे थे।
इसी भीड़ में थी मैं — दृष्टि। शांत, हमेशा सोच में डूबी रहती। दुनिया मुझे इंट्रोवर्ट कहती थी, पर जिसे मैं अपना कह दूँ, उसके लिए सब कुछ हार सकती थी।
सेकंड बिल्डिंग, 3rd floor, क्लासरूम नं. 305 — पहला लेक्चर था। मैं पहली बेंच पर बैठी थी, एक कॉपी में कुछ लिखने का बहाना कर रही थी। शायद नए माहौल से ध्यान हटाने के लिए। तभी एक चुलबुली सी आवाज़ मेरी सोच तोड़ती है —
"एक्सक्यूज़ मी… यहाँ कोई बैठा है क्या?" मैंने सिर उठाया — सामने एक लड़की, आँखों में चमक, मुस्कान ऐसी जैसे दोस्ती का हाथ बढ़ा रही हो। वो थी दिव्या। मुझसे बिल्कुल उलट — बातूनी, हर किसी से हँसकर मिलने वाली। सबसे दोस्ती करने वाली।
मैंने हल्का सा मुस्कुराते हुए कहा, "नहीं, कोई नहीं। तुम बैठ सकती हो।" वो तुरंत बैठ गई, हँसते हुए बोली — "मैं दिव्या… और तुम?" "दृष्टि," मैंने धीरे से कहा।
थोड़ा अजीब सा सन्नाटा था। फिर उसने चूप्पी तोड़ते हुए
कहा : "तुम्हारे पास टाइमटेबल है क्या? मुझे समझ ही नहीं आ रहा पहला लेक्चर किसका है!" मैं भी हँसी बिना नहीं रह पाई — टाइमटेबल निकाल के उसे दिखाया। बस वहीं से, दो अजनबियों की बात टाइमटेबल से शुरू हुई, और फिर कब चॉकलेट तक पहुँची, पता ही नहीं चला।
दिव्या ने मुझे एक चॉकलेट दी — "फ्रेंड्स?" मैंने भी हाथ बढ़ा दिया — और उस दिन से जो बंधन बना, वो कभी टूट नहीं पाया। कॉलेज के कॉरिडोर, कैंटीन की चाय, क्लास की
गॉसिप, एग्ज़ाम की टेंशन — सब कुछ हमने साथ जिया।
दिव्या के बिना मैं अधूरी थी, और मेरे बिना वो।
कभी-कभी मैं सोचती थी, "शायद वो सिर्फ़ एक फ्रेंडशिप नहीं थी… शायद किस्मत का कोई पुराना क़िस्सा था… जो फिर से लिखा जा रहा था।"
और फिर… किस्मत ने अपनी मंज़िल तक पहुँचने का रास्ता चुना। एक ऐसा मोड़ जहाँ हमें उस पीजी में रहने जाना पड़ा — जहाँ शायद... कोई हमारा सालों से इंतज़ार कर रहा था।
और हम… उससे अनजान, उस दरवाज़े को खोलने जा रहे थे… जिसके पीछे सिर्फ़ दो कमरे नहीं, बल्कि कुछ और था... और यहीं से... सब कुछ शुरू हुआ था।