# कंजूस की शादी
### लेखक: विजय शर्मा एरी
शहर के बीचोंबीच एक पुरानी हवेली में रामलाल रहता था। उसके पास दो मंजिला मकान, तीन दुकानें और बैंक में लाखों रुपये जमा थे। लेकिन उसकी कंजूसी की चर्चा पूरे शहर में थी। वह एक पैसा खर्च करने से पहले सौ बार सोचता था। उसके कपड़े इतने पुराने होते कि उन पर पैबंद लगे रहते। खाने में भी वह इतनी कटौती करता कि लोग कहते, "रामलाल तो भूखे मरने को तैयार है, पर पैसा खर्च नहीं करेगा।"
रामलाल की उम्र अब पचास के पार हो चुकी थी। उसकी दो बहनें थीं जो उसे हमेशा शादी के लिए कहती रहती थीं। पर रामलाल का एक ही जवाब होता - "शादी में इतना खर्चा! नहीं भाई, मुझे अकेले ही ठीक हूं।"
एक दिन रामलाल के दूर के रिश्तेदार मुंशीजी उससे मिलने आए। वे एक चतुर आदमी थे। उन्होंने रामलाल को समझाया, "देखो रामलाल, तुम्हारे पास इतनी संपत्ति है, लेकिन कोई वारिस नहीं। अगर कुछ हो गया तो सब सरकार के खाते में चला जाएगा। शादी कर लो, घर में रौनक आ जाएगी।"
रामलाल ने सोचा - बात तो ठीक है। लेकिन उसकी चिंता थी शादी का खर्चा। मुंशीजी ने मुस्कुराते हुए कहा, "मैं तुम्हारी ऐसी शादी करवाऊंगा कि कम से कम खर्च हो और सारे रीति-रिवाज भी पूरे हो जाएं।"
रामलाल की आंखें चमक उठीं। उसने तुरंत हां कर दी। मुंशीजी ने पास के गांव में एक विधवा की बेटी का रिश्ता ढूंढ लिया। लड़की सीधी-सादी थी और उसकी मां भी ज्यादा मांग नहीं कर रही थी। रामलाल खुश हो गया।
अब शादी की तैयारियां शुरू हुईं। रामलाल ने पहला काम यह किया कि शादी का निमंत्रण देने में पैसे बचाने की योजना बनाई। उसने सोचा, "छपे हुए कार्ड तो बहुत महंगे होते हैं।" उसने अपने हाथ से पुराने कागजों पर निमंत्रण लिखे और बच्चों को पांच रुपये देकर बंटवा दिए।
जब भोज की बात आई तो रामलाल ने कहा, "पंडाल लगाने में हजारों रुपये लगते हैं। हम अपने घर के आंगन में ही शादी करेंगे।" मुंशीजी ने कहा, "ठीक है, पर कुर्सियां तो चाहिए।" रामलाल बोला, "कुर्सियां किराये पर क्यों लें? लोग जमीन पर बैठेंगे। पहले जमाने में सब ऐसे ही बैठते थे।"
खाने का मेनू तय करते समय रामलाल ने कहा, "पूरी-सब्जी काफी है। मिठाई में सिर्फ एक किस्म देंगे।" हलवाई ने जब अनुमान लगाया कि इतने लोगों के लिए कितना सामान चाहिए, तो रामलाल ने आधा कर दिया। "लोग इतना थोड़ी खाते हैं। बस, थोड़ा-थोड़ा चख लेते हैं," वह बोला।
शादी के कपड़ों के लिए रामलाल बाजार गया। नए कपड़े देखकर उसकी जेब कांप उठी। उसने एक पुराने कपड़े की दुकान से सेकंड हैंड शेरवानी खरीद ली। दुल्हन के लिए उसने अपनी बहन से कहा कि वह अपनी पुरानी साड़ी दे दे, उसे धो-धाकर नई जैसी कर देंगे।
बारात का मामला आया तो रामलाल ने घोषणा कर दी, "हम पैदल बारात ले जाएंगे। घोड़ी और बैंड की क्या जरूरत? गांव तो पास ही है।" लोग हैरान रह गए, पर रामलाल टस से मस नहीं हुआ।
शादी का दिन आ गया। रामलाल ने सुबह से ही हिसाब-किताब देखना शुरू कर दिया। उसने हलवाई से कहा, "देखो, एक भी पूरी ज्यादा नहीं बननी चाहिए। बिल्कुल गिनकर बनाना।" हलवाई ने सिर पीट लिया।
दोपहर को बारात निकलने का समय हुआ। रामलाल ने पुरानी शेरवानी पहनी, जिसका रंग उड़ चुका था। सिर पर एक पुरानी पगड़ी बांधी। बाराती भी हैरान थे। सब पैदल चल पड़े। गर्मी का मौसम था। रास्ते में सबकी हालत खराब हो गई।
गांव पहुंचकर दुल्हन के घर वालों ने देखा तो उनके होश उड़ गए। कैसी बारात थी! न बैंड, न बाजा, न घोड़ी। बाराती पसीने से लथपथ थे। दुल्हन की मां रोने लगी, "हाय! मैंने अपनी बेटी का क्या हाल कर दिया।"
पर अब क्या हो सकता था? मुंशीजी ने किसी तरह उन्हें समझाया और शादी की रस्में शुरू हुईं। जब रात को खाना परोसा गया तो और भी मुसीबत आ गई। रामलाल ने इतना कम खाना बनवाया था कि आधे बाराती भूखे रह गए।
जो खाना मिला, वह भी इतना बेस्वाद था कि लोगों ने दो-तीन कौर खाकर छोड़ दिया। मिठाई भी इतनी कम थी कि बस दिखावे के लिए थी। बारातियों में खुसर-फुसर होने लगी। सब रामलाल की बुराई कर रहे थे।
शादी की रस्में पूरी हुईं। अब विदाई का समय था। रामलाल ने दहेज के नाम पर सिर्फ एक पुराना संदूक और दो बर्तन लिए। दुल्हन की मां ने जब अपनी बेटी को विदा किया तो फूट-फूटकर रोने लगी। वह समझ गई थी कि उसकी बेटी का भविष्य अंधकारमय है।
घर लौटते समय बाराती रामलाल को सुना रहे थे, "भाई, इतनी भी कंजूसी ठीक नहीं। तुमने तो शादी की इज्जत ही मिट्टी में मिला दी।" पर रामलाल खुश था। उसने मन ही मन हिसाब लगाया कि उसने कितने पैसे बचा लिए।
घर पहुंचकर जब दुल्हन ने घर की हालत देखी तो वह सन्न रह गई। घर में न कोई ठीक से सामान था, न कोई सुविधा। रसोई में बर्तन गिने-चुने थे। बिस्तर पुराने और फटे हुए थे। वह समझ गई कि वह किस चक्की में पिसने आई है।
पहली रात को रामलाल ने दुल्हन से कहा, "देखो, इस घर में सब कुछ हिसाब-किताब से चलता है। बिजली फालतू नहीं जलानी, पानी बर्बाद नहीं करना, और खाना भी मितव्ययिता से बनाना।" दुल्हन की आंखों में आंसू आ गए।
अगले दिन जब पड़ोसियों ने नई दुल्हन को देखा तो सबको तरस आ गया। उसके चेहरे पर उदासी थी। उसे पुराने कपड़े पहनाए गए थे। रामलाल उसे घर का सारा काम करने के लिए कहता था, पर खर्च के नाम पर एक पैसा नहीं देता था।
कुछ दिनों बाद दुल्हन बीमार पड़ गई। उसे बुखार आ गया। रामलाल ने डॉक्टर को बुलाने से भी मना कर दिया। "डॉक्टर की फीस कौन देगा? घर पर ही देसी नुस्खे आजमाओ," वह बोला। दुल्हन की तबीयत बिगड़ती गई।
आखिरकार पड़ोसियों ने जबरदस्ती डॉक्टर को बुलाया। डॉक्टर ने देखा और गुस्से से बोला, "इतनी लापरवाही! मरीज की हालत गंभीर हो गई है। तुरंत अस्पताल ले जाओ।" मजबूरी में रामलाल को अस्पताल जाना पड़ा।
अस्पताल में इलाज में हजारों रुपये खर्च हुए। जो पैसा रामलाल ने शादी में बचाया था, वह सब इलाज में खत्म हो गया। बल्कि उससे भी ज्यादा खर्च हो गया। रामलाल के चेहरे का रंग उड़ गया।
दुल्हन जब ठीक होकर घर आई तो उसने रामलाल से कहा, "देखो जी, कंजूसी और मितव्ययिता में फर्क होता है। मितव्ययिता का मतलब जरूरत की चीजों पर समझदारी से खर्च करना है, न कि हर चीज में कटौती करना। अगर आप मुझे पौष्टिक खाना खिलाते और साफ-सफाई का ध्यान रखते तो मैं बीमार नहीं पड़ती।"
रामलाल को अपनी गलती का एहसास हुआ। उसने महसूस किया कि उसकी कंजूसी ने उसे कहीं का नहीं रखा। शादी में जो इज्जत गई, वह तो गई ही, अब इलाज में और ज्यादा पैसा खर्च हो गया।
धीरे-धीरे रामलाल बदलने लगा। उसने समझा कि पैसा कमाना जरूरी है, पर उसे सही जगह खर्च करना भी जरूरी है। खुशहाल जीवन के लिए सिर्फ पैसा जमा करना काफी नहीं है, बल्कि उसका सदुपयोग करना भी आना चाहिए।
उसने अपनी पत्नी की बात मानकर घर में जरूरी सामान खरीदे। पौष्टिक खाना बनवाने लगा। पुराने कपड़े बदलकर नए खरीदे। घर में खुशहाली आने लगी। पड़ोसी भी अब रामलाल की तारीफ करने लगे।
एक दिन रामलाल की पत्नी ने कहा, "अब हम उस शादी को दोबारा मनाएंगे। सारे रिश्तेदारों को बुलाएंगे और ठीक से दावत देंगे। वह दिन की शर्मिंदगी मिटानी होगी।" रामलाल मुस्कुराया और बोला, "बिल्कुल! अब मैं समझ गया हूं कि इज्जत और रिश्ते पैसे से ज्यादा कीमती हैं।"
और सचमुच, कुछ महीनों बाद रामलाल ने एक भव्य भोज का आयोजन किया। सारे रिश्तेदार आए। उन्हें देखकर सब हैरान रह गए कि रामलाल कितना बदल गया है।
उस दिन रामलाल ने सबके सामने कहा, "मैंने अपनी कंजूसी से सीख ली है। पैसा जरूर बचाना चाहिए, लेकिन जीवन की खुशियों और रिश्तों की कीमत पर नहीं। माफ कर दीजिए मेरी पहले की गलतियों को।"
सबने रामलाल को माफ कर दिया और उसके बदलाव की तारीफ की। रामलाल की पत्नी ने उसका जीवन बदल दिया था। अब वह एक खुशहाल गृहस्थ बन गया था।
इस कहानी से यह सीख मिलती है कि मितव्ययी होना अच्छी बात है, पर कंजूस होना अच्छा नहीं। जीवन में संतुलन जरूरी है। पैसा कमाओ, बचाओ, लेकिन जहां जरूरत हो, वहां खुले दिल से खर्च भी करो। क्योंकि जीवन में खुशियां, रिश्ते और इज्जत पैसे से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हैं।
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**समाप्त**