यह कहानी राजा विक्रमादित्य के समय की है, जिसे "विक्रम और बेताल" की कहानियों की शुरुआत माना जाता है। यह कहानी हमें दिखाती है कि कैसे राजा विक्रमादित्य ने एक साधु को दिए गए अपने वचन को पूरा करने के लिए असाधारण साहस और बुद्धिमानी का परिचय दिया।
उज्जैन नगरी में महाराजा विक्रमादित्य का शासन था। वे अपने न्याय, शौर्य और दानशीलता के लिए दूर-दूर तक प्रसिद्ध थे।
एक दिन, जब राजा अपने दरबार में बैठे थे, तभी एक साधु उनके पास आया। साधु ने राजा को प्रणाम किया और भेंट के रूप में एक फल दिया। फल बहुत सुंदर और चमकदार था। राजा ने सम्मानपूर्वक फल स्वीकार किया, साधु को आशीर्वाद दिया और अपने खजांची को वह फल सुरक्षित रखने का आदेश दिया। साधु बिना कुछ बोले, चुपचाप चला गया।
यह क्रम रोज़ चलने लगा। रोज़ सुबह साधु दरबार में आता, राजा को एक फल भेंट करता और चला जाता। न वह कुछ बोलता, न राजा से कुछ माँगता। राजा विक्रमादित्य ने भी उन फलों को सम्मान के साथ एक विशेष भंडार गृह में रखवाना शुरू कर दिया।
कई दिन तक यह सिलसिला चलता रहा। राजा के खजांची ने फलों से भरे ढेर को देखा और मन में सोचा कि साधु इस तरह रोज़ बिना किसी स्वार्थ के फल क्यों दे रहा है। कहीं इसमें कोई रहस्य तो नहीं?
एक दिन, जब साधु ने राजा को फल भेंट किया, तो राजा ने उसे काट कर देखा
जैसे ही फल काटा, राजा और दरबार के लोग यह देखकर हैरान रह गए! फल के अंदर से एक चमकदार, बहुमूल्य हीरा ज़मीन पर गिरा। उसकी चमक से सारा दरबार जगमगा उठा। वह कोई साधारण फल नहीं, बल्कि रत्नों का खोल था।
राजा विक्रमादित्य तुरंत समझ गए कि साधु ने उन्हें यह फल एक साधारण भेंट के रूप में नहीं, बल्कि बहुमूल्य रत्नों को छिपाकर दिया था। उन्हें इस बात का गहरा आश्चर्य हुआ कि साधु ने इतने दिनों तक इतने अनमोल हीरे उन्हें भेंट किए और कभी एक शब्द भी नहीं कहा।
राजा ने तुरंत खजांची को आदेश दिया कि वह पिछले सभी फलों की जाँच करे। खजांची ने जाकर जब एक-एक फल को तोड़कर देखा, तो सब के अंदर से वैसे ही बहुमूल्य हीरे निकले। भंडार गृह अमूल्य रत्नों से भर गया था।
अगले दिन जब साधु आया, तो राजा विक्रमादित्य ने सम्मानपूर्वक खड़े होकर उन्हें प्रणाम किया और कहा, "योगीराज, आपने मुझ पर इतना बड़ा उपहार दिया, मगर आज तक कभी कुछ माँगा नहीं। इन बहुमूल्य रत्नों का क्या रहस्य है और आप क्या चाहते हैं, कृपया मुझे बताएं। मैं आपकी हर इच्छा पूरी करने को तैयार हूँ।"
साधु मुस्कुराए और बोले, "महाराज, आप वास्तव में महान हैं जो आपने मेरे इस मौन प्रयास को समझा। मैं कोई साधारण साधु नहीं, बल्कि तंत्र-विद्या का साधक हूँ और महा-सिद्धि प्राप्त करना चाहता हूँ। इस सिद्धि के लिए मुझे एक वीर पुरुष की सहायता चाहिए जो मेरे कहे अनुसार, बिना किसी डर के, मेरे लिए एक विशेष कार्य करे। मैंने आपकी वीरता और धर्मनिष्ठा के बारे में सुना है, इसीलिए यह भेंट स्वीकार करने के लिए आपको इतना समय दिया।"
राजा विक्रमादित्य ने बिना किसी हिचकिचाहट के पूछा, "बताइए, योगीराज! आपको मेरी क्या सेवा चाहिए? मैं वचन देता हूँ कि मैं आपकी सहायता अवश्य करूँगा।"
साधु ने कहा, "महाराज, आज से चौदहवें दिन, अमावस्या की रात को, आप नगर से बाहर श्मशान घाट के पास स्थित एक पीपल के पेड़ के पास आना। मैं वही अनुष्ठान कर रहा हूंगा। उस दिन मुझे आपके अकेले का एक रात का समय चाहिए। बोलिए देंगे आपका एक रात का समय।”
राजा विक्रमादित्य ने तुरंत दृढ़ता से कहा, "मैं वचन देता हूँ, योगीराज! मै इस अमावस्या की रात जरूर आऊंगा।”
साधु जाते जाते बोला, “जय कलभैराव”
अमावस्या की रात,
राजा विक्रमादित्य नगर के बाहर के शमशान घाट पहुंच गए। वहां योगिराज अनुष्ठान कर रहा था। राजा विक्रमादित्य बोले,“ प्रणाम योगिराज आपके कहे अनुसार मैं आ गया हु बताए मुझे क्या करना है।”
योगिराज ने कहां, “सुनो राजन उज्जैन नगर से लगभग दो सौ कोस दूर एक घने और भयावह जंगल के बीच स्थित श्मशान में पीपल के पेड़ पर एक मुर्दा लटका रहता है। मेरी साधना की पूर्णाहुति की लिए मुझे वो मुर्दा चाहिए। तुम जो और उसे यह लेकर आओ।”
योगिराज की बात मानकर राजा विक्रम मुर्दे को लेने निकल पड़े। वो भयानक जंगल पहुंचे। वह जंगल साधारण नहीं था। सैकड़ों वर्ष पुराने वृक्ष आसमान तक फैले थे, जिनकी शाखाएँ आपस में इस तरह उलझी थीं कि दिन का उजाला भी नीचे जमीन पर नहीं पहुँच पाता। हर तरफ अंधकार और नमी थी। जंगली जानवरों की गुर्राहट और उल्लुओं की हूक लगातार सुनाई देती। कभी अचानक कोई लोमड़ी चीख मारती, तो कभी झाड़ियों में से साँप फुफकारता।
जंगल में कदम रखते ही हवा भारी और ठंडी हो जाती थी। ऐसा लगता था मानो हर पेड़, हर झाड़ी किसी अनजाने रहस्य को छिपाए बैठी है। रास्ते में कहीं-कहीं टूटी हुई खोपड़ियाँ और हड्डियाँ बिखरी मिलतीं।
इस जंगल के बीचों-बीच एक पुराना श्मशान था। वहाँ हमेशा धुआँ और राख फैली रहती। चिताओं की राख अब भी ज़मीन पर जमी थी और जगह-जगह अधजले लकड़ी के टुकड़े पड़े थे। गिद्ध पेड़ों पर बैठे मुँह खोले चीखते।
श्मशान के बीच खड़ा था एक विशालकाय पीपल का पेड़। उसकी जड़ें ज़मीन से बाहर निकलकर साँप की तरह फैली हुई थीं और उसी सबसे ऊँची शाखा से एक मुर्दा बेताल उल्टा लटका रहता था। उसका शरीर काला, आँखें लाल अंगारों जैसी और बाल बिखरे हुए थे। हवा चलने पर उसका शरीर झूलता और हड्डियों जैसी आवाज़ करता।
राजा विक्रमादित्य शमशान पहुंच गए और पीपल पर चढ़कर बेताल को पकड़ लिया.....