अंधविश्वास या भक्ति: मेरे गांव की कहानी का विस्तार
मैं पवन बैरवा, राजस्थान के शैक्षिक जिले की तहसील कनवास का रहने वाला हूँ। मेरे गाँव की मिट्टी में वर्षों पुरानी एक परंपरा का वास है, एक ऐसी परंपरा जिसने मुझे हमेशा इस सवाल के घेरे में रखा है कि मैं जिसे देख रहा हूँ, वह अंधविश्वास है या भक्ति की पराकाष्ठा? यह कहानी मेरे गाँव की है, मेरी अपनी जुबानी।
नवरात्रों का आह्वान और तैयारी
हर वर्ष जब श्राद्ध समाप्त होते हैं और नवरात्रों का पावन पर्व आरंभ होता है, मेरे गाँव का माहौल पूरी तरह बदल जाता है। गाँव के बुजुर्ग कई दिन पहले से ही इसकी तैयारी में जुट जाते हैं। घरों की साफ-सफाई, विशेष पकवानों की योजना और पूजा सामग्री जुटाने का काम जोर पकड़ लेता है। यह केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं होता, यह गाँव के लोगों के लिए सामुदायिक एकता का पर्व बन जाता है। गाँव के मुख्य चौक को सजाया जाता है, और नौ दिनों तक सुबह-शाम आरती और भजन-कीर्तन की अटूट शृंखला चलती है।
नेजा: माता रानी का निशान और उसका विधान
हमारे यहाँ माता रानी का "नेजा" निकलना एक बहुत ही गंभीर और विशिष्ट प्रक्रिया है। नेजा के लिए जिस डंडे का उपयोग होता है, उसे पवित्र माना जाता है। इसे निकलने से पहले विशेष शुद्धिकरण किया जाता है, जिसमें गाँव के पुजारी और कुछ विशेष परिवार हिस्सा लेते हैं। नेजा के ऊपर बँधा लाल या केसरिया वस्त्र और धातु के घुँघरू दूर से ही गाँव में एक पवित्र ऊर्जा के आगमन का संकेत देते हैं।
जिस दिन नेजा गाँव में यात्रा के लिए निकलता है, उस दिन हर घर से लोग अपनी दहलीज पर खड़े होकर नेजा को प्रणाम करते हैं। महिलाएँ कलश लेकर नेजा का स्वागत करती हैं। यह नेजा हमें याद दिलाता है कि भले ही हम छोटी-छोटी बातों पर लड़ते-झगड़ते हों, लेकिन हमारी आस्था का केंद्र एक ही है।
"घोड़ला": दैवीय प्रवेश का विस्मयकारी दृश्य
लेकिन मेरी कहानी का सबसे रहस्यमय हिस्सा "घोड़ला" की प्रथा है। ‘घोड़ला’ बनने वाला व्यक्ति अक्सर गाँव का ही कोई साधारण, सीधा-सादा आदमी होता है। जब माता रानी के आह्वान की प्रक्रिया शुरू होती है, तो वह व्यक्ति अचानक काँपने लगता है। उनकी आँखें स्थिर हो जाती हैं, और उनकी आवाज़ बदल जाती है—वह किसी बड़ी, गंभीर और अधिकारपूर्ण स्त्री की आवाज़ में बात करने लगते हैं। यह दैवीय प्रवेश का वह क्षण होता है, जिसे देखकर बड़े-बड़े नास्तिक भी एक पल के लिए ठहर जाते हैं।
घोड़ला के शरीर में देवी का वास होने पर, वे न केवल भविष्य बताते हैं, बल्कि लोगों के पारिवारिक झगड़े और व्यक्तिगत समस्याओं का निपटारा भी करते हैं। मैंने देखा है कि वे जलते हुए दीये की लौ को अपने हाथ से छू लेते हैं या त्रिशूल को अपने कंधे से लगा लेते हैं, और उन्हें कोई शारीरिक कष्ट नहीं होता। गाँव वाले इसे माता का चमत्कार मानते हैं, और उनकी दी हुई हर बात को पत्थर की लकीर।
प्रसाद और आशीर्वाद का सामाजिक महत्व
घोड़ला द्वारा दिए गए प्रसाद का भी हमारे गाँव में बहुत महत्व है। यह प्रसाद केवल मिठाई या फल नहीं होता, बल्कि एक मानसिक आश्वासन होता है। यदि किसी को संतान प्राप्ति का आशीर्वाद मिला है, या किसी की बीमारी दूर होने का वचन, तो वे लोग उस प्रसाद को बड़ी श्रद्धा से ग्रहण करते हैं।
यह पूरी प्रक्रिया गाँव के सामाजिक ताने-बाने को मजबूत करती है। जिन लोगों के बीच वर्षभर मनमुटाव रहा होता है, वे भी इस दौरान एक साथ आते हैं। घोड़ला की मध्यस्थता से कई पुराने विवाद शांति से सुलझ जाते हैं, क्योंकि देवी का निर्णय अंतिम माना जाता है। एक तरह से, यह प्रथा हमारे गाँव की सबसे पुरानी न्याय-व्यवस्था भी है।
तर्क और आधुनिक पीढ़ी का द्वंद्व
जब मैं इस प्रथा को देखता हूँ, तो मेरे मन में हमेशा एक द्वंद्व चलता रहता है। मैं एक शैक्षणिक जिले का हूँ। मैं जानता हूँ कि आधुनिक विज्ञान इन घटनाओं को मास हिस्टीरिया या ट्रांस-स्टेट कह कर समझाएगा। क्या यह एक गहरा मनोवैज्ञानिक प्रदर्शन है जो एक व्यक्ति अपनी अटूट आस्था के कारण अनजाने में करता है? या यह केवल पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा सामाजिक दबाव है?
गाँव के कुछ युवा अब इस पर सवाल उठाने लगे हैं। वे तर्क करते हैं, वीडियो बनाते हैं, लेकिन जब वे स्वयं घोड़ला के सामने खड़े होते हैं, तो उनकी तर्कशक्ति कहीं खो जाती है। यह हमारी संस्कृति का वह अजीबोगरीब संगम है, जहाँ तर्क और श्रद्धा आमने-सामने खड़े होते हैं और श्रद्धा अक्सर जीत जाती है।
मेरा अंतिम विचार: विश्वास की शक्ति
आज भी, जब नवरात्रों में 'घोड़ला' के दर्शन होते हैं, तो मैं किनारे खड़ा होकर सब देखता हूँ। शायद इस सवाल का कोई सीधा और सरल जवाब नहीं है कि यह अंधविश्वास है या भक्ति। मेरे गाँव के लिए, यह जीवन जीने का एक तरीका है। यह उनकी विश्वास की शक्ति है जो उन्हें जोड़ती है, उन्हें कठिन समय में शक्ति देती है, और उन्हें यह भरोसा दिलाती है कि एक अदृश्य शक्ति है जो उनका ध्यान रखती है।
और शायद, यही वह भक्ति की डोर है जो हमें हमारी जड़ों से बाँधे रखती है, भले ही आधुनिकता हमें कितना भी खींचने की कोशिश करे।