एक प्रोफेसर
**लेखक: विजय शर्मा एरी**
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प्रोफेसर अनिरुद्ध वर्मा अपने अध्ययन कक्ष में बैठे थे, चश्मे के पीछे से किताब के पन्नों को घूर रहे थे। लेकिन शब्द उनके दिमाग में नहीं उतर रहे थे। एक ही वाक्य को तीन बार पढ़ने के बाद भी उन्हें समझ नहीं आया कि उन्होंने क्या पढ़ा।
"सर, आपकी चाय," उनकी सहायक नेहा ने कहा, कप मेज़ पर रखते हुए।
प्रोफेसर वर्मा ने चौंककर ऊपर देखा। "धन्यवाद नेहा। अरे, तुम... तुम कौन हो?"
नेहा का चेहरा पीला पड़ गया। "सर, मैं नेहा हूँ। पिछले पाँच सालों से आपकी रिसर्च असिस्टेंट।"
प्रोफेसर वर्मा ने अपने माथे पर हाथ रखा। "हाँ... हाँ, नेहा। मैं... मैं भूल गया था। माफ करना।"
नेहा चली गई, लेकिन उनकी आँखों में चिंता की लकीरें रह गईं। यह पहली बार नहीं था। पिछले छह महीनों में प्रोफेसर वर्मा कई बार चीजें भूल चुके थे - छात्रों के नाम, लेक्चर के समय, कभी-कभी तो अपनी गाड़ी की चाबियाँ भी।
साठ वर्षीय प्रोफेसर अनिरुद्ध वर्मा विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के सबसे सम्मानित प्रोफेसर थे। चालीस साल की शिक्षण यात्रा में उन्होंने सैकड़ों छात्रों को पढ़ाया था, दर्जनों शोध पत्र प्रकाशित किए थे। उनका दिमाग एक विशाल पुस्तकालय था - भारतीय इतिहास, संस्कृति, दर्शन सबकुछ उनकी उँगलियों पर था।
लेकिन अब यह पुस्तकालय धीरे-धीरे खाली हो रहा था।
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डॉक्टर ने निदान सुनाया - प्रारंभिक स्थिति में अल्जाइमर।
"लेकिन... लेकिन मेरा काम," प्रोफेसर वर्मा ने कहा, "मेरे छात्र, मेरे शोध..."
"आपको आराम करना होगा," डॉक्टर ने कहा। "धीरे-धीरे यादें कमजोर होंगी। पहले हाल की बातें, फिर धीरे-धीरे पुरानी भी।"
उनकी बेटी मीरा, जो दिल्ली में वकील थी, उसी हफ्ते वापस आ गई। "पापा, अब मैं आपके साथ रहूँगी," उसने कहा।
"लेकिन तुम्हारा काम..."
"आप ज़्यादा ज़रूरी हैं।"
प्रोफेसर वर्मा को गुस्सा आया। वह किसी के बोझ नहीं बनना चाहते थे। उन्होंने पूरी ज़िंदगी दूसरों को ज्ञान दिया था, और अब... अब वह खुद असहाय हो रहे थे।
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विश्वविद्यालय ने उन्हें विशेष अवकाश दे दिया। उनके सहकर्मी प्रोफेसर मेहता मिलने आए।
"अनिरुद्ध, तुम जल्दी ठीक हो जाओगे," उन्होंने उत्साह से कहा।
प्रोफेसर वर्मा मुस्कुराए, लेकिन उनकी आँखों में गहरा दर्द था। "सुरेश, तुम और मैं जानते हैं कि यह बीमारी ठीक नहीं होती। यह तो बस... बिगड़ती जाती है।"
"फिर भी..."
"मैंने पूरी ज़िंदगी इतिहास पढ़ाया," प्रोफेसर वर्मा ने कहा, खिड़की से बाहर देखते हुए। "मैंने छात्रों से कहा - इतिहास को याद रखो, अतीत से सीखो। और अब... अब मैं खुद का इतिहास भूल रहा हूँ। कैसी विडंबना है।"
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दिन बीतते गए। प्रोफेसर वर्मा के पुराने छात्र उन्हें मिलने आते। लेकिन धीरे-धीरे वह उन्हें पहचानना भूलने लगे।
"सर, मैं राजेश हूँ। आपने मुझे 1995 में पढ़ाया था," एक युवक ने कहा, जो अब खुद एक कॉलेज में प्रोफेसर था।
प्रोफेसर वर्मा ने उसे गौर से देखा। "राजेश... हाँ, नाम तो जाना-पहचाना लगता है।"
"सर, आपने मुझे मुगल साम्राज्य पर रिसर्च करने की प्रेरणा दी थी। आज मैं भी इतिहास पढ़ाता हूँ, आपकी वजह से।"
कुछ पलों के लिए प्रोफेसर वर्मा की आँखों में चमक आई। "मुगल साम्राज्य... हाँ, बाबर ने 1526 में... पानीपत की पहली लड़ाई..." उन्होंने बुदबुदाना शुरू किया।
मीरा ने राहत की साँस ली। कम से कम इतिहास के तथ्य अभी भी उनके दिमाग में थे।
लेकिन अगले ही पल प्रोफेसर वर्मा ने फिर पूछा, "तुम कौन हो बेटा?"
राजेश की आँखों में आँसू आ गए। जिस व्यक्ति ने उसकी ज़िंदगी बदल दी थी, वह उसे याद नहीं रख सका।
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मीरा ने प्रोफेसर वर्मा को उनके अध्ययन कक्ष में बैठाने की कोशिश की। शायद उनकी किताबें, उनके नोट्स कुछ याद दिला दें।
"पापा, यह देखो। आपकी पहली किताब - 'भारतीय स्वतंत्रता संग्राम: एक नया दृष्टिकोण'। इसे लिखने में आपको तीन साल लगे थे।"
प्रोफेसर वर्मा ने किताब को हाथ में लिया, पलटा। "मैंने... मैंने यह लिखी?"
"हाँ पापा। यह आपकी सबसे मशहूर किताब है।"
वह कुछ पन्ने पढ़ने लगे। फिर अचानक उन्होंने किताब बंद कर दी। "यह अच्छी है," उन्होंने कहा, "लेकिन मुझे नहीं लगता कि मैंने यह लिखी।"
मीरा का दिल टूट गया। उनके पिता अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि को भी भूल रहे थे।
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एक रात प्रोफेसर वर्मा अचानक उठे और अपने कमरे में इधर-उधर चलने लगे। मीरा दौड़कर आई।
"पापा, क्या हुआ?"
"मुझे... मुझे लेक्चर के लिए तैयार होना है," उन्होंने कहा, कोट पहनने की कोशिश करते हुए। "छात्र इंतज़ार कर रहे होंगे।"
"पापा, रात के दो बजे हैं। कोई लेक्चर नहीं है।"
"नहीं, नहीं," वह ज़िद्द करने लगे। "मुझे जाना है। महात्मा गांधी और सत्याग्रह पर लेक्चर है। मैंने तैयारी भी की है।"
मीरा ने उन्हें धीरे से बिठाया। "पापा, आप रिटायर हो चुके हैं।"
प्रोफेसर वर्मा ने उसे घूरा। "तुम कौन हो मुझे रोकने वाली?"
"मैं मीरा हूँ पापा। आपकी बेटी।"
"बेटी?" उन्होंने कहा, भ्रमित होकर। फिर धीरे-धीरे उनकी आँखों में पहचान आई। "मीरा... हाँ, मेरी बेटी।"
वह रोने लगे। "मुझे माफ करो बेटा। मैं... मैं सब भूल रहा हूँ। मेरा दिमाग... मेरा ज्ञान... सब खत्म हो रहा है।"
मीरा ने उन्हें गले लगाया। "पापा, आप हमेशा मेरे हीरो रहेंगे।"
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धीरे-धीरे प्रोफेसर वर्मा की स्थिति बिगड़ती गई। वह अब इतिहास के तथ्य भी भूलने लगे। जिस विषय को उन्होंने चालीस साल पढ़ाया था, वह धुंधला होता जा रहा था।
एक दिन मीरा ने उनसे पूछा, "पापा, भारत को आज़ादी कब मिली थी?"
प्रोफेसर वर्मा ने सोचा, बहुत सोचा। "मुझे... मुझे याद नहीं।"
मीरा की आँखों में आँसू आ गए। जिस व्यक्ति ने हजारों छात्रों को इतिहास पढ़ाया था, वह खुद इतिहास भूल रहा था।
लेकिन कभी-कभी चमत्कार होते थे। कभी-कभी प्रोफेसर वर्मा की पुरानी यादें अचानक लौट आतीं।
"मीरा," एक दिन उन्होंने कहा, "तुम्हें याद है जब तुम छोटी थी, तो मैं तुम्हें रोज एक कहानी सुनाता था?"
मीरा चौंक गई। "हाँ पापा, याद है।"
"मैं तुम्हें इतिहास की कहानियाँ सुनाता था। तुम कहती थी - पापा, राजा-रानी की कहानी बोरिंग है। मुझे परियों की कहानी सुनाओ।"
मीरा हँसी, आँसुओं के बीच। "और आप कहते थे - इतिहास परियों की कहानियों से ज़्यादा रोमांचक है।"
"हाँ," प्रोफेसर वर्मा मुस्कुराए। लेकिन कुछ ही मिनटों बाद वह फिर से खो गए।
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विश्वविद्यालय ने प्रोफेसर वर्मा के सम्मान में एक समारोह का आयोजन किया। उनके पुराने छात्र, सहकर्मी, सब इकट्ठे हुए।
मीरा ने प्रोफेसर वर्मा को तैयार किया। "पापा, आज आपके सम्मान में कार्यक्रम है।"
"मेरे सम्मान में? क्यों?" उन्होंने पूछा।
"क्योंकि आप एक महान शिक्षक हैं।"
समारोह में एक के बाद एक लोग आए और प्रोफेसर वर्मा के बारे में बोले। उनके योगदान के बारे में, उनकी शिक्षाओं के बारे में, कैसे उन्होंने सैकड़ों जीवन बदल दिए।
प्रोफेसर वर्मा शांति से बैठे सुनते रहे। उनकी आँखों में भ्रम था - ये लोग किसके बारे में बात कर रहे हैं?
जब उन्हें मंच पर बुलाया गया, वह खड़े हुए। माइक के सामने खड़े होकर वह कुछ देर चुप रहे।
"मैं... मैं नहीं जानता कि मैं यहाँ क्यों हूँ," उन्होंने ईमानदारी से कहा। "मुझे याद नहीं कि मैंने क्या किया। लेकिन आप सब यहाँ हैं, तो शायद मैंने कुछ अच्छा किया होगा।"
उन्होंने रुककर, फिर कहा, "यादें मिट सकती हैं, लेकिन प्रभाव रह जाता है। मैं भले ही आप सबको भूल रहा हूँ, लेकिन आपने जो कुछ सीखा, जो कुछ बना, वह हमेशा रहेगा। और शायद... शायद यही असली विरासत है।"
पूरा हॉल तालियों से गूँज उठा। कई लोगों की आँखों में आँसू थे।
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घर लौटकर प्रोफेसर वर्मा अपनी कुर्सी पर बैठ गए। मीरा उनके पास बैठी।
"आज अच्छा दिन था," उन्होंने कहा।
"हाँ पापा।"
"मुझे तुम्हारा नाम याद नहीं," उन्होंने कहा, "लेकिन तुम अच्छी हो। तुम रोज मेरा ख्याल रखती हो।"
"मैं आपकी बेटी हूँ," मीरा ने कहा, रोते हुए।
"बेटी..." उन्होंने दोहराया। "सुंदर शब्द है।"
उन्होंने मीरा का हाथ पकड़ा। "तुम जानती हो, मैं एक शिक्षक था। मुझे लगता है... मुझे लगता है कि मैं अच्छा शिक्षक था।"
"आप सबसे अच्छे शिक्षक थे पापा।"
"अच्छा," वह मुस्कुराए। "तो मैंने अपनी ज़िंदगी बेकार नहीं की।"
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महीने बीते। प्रोफेसर वर्मा अब ज़्यादातर समय अपनी दुनिया में खोए रहते। लेकिन कभी-कभी, बहुत कम, उनके चेहरे पर संतोष की झलक दिखती।
मीरा ने सीख लिया था कि यादें न सही, लेकिन पल तो बनाए जा सकते हैं। हर रोज वह अपने पिता के साथ समय बिताती - उन्हें बगीचे में ले जाती, संगीत सुनाती, किताबें पढ़कर सुनाती।
एक दिन जब वह पढ़ रही थी, प्रोफेसर वर्मा ने अचानक कहा, "अच्छी आवाज़ है तुम्हारी।"
"धन्यवाद।"
"तुम कौन हो?"
"कोई अपना," मीरा ने कहा, अब दर्द से नहीं, स्वीकृति से।
"अच्छा है," प्रोफेसर वर्मा ने कहा। "अपने होना अच्छी बात है।"
उस शाम सूरज ढल रहा था। प्रोफेसर वर्मा खिड़की से बाहर देख रहे थे।
"कुछ बातें याद नहीं रहतीं," उन्होंने कहा, किसी से नहीं, बस खुद से। "लेकिन कुछ बातें... कुछ बातें दिल में रह जाती हैं। भले ही दिमाग भूल जाए।"
मीरा ने उनका हाथ पकड़ा। और उस पल, उस एक पल में, सबकुछ ठीक था।
क्योंकि प्यार को यादों की ज़रूरत नहीं होती। प्यार तो बस... होता है।
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**समाप्त**