क्लास 10 का वो साल अब याद बन चुका था। बोर्ड के एग्ज़ाम ख़त्म हो चुके थे, और सब अपने-अपने रास्ते जाने वाले थे। लेकिन राहुल, आयुष और सौरभ — ये तीनों "लास्ट बेंचर्स" — अब भी रोज़ स्कूल आते, बस एक ही बहाने से: "मैडम ने कहा था रिज़ल्ट से पहले सब कॉपी सबमिट करो..."
पर असल वजह कुछ और थी — वो अधूरा रह गया पन्ना जो आयुष की डायरी में था।
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1. आखिरी दिन की कॉपी
उस दिन स्टाफ रूम में कॉपियाँ लौटाई जा रही थीं। सब बच्चे अपनी-अपनी कॉपी लेकर जा रहे थे, हँसते हुए, बातें करते हुए।
राहुल ने धीरे से बोला,
“यार, आयुष, तेरी कॉपी में वो खत अभी भी है न?”
आयुष थोड़ा हिचकिचाया, “हाँ... पर मैंने फाड़ दिया।”
सौरभ हँस पड़ा — “झूठ बोल मत। तेरे जैसे इंसान तो पेंसिल का डस्ट भी संभालते हैं।”
आयुष ने बस मुस्कुरा दिया। पर उसकी आँखों में कुछ था — डर या शायद याद।
कॉपी में छिपा वो खत अब एक राज़ बन चुका था। किसी को नहीं पता था कि उसमें क्या लिखा था — सिवाय आयुष के।
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2. कैंटीन का राज़
तीनों दोस्त उस दिन आखिरी बार कैंटीन में बैठे थे। वही पुरानी टेबल, वही अधूरा समोसा, वही शरारती हँसी।
लेकिन इस बार बातों में कोई जोक नहीं था। बस खामोशी थी।
राहुल ने धीरे से कहा,
“वो खत किसके लिए था?”
आयुष कुछ पल चुप रहा, फिर बोला —
“कभी-कभी बात किसी को बताने की नहीं होती, महसूस कराने की होती है।”
सौरभ बोला, “मतलब लव लेटर था?”
आयुष ने मुस्कुरा कर कहा,
“नहीं… लव नहीं, शायद थोड़ा सा सॉरी था।”
उनकी बातें अधूरी रहीं।
घंटी बजी। और वो आखिरी बार क्लासरूम की तरफ चले — जहाँ अब सिर्फ खाली बेंचें रह गई थीं।
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3. एक साल बाद
समय बीत गया। सब अलग हो गए। राहुल इंजीनियरिंग में, सौरभ आर्ट्स में, और आयुष... उसने तो किसी से ज़्यादा बात भी नहीं की थी।
एक दिन राहुल को एक अजीब सा पार्सल मिला।
अंदर वही पुरानी “मैथ्स की कॉपी” थी — जिस पर लिखा था Last Benchers.
कॉपी खोलते ही बीच में एक मोड़ा हुआ पन्ना निकला —
आयुष की लिखावट में —
> “शायद कुछ बातें क्लासरूम की दीवारों में ही रहनी चाहिए।
मैं उस दिन कुछ कहना चाहता था, पर हिम्मत नहीं हुई।
अब अगर कभी तुम स्कूल आओ, तो आखिरी बेंच देखना — वहाँ मैंने कुछ लिखा है।”
राहुल का दिल धड़क उठा। उसने तुरंत सौरभ को फोन किया —
“भाई, स्कूल चलते हैं… अभी।”
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4. आखिरी बेंच पर लिखा सच
शाम तक दोनों स्कूल पहुँचे। मैदान खाली था, दीवारों पर धूल जमी थी, पर हवा में वही पुरानी खुशबू थी — क्लास 10 की यादों की।
उन्होंने वही क्लास खोली।
लास्ट बेंच के कोने पर उंगलियों से कुछ लिखा हुआ था —
> “हर ग्रुप में एक ऐसा होता है, जो हमेशा मुस्कुराता है ताकि बाकी कभी टूटे नहीं।
अगर वो कभी खामोश हो जाए… तो समझना कि उसे भी किसी की ज़रूरत है।”
नीचे लिखा था — “– आयुष”
राहुल और सौरभ दोनों चुप खड़े रहे।
वो हँसी, वो शरारतें, वो डाँट — सब यादें जैसे दीवारों से उतर कर सामने आ गईं।
सौरभ ने धीरे से कहा,
“क्या वो अब भी आसपास है?”
राहुल ने बस आसमान की ओर देखा और बोला,
“शायद... जहाँ भी है, हमें मुस्कुराने की वजह दे गया।”
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5. अंत नहीं — यादों का सिलसिला
कहानी वहीं खत्म नहीं हुई।
अगले हफ्ते, स्कूल की दीवार पर एक नया ग्रैफिटी दिखा —
तीन लड़के बैठे हुए, और नीचे लिखा था —
“Last Benchers — हर क्लास में होते हैं, बस अब सब अपनी-अपनी लाइफ़ में फर्स्ट बेंच पर बैठ गए हैं।”
और उस दिन, राहुल ने पहली बार महसूस किया —
कभी-कभी लास्ट बेंच पर बैठने वाले ही ज़िंदगी की सबसे बड़ी बातें सिखा जाते हैं —
दोस्ती, खामोशी और वो एहसास… जो कभी मार्क्स से नहीं मापा जा सकता।