एपिसोड 1: छोटे कंधों पर बड़े बोझ
वो उस वक्त सिर्फ 12 साल की थी।
एक छोटी सी लड़की, जिसकी सुबह बाकी बच्चों जैसी हँसी-खुशी से नहीं, बल्कि घुटन और ज़िम्मेदारियों से शुरू होती थी।
वो बाकी बच्चों से अलग स्कूल जाने से पहले ताज़ा पानी भरकर लाती, आटा गूँथती, बर्तन साफ़ करती, और फिर अपने पिता के लिए गरम-गरम रोटी बनाकर उनके सामने रख देती। और उसके पिता कभी कभी चुप चाप खा लेते तो कभी कभी गुस्से मे खाने की थाली ही फेक देते, थाली का फर्श से टकराना उसकी धड़कनें और बढ़ा देता।
बारह साल की प्रथा भोसलें के लिए "सुबह" का मतलब कभी भी सिर्फ़ सूरज का उगना नहीं था।
उसके लिए सुबह का मतलब था –
माँ (सुरेखा) का जल्दी उठकर लोगों के घर बर्तन माँजने के लिए निकल जाना, पिता (विष्णु) का रात की शराब के नशे मे धूत होकर बिस्तर पर पडे रहना और उसका खुद का — छोटी-सी उम्र में बड़ी-बड़ी जिम्मेदारियों को उठाना। वो जान चुकी थी कि यही उसकी ज़िंदगी है, लेकिन उसके मन में एक ज़िद थी — "मैं पढ़-लिखकर अपनी तक़दीर खुद लिखूँगी।"
वेदांत प्रथा का बड़ा भाई जो अपने ही कामो मे व्यस्त रहता, ना तो वो प्रथा को परेशान करता, ना खास मदद। बस सुबह वो जल्दी उठकर मोहल्ले के छोटे-मोटे काम कर लेता, और फिर दिनभर इधर-उधर का काम पकड़कर कुछ पैसे कमाने की कोशिश करता।
घर की हालत ऐसी थी कि माँ एक ही बच्चे की पढ़ाई का खर्च उठा सकती थी —और वो बच्ची थी प्रथा। वेदांत ने बिना विरोध किए अपनी पढ़ाई छोड़ दी थी। प्रथा को इसका मलाल भी था और डर भी… वो जानती थी कि भाई चुपचाप है, लेकिन अंदर से उसे भी उनकी हालात का दुख है।
घर के पास ही बड़े पापा (नरेशराव) और बड़ी मम्मी (शिखा) का मकान था। उनके बच्चे — रूपा और सुनील — अक्सर प्रथा को चिढ़ाते,
"अरे देखो, छोटी नौकरानी स्कूल जा रही है!"
"तू क्यों पढ़ रही है? घर का काम ही करेगी बस!"
बड़ी मम्मी हर बार किसी न किसी बात पर माँ को ताना मारती —“सुरेखा, तेरी लड़की तो बस खर्चा करवाएगी, और तेरा लड़का… कहीं बाप जैसा निकला तो?” और बड़े पापा नरेशराव, शिखा की हर बात में हाँ में हाँ मिलाते।
माँ चुप रहतीं, क्योंकि तर्क करने की ताक़त उनके पास नहीं थी। पिता, शराब के नशे में, इन बातों पर ध्यान भी नहीं देते थे। प्रथा हर सुबह पिता को खाना देकर, फटा-पुराना बैग कंधे पर डालकर सरकारी स्कूल निकल पड़ती। गली के मोड़ पर वो अक्सर भाई को देखती — वो सिर झुकाकर काम में लगा रहता, जैसे उसकी ज़िंदगी ने बचपन से ही किनारा कर लिया हो। रास्ते में जाते-जाते प्रथा के मन में यही सवाल घूमता रहता —
"क्या मेरी ज़िंदगी भी ऐसे ही… बिना किसी अपने के सहारे, बस गुज़र जाएगी?"
उस सुबह, जब प्रथा पिता को खाना देकर, फटा-पुराना बैग कंधे पर डालकर सरकारी स्कूल के लिए निकली, तभी आसमान में बादल घिर आए तभी हल्की-हल्की बूंदें गिरने लगीं।
कुछ ही पलों में बारिश तेज हो गई। सड़क पर बहते पानी में उसके घिसे हुए जूते भीगने लगे। उसने बैग को दोनों हाथों से आगे की तरफ कसकर पकड़ लिया, ताकि किताबें भीग न जाएँ, लेकिन बैग का पुराना कपड़ा पानी रोक ही नहीं पा रहा था। उसके कंधे से पानी की बूंदें टपकते हुए शर्ट और स्कर्ट को पूरी तरह भिगो चुकी थीं।
रास्ते में लोग छाते लेकर चल रहे थे, और वो सोच रही थी —"काश मेरे पास भी एक छाता होता… कम से कम किताबें तो बच जातीं।"
बारिश रुकने का नाम नहीं ले रही थी, और उसकी चाल भी धीमी हो गई। आसमान से गिरती हर बूंद जैसे उसके मन की आवाज़ दोहरा रही थी — "क्या कभी हमारा घर भी हँसी-खुशी वाला होगा… जैसे बाकी लोगों का होता है?"
समय बीतता गया।
पढ़ाई में प्रथा औसत थी — कभी अच्छे नंबर, कभी बस पास। लेकिन उसमें हिम्मत थी, हार मानना उसे आता नहीं था। 10th के इम्तिहान पास किए तो माँ की आँखों में गर्व था, पर घरवालों की बेरुखी वैसी ही थी ।
उसकी ज़िंदगी की किताब का पहला पन्ना पूरा हो चुका था… लेकिन उसे पता नहीं था कि आने वाले पन्नों पर और भी मुश्किल इम्तिहान उसका इंतज़ार कर रहे हैं।