✒️ लेखिका: नैना ख़ान
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इस कहानी “ख़ज़ाने का नक्शा”
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🌍 कहानी का सारांश:
लखनऊ की गलियों से लेकर राजस्थान की रेत तक, दो नौजवान — रैयान मीर और ज़ेहरा नाज़ — एक ऐसे नक़्शे की तलाश में निकलते हैं जो सदियों पुराने सुल्तान बहादुर शाह के गुमशुदा ख़ज़ाने तक पहुँचता है।
लेकिन ये सफ़र सिर्फ़ दौलत का नहीं — इल्म, ईमान और इंसानियत की असली क़ीमत जानने का होता है।
हर मोड़ पर एक नया रहस्य, हर निशान के पीछे एक सदी पुरानी कहानी।
अध्याय 1: दीवारों के दरमियान छिपा राज़
(Lucknow – 1965 की एक शाम)
लखनऊ की पुरानी तंग गलियों में एक हवेली थी — हवेली-ए-रूमी।
उसकी दीवारों पर वक्त की दरारें थीं, मगर हर दरार में एक दास्तान दबी थी।
शाम का वक़्त था — सूरज की आख़िरी किरणें झरोखों से छनकर फर्श पर सुनहरी लकीरें बना रही थीं।
उसी हवेली के एक कमरे में रैयान मीर बैठा था — पच्चीस बरस का नौजवान, आँखों में बेचैनी, दिल में तलाश।
वो अपने मरहूम दादा, नसीर मीर, की छोड़ी हुई पुरानी किताबों को एक-एक करके देख रहा था।
हर किताब पर धूल की परतें थीं, मगर एक किताब ऐसी थी जो बाकी से अलग दिखती थी —
काले चमड़े का कवर, किनारों पर उर्दू में सुनहरी नक्काशी, और बीच में एक अजीब सा निशान:
☪︎ — आधे चाँद के नीचे तीन बिंदु।
रैयान ने किताब खोली —
पहला पन्ना फटा हुआ था, मगर दूसरे पर एक जला हुआ निशान था, और नीचे लिखा था:
“जो तलाशेगा, वही पाएगा — मगर अपने डर से आगे।”
हवा का झोंका कमरे में आया, और किताब का आख़िरी पन्ना खुद-ब-खुद खुल गया।
वहाँ एक पुराना नक्शा था — फीका, मगर अब भी साफ़।
उसमें मकबरा-ए-शहीदा बेग़म, दरगाह-ए-नूर, और क़िला मौराबाद जैसे नाम लिखे थे।
नीचे एक तारीख़ — 1320 हिजरी।
रैयान की साँसें रुक गईं।
वो समझ गया — ये कोई आम किताब नहीं थी,
बल्कि सदियों पुराने किसी राज़ की चाबी।
उसी वक्त कमरे का दरवाज़ा चरमराया,
और अंदर दाख़िल हुई ज़ेहरा नाज़ — उसकी बचपन की दोस्त, और अब एक पत्रकार।
उसके हाथ में कैमरा था, और आँखों में वही जिज्ञासा जो रैयान के दिल में थी।
“रैयान,” उसने हँसते हुए कहा,
“तुम फिर से अपने दादा के ख्वाबों में खो गए हो क्या?”
रैयान ने मुस्कुराकर किताब आगे बढ़ाई —
“ख्वाब नहीं, ज़ेहरा… लगता है, इस बार हक़ीक़त मिली है।”
ज़ेहरा ने नक्शा देखा, और उसके माथे पर शिकन पड़ी।
“ये तो मौराबाद का रास्ता है… वहाँ तो कोई नहीं जाता।”
रैयान ने धीमी आवाज़ में कहा,
“जहाँ कोई नहीं जाता, वहीं सबसे बड़े राज़ दफ़्न होते हैं।”
रात का सन्नाटा उतरने लगा।
हवेली के बाहर अज़ान की आवाज़ गूँज रही थी।
रैयान ने दीवार की अलमारी से एक लकड़ी का बक्सा निकाला —
उसमें वही ताबीज़ रखा था जो उसके दादा हमेशा पहनते थे।
वो ताबीज़ खोलने ही वाला था कि अचानक दीवार के पीछे से एक हल्की सी आवाज़ आई —
जैसे कोई फुसफुसाया हो:
“रैयान... मौराबाद से शुरू हुआ था... मौराबाद पर ही खत्म होगा...”
दोनों ने एक-दूसरे को देखा — डर और हैरत के मिलेजुले रंग आँखों में थे।
ज़ेहरा ने धीरे से कहा,
“क्या तुम सच में वहाँ जाना चाहते हो?”
रैयान ने किताब बंद की, और मुस्कुराया —
“अब ये मेरा फ़र्ज़ है… और शायद मुकद्दर भी।”
(अध्याय 1 समाप्त)
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