Memoirs – Why So? in Hindi Moral Stories by Sudhir Srivastava books and stories PDF | संस्मरण - ऐसा क्यों?

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संस्मरण - ऐसा क्यों?


         हम सबके जीवन में कुछ ऐसा भी होता है, जिसका उत्तर हमारे पास नहीं होता है। हो सकता है कि मेरा अनुभव आपको अतिश्योक्ति लगे।पर इसका एक- एक शब्द अक्षरशः सत्य है और इसका जिक्र भी मैं अपने कुछेक शुभचिंतकों से करक्षचुक हूँ, पर उत्तर नदारद है। 
        कुछ वर्ष पूर्व एक बहन/बेटी से मेरी भेंट पूर्व निर्धारित सहमति के अनुसार हुई। जिससे पूर्व कभी भेंट नहीं हुई थी। आभासी संवाद के माध्यम से होते हुए हमारे मिलन का यह अवसर आया था। जिसकी जानकारी हम दोनों के परिवारों को भी थी। फिर भी डर, संकोच और असहजता का अहसास भी मन में जरुर था। 
        खैर! जैसे तैसे मुलाकात हुई। पहली नजर में ही उसे देखकर ऐसा लगा कि जैसे वो मेरी बहन, बेटी ही हो। क्योंकि जिस सहजता, अपनेपन और उत्सुकता से उसने आदर भाव और विश्वास का उदाहरण पेश किया था, उसे शब्दों में व्यक्त कर पाना संभव नहीं है। वैसे भी वो मुझसे काफ़ी छोटी भी है।
       और फिर यह मुलाकात हमें राखी के धागों तक पहुँच हमें एक पवित्र रिश्ते में बांधने का सूत्र बन गई। छोटी बहन का बखूबी अधिकार उसकी थाती हो गई। रिश्ते में हम जरूर भाई-बहन के रूप में हैं, पर मुझे उसमें हमेशा अपनी एक और बेटी होने भाव महसूस ता है।शायद इसीलिए मैं यदा- कदा को छोड़कर हमेशा बेटा कहकर ही संबोधित करता हूँ। यूँ तो हमारी गिनती की कुल चार या पाँच अल्पकालिक मुलाकातें ही हैं। पर अधिकार विश्वास और जिम्मेदारी का बोध हमेशा ही दोनों तरफ से प्रगाढ़ता के साथ है। दो बार पारिवारिक मिलन का सुखद संयोग भी रिश्ते की मजबूती का आधार स्तंभ बन गया। बिना किसी दिखावे के यह रिश्ता आगे बढ़ रहा है ।भावनात्मक लगाव का आलम यह है कि जब भी कुछ विशेष होता है, विशेष रूप से परेशानियां, और हम एक-दूसरे से छिपाने का प्रयास करते भी हैं, तो जाने कैसे दूसरे को बोध हो ही जाता है और फिर तो चाहकर भी झूठ बोलना संभव नहीं होता। ऊपर से उसको छोटी होने के कारण शिकवा शिकायतें, नसीहतें, धमकियों का जो नैसर्गिक अधिकार है उससे पार पाना मुश्किल होता है, तब सिर झुका लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता। लेकिन इस बात का गर्व भी होता है कि बड़ा होने का पूरा मान भी मुझे उसके द्वारा मिलता है।
       यूं तो मैं अपने आप को लेकर कम ही परेशान होता हूँ, क्योंकि जीवन जीने का मेरा अपना नजरिया है, फिर भी अपनी वर्तमान स्थिति को देखते हुए कभी-कभी डर भी लगता है, जिसका आभास भी हमारे कुछ अपने लोगों को भी है। शायद इसीलिए मैं कल में बहुत कम विश्वास रखता हूँ, और आज को कल तक ले जाने की चिंता नहीं करता। फिर भी जीवन तो अपने समय अनुसार ही चलता है। इसलिए अगर मगर में उलझाना मेरी विवशता है। जिससे इस बेटी को भी अपनी बेटियों की तरह बचाने का प्रयास करना भी मेरी ही जिम्मेदारी है।
        परंतु एक बात मैं आज भी नहीं समझ पाता हूँ, कि क्यों इतनी छोटी होकर भी मुझे उसमें स्वाभाविक रूप से बहन बेटी के साथ माँ की छवि दिखाई देती है। इतना ही नहीं हर सुबह आँख खुलते ही सबसे पहले उसकी ही झलक दिखती है और मेरे मुँह से एक शब्द बेटी ही निकलता है। 
     ऐसा क्यों है, यह मेरे लिए अबूझ पहेली जैसा है। वैसे भी औरों की तरह वो भी यही कहती हैं कि मैं फालतू बातें बहुत सोचता हूँ। यह भी रहस्य ही तो है कि फालतू सोचना क्या होता है। 
        मेरे इस ऐसा क्यों है? का उत्तर कभी मिलेगा भी या नहीं, यह कहना तो मुश्किल है। लेकिन एक बहन/ बेटी के प्रति अपने कर्तव्यों का बोध अंतिम सांस तक होता रहे। तो ऐसा क्यों? से बहुत फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि जीवन के उत्तरार्ध में निश्चित ही ईश्वर की विशेष कृपा से ही हमारे रिश्ते की डोर बंधी है। जहाँ एक बहन, बेटी और माँ के रूप में ये मुझे न केवल मिली, बल्कि तीनों रिश्तों का बोध भी कराती है। बिना इसकी चिंता किए कि हमारी अगली मुलाकात होगी भी या नहीं। क्योंकि अगली मुलाकात को लेकर मैं खुद ही आश्वस्त नहीं हो पा रहा हूँ। इसके पीछे मेरी नकारात्मकता नहीं विवशता है। जिसे सकारात्मक ऊर्जा से मैं प्रकाशित करते रहने का निरंतर प्रयास बिना किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाए करने की कोशिश कर रहा हूँ।

सुधीर श्रीवास्तव