chand ki यात्रा in Hindi Comedy stories by Deepak Bundela Arymoulik books and stories PDF | चांद की यात्रा

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चांद की यात्रा

चाँद की यात्रा

आज जब हम से पूछा — “अगर आपको मौका मिले तो चाँद पर जाने के लिए कितना खर्च करेंगे?”  
अब भला इस पर क्या कहा जाए! आदमी का पेट एक दिन की सब्ज़ियों के दाम से कांप जाता है, और साहेब लोग पूछ रहे हैं चाँद की टिकट की कीमत। हमने कहा — “भाई साहब, खर्चा तो ठीक है मगर पहले आप ये बताइए कि वहाँ खाना कौन बनाएगा और दूध कौन उबालेगा?” सामने वाले ने आँखें तरेरीं, पूछा — “मतलब?” हमने मुस्कुराकर कहा — “मतलब ये कि जब से इश्क हुआ है, तब से उस ‘चाँद’ की EMI ही नहीं पट रही, जो घर में बैठा है, फिर आसमान वाले चाँद का खर्च कैसे उठाएँ?”  

अब देखिए, हमारे मोहल्ले में तीन तरह के लोग रहते हैं — एक वो जो हर अमावस की रात ‘चाँद से बातें’ करते हैं, दूसरे वो जो हर महीने ‘चाँद सी बीवी’ की EMI भरते हैं, और तीसरे वो बेचारे जो खुद को चाँद समझकर दिन-रात काले धब्बे सहेजते रहते हैं।  
हम किस श्रेणी में आते हैं, ये मत पूछिए; बस इतना समझ लीजिए कि अब अगर कोई बोले “साहब, इस बार नासा ने जनरल पैकेज निकाला है, पाँच लाख में चाँद देख आइए”, तो हम कहेंगे “जनरल पैकेज छोड़ो, जनम भर का तजुर्बा यहाँ ही किचन में मिल जाता है!”  

कभी-कभी लगता है कि चाँद पर जाना आज के दौर की सबसे बड़ी गलतफहमी है। वहाँ जाकर भी क्या मिलेगा? पत्थर, धूल और सन्नाटा। अरे भैया, ये सब तो हमारे रिश्तों में पहले से मौजूद है! वहाँ अगर हवा नहीं है, तो यहाँ सांसें तो हैं मगर रिश्तों में ऑक्सीजन का प्रतिशत घट चुका है। विज्ञान ने चाँद पर पानी खोज लिया, मगर इंसान अब भी अपने घर में एक कप चाय पीने का बहाना खोजता है।  

कहते हैं — “चाँद पर जाने वालों को वीर कहा जाएगा।” लेकिन इस देश में घर लौट कर दाल में नमक कम निकाल देने की हिम्मत दिखाओ, तो असली वीर कहलाओगे। चाँद की सतह पर उतरना आसान है, मगर ‘घर की सतह’ पर नजर झुकाकर उतरना कठिन काम है। वहाँ गुरुत्वाकर्षण कम है, मगर यहाँ भावनाओं का गुरुत्व इतना भारी कि छोटे से संवाद में आदमी दबकर रह जाता है।  

मेरे पड़ोसी वर्मा जी ने चाँद पर जाने के पोस्टर देखकर कहा — “काश मैं भी जा पाता, बीवी से दूर।”  
मैंने कहा — “जाने का क्या मतलब जब लौटना होगा?”  
वर्मा जी बोले — “तो नहीं लौटूँगा।”  
मैंने हँसते हुए कहा — “भाई वर्मा, चाँद पर भी नेटवर्क जाएगा, वो ‘व्हॉट्सऐप लोकेशन’ से पकड़ लेगी कि कहाँ घूम रहे हो। फिर वहाँ का सबसे ऊँचा गड्ढ़ा तुम्हारी कब्र होगा।”  
वर्मा जी ने टीवी बंद किया और बोले — “भाई, सच्ची बात मज़ाक में कह दी, मगर लगी गहरे में।”  

आज-कल रोमांस की परिभाषा ही बदल गई है। पहले आशिक अपनी महबूबा से कहता था — “तुम चाँद जैसी हो।” अब नई पीढ़ी कहती है — “तुम सोलर से चलो, बिजली का खर्च बचे।” पहले लोग आसमान की ओर देखकर चाँद खोजते थे, अब मोबाइल के वॉलपेपर पर चाँद सजाकर रख लेते हैं।  
कई लड़कियाँ तो अपने बॉयफ्रेंड से यों कह देती हैं — “तुम्हें पता है न, मैं चाँद जैसी हूँ।”  
बॉयफ्रेंड मुस्कुराता है — “हाँ, बस काश थोड़ी रोशनी कम और बिल कम होता।”  

हमारे देश में चाँद अब खगोलीय पिंड नहीं, भावनात्मक मुद्रा बन चुका है। “चाँद से सुंदर” कहकर किसी की तारीफ करो तो वो खुश होती है, लेकिन वही तारीफ 'फिल्टर कमाल का है' कहकर करो तो नाराज़। असल में चाँद अब एहसास नहीं, ‘लेंस इफेक्ट’ बन गया है। और आदमी अपनी धरती से इतना दूर हो चुका है कि उसे सचमुच विश्वास है कि दूर जाकर कोई रौशनी मिल जाएगी।  

हम तो कहते हैं कि अगर सरकार सच में टिकट निकालना चाहती है तो पहले एक ‘घर का चाँद स्कीम’ निकाले। जहाँ पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका, या सास-बहू एक दिन साथ बैठकर बिना फोन के बात कर लें। जो वहाँ टिक जाए, वही असली अंतरिक्ष यात्री कहलाएगा।  

वैसे सोचिए, अगर सच में हम चाँद पर जा भी लें, तो करेंगे क्या? धरती पर पाँव रखने की आदत है, वहाँ उछल-उछल कर चलना पड़ेगा। यहाँ तो आधा जीवन दूसरों की उम्मीदों के गुरुत्व से दबे बीता, वहाँ बिना गुरुत्व के संतुलन बिगड़ जाएगा। धरती का तनाव चाँद तक छलक पड़ेगा — “ये खाना वहाँ नहीं मिलता”, “ये जगह रहने के लायक नहीं”, “यहाँ तो वाई-फाई भी कमजोर है” — आदमी वहाँ भी शिकायत करेगा।  
यानी चाँद पे जाकर भी हम वैसा ही करेंगे जैसा धरती पर करते हैं — असंतोष को ‘सेल्फी’ बनाकर चिपकाना।  

लेकिन सच कहें तो हमें उस चाँद की तलाश नहीं जो आसमान में है, हमें उस चाँद की तलाश है जिसके चेहरे पर मुस्कान है। जो हर रोज़ अपने परिवार की परिक्रमा करती है, बिना ऑक्सीजन सिलेंडर के सबको जीवन देती है। वो माँ हो सकती है, पत्नी या प्रेमिका — जिसने अपने हिस्से का सारा चाँदनी बाँट दी और कहा — “तुम दुनिया देखो, मैं यहीं ठीक हूँ।”  

अगर आदमी थोड़ा रुक जाए, तो उसे समझ आएगा कि जीवन में सबसे बड़ा चाँद अपने भीतर है। जिसका गुरुत्वाकर्षण इश्क में है, जिम्मेदारी में है, और थोड़ी सी पागलपन में भी।  
इसलिए जब अगली बार कोई पूछे — “चाँद पर जाने के लिए कितना खर्च करोगे?” — तो बस मुस्कुराइए और कहिए —  
“जब तक अपने घर की चाँदनी की किश्त भी बाकी है, तब तक आसमान के चाँद से क्या वास्ता!”  

आर्यमौलिक