Khazane Ka Naqsha - 5 in Hindi Adventure Stories by Naina Khan books and stories PDF | ख़ज़ाने का नक्शा - अध्याय 5

Featured Books
Categories
Share

ख़ज़ाने का नक्शा - अध्याय 5

 


अध्याय 5: “मौराबाद का क़िला — इल्म या अभिशाप?”
(जहाँ हर जवाब के पीछे एक नया सवाल छिपा है…)


🕍 क़िले की सरहद
लखनऊ से सैकड़ों मील दूर, रेत के बीचोंबीच एक पुराना क़िला खड़ा था —
क़िला मौराबाद।
चारों तरफ़ सन्नाटा, टूटी मीनारें, और हवा में धूल की परतें।
कभी ये क़िला “इल्म का शहर” कहलाता था —
जहाँ सूफ़ी, फ़लसफ़ी और दरवेश लोग आते थे।
मगर अब यहाँ सिर्फ़ परछाइयाँ थीं।

रैयान ने जीप रोकी।
क़िले का दरवाज़ा आधा टूटा हुआ था,
उस पर उकेरे शब्द अब भी साफ़ पढ़े जा सकते थे:

“जो दिल से आया, वही दरवाज़े के पार जाएगा।”
ज़ेहरा ने कहा,
“मतलब ये जगह सिर्फ़ बहादुरों के लिए है।”
रैयान मुस्कुराया,
“या शायद… सच्चों के लिए।”


🔍 नक़्शे का रहस्य
अंदर पहुँचते ही दीवारों पर वही चिन्ह ☪︎ नज़र आने लगे।
नक़्शे के मुताबिक़ उन्हें क़िले के अंदर तीन दरवाज़े पार करने थे —
सब्र, नूर, और इम्तिहान।

पहला दरवाज़ा पत्थर का था, जिस पर लिखा था:

“जल्दबाज़ी रूह को अंधा कर देती है।”
रैयान ने ज़ेहरा को रोका —
“हमें रुकना होगा।”
दोनों ने कुछ देर आँखें बंद कीं —
और जैसे ही रैयान ने पत्थर पर हाथ रखा,
वो दरवाज़ा अपने आप खुल गया।

अंदर एक लंबा गलियारा था,
चारों ओर दीवारों में जलती मशालें और बीच में उर्दू के पुराने शेर लिखे हुए थे —

“हर ख़ज़ाना सोने में नहीं होता,
कुछ इल्म के आँसू में छिपे होते हैं।”

⚙️ इल्म का जाल
दूसरा दरवाज़ा “नूर” का था।
यहाँ हवा में धुंध थी —
और ज़मीन पर अलग-अलग निशान, जैसे किसी पहेली का हिस्सा हों।

ज़ेहरा ने कहा,
“शायद ये code है।”
रैयान ने किताब खोली — इल्म-ए-मौराबाद।
एक पन्ने पर लिखा था:

“जहाँ रौशनी गिरती है, वही सच्चा रास्ता होता है।”
वो टॉर्च लेकर दीवारों पर रौशनी डालने लगे।
जहाँ भी रोशनी पड़ती, एक निशान चमक उठता —
जब उन्होंने सही क्रम में पाँच निशानों को छुआ,
तो अचानक दीवार खिसककर खुल गई।

अंदर की हवा ठंडी थी…
लेकिन उस ठंड में भी ज़िंदगी की हल्की गूंज थी,
जैसे कोई आवाज़ कह रही हो — “क़रीब आओ।”


⚔️ अंधेरे में हमला
अचानक पीछे से किसी के कदमों की आवाज़ आई।
रैयान मुड़ा —
इमरान शाही फिर से उनके पीछे था।
अब उसके साथ दो नकाबपोश आदमी थे।

“बहुत अच्छा खेल खेला तुम दोनों ने,”
इमरान बोला,
“मगर अब खेल मेरा है।”
उसने ज़ेहरा को पकड़ने की कोशिश की,
मगर ज़ेहरा ने फुर्ती से दीवार पर लटकती मशाल उससे टकराई।
रैयान ने नकाबपोश पर वार किया,
और किताब को अपनी जैकेट में छिपाया।

लड़ाई के बीच रैयान ने देखा —
दीवार के पीछे से हल्की सुनहरी रोशनी झिलमिला रही थी।
वो उधर भागा —
और एक पत्थर खींचते ही ज़मीन फट गई।

तीनों नीचे गिर पड़े —
लेकिन रैयान और ज़ेहरा एक नई सुरंग में जा पहुँचे,
जबकि इमरान किसी और दिशा में फिसल गया।


💫 इल्म का असली चेहरा
सुरंग के आख़िरी छोर पर एक विशाल कक्ष था।
बीच में एक चांदी का घड़ा रखा था,
जिसके चारों तरफ़ आयतें उकेरी थीं।

ज़ेहरा ने पूछा,
“क्या यही ख़ज़ाना है?”
रैयान ने कहा,
“नहीं… ये तो बस जवाब का पहला हिस्सा है।”

घड़े के ऊपर वही शब्द उभरे:

“इल्म तब तक ख़ज़ाना नहीं बनता,
जब तक उसे बाँटा न जाए।”
रैयान ने घड़ा उठाया —
अंदर कोई सोना या जवाहरात नहीं थे,
बस एक पुरानी पांडुलिपि थी — “किताब-ए-नूर।”

उसने जैसे ही खोला,
रोशनी पूरे कक्ष में फैल गई।
ज़ेहरा की आँखें चौंधिया गईं —
और रैयान ने धीमे से कहा,

“अब समझ आया… ख़ज़ाना कभी सोने का नहीं था।
ये इल्म था — जो पीढ़ियों से छिपाया गया।”

अचानक दीवारों पर एक आवाज़ गूंजी —

“मीर आरिफ़ के वारिस को सलाम।
मगर सफ़र अभी बाकी है…”
रोशनी धीमी हुई —
और उनके सामने एक नया नक़्शा उभर आया।
उस पर लिखा था —
“सीरत-ए-इल्म — आख़िरी मंज़िल, यमन की ज़मीन।”

ज़ेहरा ने रैयान की तरफ़ देखा,
“हम वहाँ जाएँगे?”
रैयान मुस्कुराया,
“अब पीछे मुड़ना गुनाह है।”


(अध्याय 5 समाप्त)