एपीसोड -2
सन 1995 में फ़ेडेरशन हॉल बुक करवा लिया था। कार्यक्रम से पहले संचालिका हाथ में कवयित्रियों की लिस्ट लिए उससे कह रही थी ,``आपने बहुत ग़लती की है। ये कार्यक्रम बहुत फ़्लॉप होगा। आपने कहीं सुना है की किसी महिला ने कोई कविता का सम्मलेन संचालित किया है ?``
लेकिन उस कार्यक्रम को आशा से अधिक सफ़लता मिली .
उस समय उनको भी नहीं पता था कि कर्नाटक व दिल्ली के बाद के गुजरात में देश की ये तीसरी महिला साहित्यिक संस्था है जिसमें महिलायें साहित्य के नाम अपने घर के कामों के नागपाश से अपने को कुछ समय मुक्त कर मिलतीं हैं। औरतनुमा जो लेबल औरतों पर दुनिया ने लगा रक्खा है ,ये वक्त चारों ओर उस छटपटाहट से निकलने का बन चुका था।
यही बात उसे हमेशा अरविन्द आश्रम के लॉन की घास पर बैठ कर कचोटती थी क्यों नहीं बढ़ रही दस पन्द्रह से आगे लेखिकाओं की इस संगठन में संख्या ? उसे पता नहीं था कि इन मुठ्ठी भर स्त्रियों की कलमें ही बाकी भारत की करोड़ों स्त्रियों के मौन को आवाज़ दे रहीं हैं।
बड़ौदा की प्रथम साहित्यिक संस्था के अध्यक्ष प्रोफ़ेसर और उनकी पत्नी उससे बहुत स्नेह करते थे। उन्होंने ही प्रस्ताव दिया ,``इरा जी !आपके लेखनी व हमारी संस्था मिलकर एक कार्यक्रम करते हैं। ``
``वाह !ये तो बहुत अच्छा प्रस्ताव है। ``वह मन ही मन ख़ुश हो गई थी कि वह जो जानती नहीं थी कि संस्था क्या होती है ,उसने सच ही कुछ कर दिखाया है।
``बस एक शर्त है। हमारी संस्था का बैनर मंच के पीछे की दीवार पर बीच में लगेगा। `लेखनी `के बैनर का क्या है उसे आप हॉल के बाहर कहीं भी इधर उधर टाँग दीजिये। ``
`` क्या ?``उसकी ऑंखें अचरज से फैलकर ऐसे कार्यक्रम के लिए `ना `कह बैठीं थीं। ``
डॉ. सारा देसाई ने उस दिन बम्ब विस्फ़ोट कर दिया था ,``मुझे अरविंद आश्रम के प्रेसीडेंट ने बुलाकर कहा है कि `लेखनी `अब अपनी मीटिंग यहां नहीं कर सकती। ``
`` क्यों ?``सारी सदस्यों में खलबली मच गई थी क्योंकि ये शहर का हृदयस्थल था ,जहाँ पर पहुंचना सबके लिए सुविधाजनक था।
``उन्होंने गोल गोल यही कहा है कि हम सब जो लिख रहे हैं वह समाज के लिए सही नहीं है। ``
वह तमक पड़ी थी ,``अहिन्दी भाषी वे क्या हिंदी पत्रिका पढ़ पाते होंगे ?``
``मैंने उन्हें समझाने की कोशिश भी की कि हम चार से छ: बजे तक यहां के लॉन में मीटिंग करतें हैं तो किसी क्या बिगड़ता है ?यहां के हॉल में प्रोग्राम तो अक्सर छ:बजे के बाद होतें हैं।फिर भी उन्होंने रुखाई से कहा यहाँ की कमेटी ने ये निर्णय लिया है। ``
वहां होने वाली मीटिंग्स को अरविन्द आश्रम से इस स्त्री संस्था ` लेखनी `. `को खदेड़े कितने बरस गुज़र गए ---- सोलह सत्रह - साल ?तबसे ज़माना बिल्कुल नहीं बदला ---वह अभी अभी इस दूसरे शहर के उन पंद्रह सोलह महिलाओं की ग़लती ये थी कि उनके हाथ में कलम थी ,जो सच लिख रही थी।.
अब तक कोई ये नहीं सोच पाया कि जो नियम स्त्रियों पर लादते रहे हैं ,उन्हें बुरे नहीं लगते ?वो मनुष्य ही कहाँ हैं ?तभी `पच्चीस वर्ष पहले सृष्टि ने पंक्ति लिखी थी ;
`` उंगलियां उठ रहीं हैं ,जहाँ मैं भी एक मनुष्य थी। ``
तीस बरस बाद वही बात उस प्रदेश के अकादमी अध्यक्ष उसकी स्त्री विमर्श के सम्पादित काव्य संग्रह की बेमन प्रस्तावना लिखते समय कह रहे हैं ,``आप सब जो लिख रहीं हैं ,मुझे क्या सभी को बुरा लग रहा है। ``
ये तो भला हो उस बड़ौदा शहर के राजकीय गायकवाड़ परिवार का जिसने सोलह सत्रह साल पहले शहर के बीच में एक स्थल `अभिव्यक्ति ` शहर के कलाकारों की मीटिंग्स के लिए , एक गैलरी कला प्रदर्शनी के लिये दे दिया था. तब उस ओपन एयर विशाल `अभिव्यक्ति `के पेड़ों तले पड़ी मेज़ कुर्सियों पर ये गोष्ठियां होने लगीं थीं
इस दूसरे अहमदाबाद शहर में आने पर कितने गुमान से `लेखनी `की स्थापना की थी। रूपा जी विश्वविद्यालय की विभागाध्यक्ष तो कह उठीं थीं ,``तुम्हारे सितारे बुलंद हैं। कुलपति महोदय ने मुझे अभी अभी मीटिंग में कहा है कि आप कुछ हिंदी विभाग से नया करिये। तुम्हारी `लेखनी `की स्थापना हो जाएगी व हमारे विभाग में एक कार्यक्रम। ``उसके लिए सपने जैसा था कि उसके इस शहर में आने के दो महीने में उसकी एक कवयित्री मित्र आई पी एस व कुलपति महोदय की उपस्थिति में `लेखनी `की स्थापना हो गई थी। रूपा जी के कारण ही शहर के हृदयस्थल में गान्धीजी के सुझाव पर बनाई एक इमारत साहित्य परिषद ,जिसमें साहित्यिक संस्थाएं मिल सकें में `लेखनी `की हर माह गोष्ठी होने लगी थी।
बहुत से शहरों में स्त्री साहित्यिक संस्थाएँ बनती जा रहीं थीं। ये संस्थाएं आर्थिक रूप से समर्थ थीं ,बड़े बड़े आयोजन कर लेतीं थीं लेकिन वह इस अहिन्दीभाषी शहर में रचनाकारों की रचनात्मकता प्रवृत्ति पर ,उसे प्रोत्साहित करने के लिए काम कर रही थी। बहुत गंभीरता से गोष्ठी में चर्चा होती थी। एक बार वे सब `लिव -इन रिलेशनशिप` पर गोष्ठी में गंभीर चर्चा करके कमरे से बाहर आ रहीं थी। उसने मृणाल व सिंधु को शाबासी दी थी क्योंकि लिव -इन के कानून पर उसने अपने हाई कोर्ट में काम करने वाले पिता से जानकारी लेकर बहुत गंभीर आलेख लिखा था।
तभी वहां का चपरासी सामने से गुज़रा। उसने आदतन पूछा ,`कैसे हो पटेल ?``
``एक दम बढ़िया। ``फिर उसने व्यंग से मुस्कराते हुए कहा ,``यहाँ ऑफ़िस में सब कहतें हैं। ये औरतें यहां साहित्य के नाम पर चाय पीकर समोसे खाकर गप्पें मारकर चली जातीं हैं। ``
हम सब इस बात से क्रोधित होकर वहीं खड़े रह गए। मधुरिमा जी चिल्ला पड़ी ,``तुम जानते हो मैं नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ डिज़ाइनिंग में प्रोफ़ेसर रही हूँ, सुषमा जी हिंदी विभागाध्यक्ष रहीं हैं तो हम गप्पें मारने आएंगे ?``
वह भी लगभग चीख पड़ी ,`` लेखनी की सलाहकार अपने शहर की पुलिस कमिश्नर है ,वे भी कभी कभी मीटिंग में आतीं हैं .हम लोग तो तीन वर्ष से यहां आ रहीं रहे हैं ,कुछ कार्यक्रम भी कर चुके हैं। तब भी ये लोग ऐसा बोल रहे हैं ?``
उसने घर पहुँचते ही सबसे पहले लेपटॉप खोला व धड़ाधड़ स्थानीय अखबारों की,देल्ही की पत्रिकाओं की क्लिप्स जिसमें `लेखनी `की गतिविधियों `की रिपोर्ट प्रकाशित हुईं थीं मेल कर दीं -अब बताओ हमें गप्पें मरने वाली औरतें।वह सोच रही थी कि अब वे इन्हें इज़्ज़त से देखने लगेंगे लेकिन -----.
हम सब अपनी अपनी तरह से अपनी रचनाओं में जुटे रहते थे। वह किसी कहानी या कविता प्रतियोगिता की विज्ञप्ति देखती तो मीटिंग में बताती। उसकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहता था जब वह देखती कि सदस्याएं अखिल भारतीय प्रतियोगिताओं में पुरस्कार जीत रहीं हैं। एक दिन देल्ही की समर्थ लेखिका प्रतीक्षा जी का फ़ोन मिला ,``कैसीं हैं ?मैं आपके शहर में ही हूँ। ``
``वाह !उपरवाले की क्या खूब मर्ज़ी है। परसों `लेखनी `की मीटिंग है। आप अवश्य पधारें। आपके महाभारत की एक चरित्र पर लिखे उपन्यास के लिए `लेखनी `आपका सम्मान करेगी। ``
उन्होंने थोड़ी औपचारिकता से कहा ,`सम्मान वगैरहा छोड़ो ,मैं तो लेखनी की मेम्बर्स से मिलना चाह रही थी ,देल्ही में भी इसकी चर्चा सुनी है। ``
``ये हमारा सौभाग्य है कि आप हमारे शहर आईं हैं। ``
गोष्ठी का माहौल उस दिन बहुत गंभीर था ,एक तो महाभारत की उपेक्षित पात्र `हिडिम्बा `पर किसी स्त्री ने सहानुभूतिपूर्ण लिखा था,जिस तरह से वह इस उपन्यास का परिचय दे रहीं थीं लग रहा था कि हम सब भी भीम के साथ हरे भरे पेड़ों व पहाड़ों वाले अरण्य में विचर रहें हैं,झरने की फुहारों में भीग रहे हैं। उस दिन उस कमरे की एक दीवार पर बहुत बड़ी आदिवासी स्त्री की पेंटिंग लगी हुई थी। सदस्यायों ने अब तक कवयित्रियों को ही सुना था। पहली बार एक लेखिका को सुन रहीं थी ,बहुत भाव विभोर होकर। गोष्ठी के बाद नीमा व प्रीत उठ गईं क्योंकि आज विशेष पार्टी का इन्तज़ाम था। जैसे ही पेपर प्लेट पर नीमा ने समोसे रखने आरम्भ किये वैसे ही दरवाज़े पर ठक ठक हुई। प्रीत ने दरवाज़ा खोला, सामने खड़ा था वॉकी टॉकी लिए सहायक लिपिक दिवांग,``आप लोग मीटिंग कर रहीं हैं या पार्टी। ``
`` आज `लेखनी `में गेस्ट आईं हुईं हैं पार्टी भी है। ``
``आपको यहां के नियम कानून नहीं पता ,यहां पार्टी नहीं कर सकतीं। ``
अब तक वह भी उठकर उसके पास चली आई ,``ये पहली बार थोड़े ही है कि हम पार्टी कर रहे हैं। हमने तो यहां के बरामदे में भी पार्टी दी है। ``
वह गुर्राया ,``नए नियम के अनुसार आप इस बिल्डिंग के अंदर पार्टी नहीं कर सकतीं .``
``हमें नए नियम का पता नहीं था। सॉरी ,अगली बार से पार्टी नहीं करेंगे। ``
``नियम तो नियम होता है। नियम बन गया तो आप यहाँ पार्टी कैसे कर सकतीं हैं। ``
वह दबे स्वर में बोली थी ,``यहां हमारी देल्ही की मेहमान बैठीं हैं। ज़रा धीरे से बात करिये। आपको बात समझ में नहीं आ रही ?``
``मैंने कहा न ऊपर से ऑर्डर है कोई अंदर नाश्ता नहीं करेगा। ``
``आज बरामदे में नाश्ता करने की अनुमति दे दीजिये। ``वह काले खूंखार आँखों से उसे देखते क्लर्क से गिड़गिड़ा रही थी।
``कैसे करने दूँ ?चलिए बाहर निकलिये। ``
वह शर्म से गढ़ी जा रही थी। प्रतीक्षा जी स्वयं चलकर वहां आ गईं और उसके कंधे पर हाथ रख दिया ,``प्लीज़! डोंट वरी। ````बात ये नहीं है कि नया नियम बना है। इन लोगों को पता था कि आज हमारी मीटिंग है। मैं उसकी अनुमति मेल से लेतीं हूँ तो क्या इन्हें मेल करके नया नियम बताना नहीं चाहिये था ?``
सारी सदस्यायें लटके हुए मुंह से कमरे से एक एक करके बाहर निकलने लगीं। नीमा व उसके साथ तीन अन्य सदस्यों ने हाथ में खाने पीने का सामान ले लिया।
नीमा ने मुलामियत से पूछा ,``भाई !क्या वरांडे में खड़े होकर नाश्ता कर लें? ``
वह चीखा ,`क्या समझ नहीं आ रहा ?``
दूसरी ने कहा ,``भाई !ये दिल्ली वाली क्या सोचेंगी ?`
``सोचने दो। ``
उधर वह शर्म से गढ़ी प्रतीक्षा जी को सफ़ाई दे रही थी ,``हम लोग तो अक्सर पार्टी करते हैं ,कभी ऐसा नहीं हुआ। ``
वह शालीनता से समझा रहीं थीं ,``आपकी क्या ग़लती है ?``
अहमदाबाद की उन विदुषी साहित्यिक महिलाओं `व देल्ही की सम्मानीय साहित्यिक अतिथि ने बड़े गेट से बाहर निकल कर हाथ में समोसे व मिठाई लेकर उस इमारत की बाउंड्री वॉल के पास लाइन में खड़े होकर ,बिना आते जाते वाहनों में से आश्चर्य से झांकते लोगों की निगाहों की परवाह किये हुए खाये थे .जो इमारत गांधीजी की परिकल्पना थी ,जो गांधी जी औरतों के हिमायती थे। और जो इमारत देश के सर्वश्रेष्ठ गिने जाने वाले प्रदेश की थी। दूरदर्शी गांधी जी भी नहीं सोच पाए होंगे जिस देश के लिए वे लड़ रहे हैं उसकी सत्ता किन हाथों में जाने वाली है।
उनत्तीस तीस वर्ष वर्ष पहले वह `लेखनी `को तुरुप की चाल से एक समर्थ संस्था से निकल लाई थी। क्यों फैलाया ये भ्रम कि वैदिक काल में स्त्रियों को समकक्ष समझते थे ?स्त्रियां ही जुटी हैं सच की थाह पाने ,खोज करने --यदि ऐसा होता तो क्यों वेदों में स्त्रियों की इतनी कम ऋचायें हैं ?यही बात उसे हमेशा अरविन्द आश्रम के लॉन की घास पर बैठ कर कचोटती थी ।क्यों नहीं बढ़ रही दस पन्द्रह से आगे लेखिकाओं की इस संगठन में संख्या ? वैदिक समय की बातें वह कुछ स्त्री संगठनों से जान रही थी। `लेखनी `की अध्यक्ष तो स्वयं संस्कृत विभाग की अध्यक्ष थीं व दूसरी सदस्य व्याख्याता। पुरातन व समसामायिक साहित्य का अद्भुत संगम बन गई थी ये लेखनी।
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नीलम कुलश्रेष्ठ
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