Kaancha - 2 in Hindi Travel stories by Raj Phulware books and stories PDF | कांचा - भाग 2

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कांचा - भाग 2


 कांचा — भाग 2

लेखक — राज फुलवरे

अध्याय 1 — सच्चे दिल की शुरुआत

नेपाल की वादियाँ हमेशा की तरह शांत थीं। सुबह का सूरज धीरे-धीरे पहाड़ियों के पीछे से निकल रहा था। चाय के बागान पर फैली धुंध जैसे धरती को चूम रही थी। हवा में ताज़ी मिट्टी और कच्चे चाय पत्तों की खुशबू घुली हुई थी। पक्षियों की चहचहाहट के बीच दूर से एक परिचित आवाज़ गूंजी —
“कांचा! थोड़ा जल्दी करो, हमें फैक्ट्री पहुँचना है।”

वो आवाज़ सुमित्रा की थी — वही जो कभी दिल्ली की बिज़नेस मीटिंग्स में सटीक जवाब देने वाली सख़्त लड़की थी, अब नेपाल के पहाड़ों में एक शांत मुस्कान के साथ जीना सीख चुकी थी।

कांचा तुरंत दौड़ता हुआ आया — वही सीधा-सादा सूरज जिसे सब प्यार से “कांचा” कहते थे। चेहरे पर हल्की मुस्कान, हाथ में नोटबुक और कंधे पर पुराना बैग।

कांचा (हांफते हुए): “आ गया, मैडम! बस यह रिपोर्ट लिख रहा था, कल के पत्तों की तोल कम निकली थी।”
सुमित्रा (मुस्कराते हुए): “तुम्हारी यह रिपोर्ट भी तुम्हारी तरह मेहनती है।”
कांचा: “काम मेहनत से हो तो भगवान भी साथ देता है।”

सुमित्रा ने उसकी आँखों में झाँका — वहाँ सच्चाई थी, एक ऐसी सच्चाई जो आज की दुनिया में दुर्लभ थी।
वो जानती थी कि अब उसका दिल किसी और के लिए नहीं धड़कता।

दिन चढ़ते-चढ़ते फैक्ट्री में हलचल बढ़ गई। कामगार अपने-अपने काम में जुटे थे। मशीनों की आवाज़ें और पत्तों की खुशबू ने पूरा माहौल जीवंत बना दिया था।

सुमित्रा और कांचा साथ-साथ चलते हुए फैक्ट्री का निरीक्षण कर रहे थे।
सुमित्रा: “कांचा, तुम जानते हो, तुम्हारी लगन देखकर मुझे यकीन होता है कि यह प्लांट हमेशा आगे बढ़ेगा।”
कांचा (थोड़ी झिझक के साथ): “आपका भरोसा ही मेरी ताकत है, मैडम।”

वो “मैडम” शब्द अब सुमित्रा को अजीब लगने लगा था। उसे अच्छा लगता, अगर वह उसे “सुमि” कहकर पुकारे। पर उसने कभी कहा नहीं।

शाम के समय जब सूरज ढल रहा था, सुमित्रा बंगले के बाहर झूले पर बैठी थी। हवा में ठंडक थी, सामने पहाड़ों पर धुंध उतरने लगी थी। तभी कांचा आया, हाथ में दो कप चाय लिए।

कांचा: “आपकी पसंद की इलायची वाली चाय।”
सुमित्रा (कप लेते हुए): “वाह, तुम तो अब मेरे मन की बात भी पढ़ लेते हो।”
कांचा (हल्के हँसते हुए): “यह तो रोज़ का काम है, मैडम।”

दोनों के बीच एक मीठी चुप्पी छा गई। सिर्फ़ पहाड़ों पर बहती हवा की सरसराहट सुनाई दे रही थी।

सुमित्रा (धीरे से): “कांचा, अगर मैं कहूँ कि मुझे यहाँ अच्छा लगता है, तो क्या तुम समझोगे क्यों?”
कांचा (संभलते हुए): “शायद इसलिए कि यहाँ की हवा शुद्ध है… या फिर लोग सच्चे हैं?”
सुमित्रा (मुस्कराकर): “नहीं… क्योंकि यहाँ तुम हो।”

कांचा का दिल जैसे थम गया। उसने चाय नीचे रखी और चुपचाप आसमान की ओर देखा। उसकी आँखों में चमक थी, लेकिन होंठ खामोश।
कांचा (धीरे से): “मैडम… मैं…”
सुमित्रा (बीच में बोलते हुए): “कह दो, कांचा। दिल में जो भी है, कह दो।”
कांचा (निगलते हुए): “मैं… आपको चाहता हूँ। लेकिन यह चाहत हद से आगे है। शायद मेरे बस की बात नहीं रही।”

सुमित्रा ने उसकी ओर देखा, फिर धीरे से उसका हाथ थाम लिया।
सुमित्रा: “कांचा, जब दिल साफ़ होता है, तो हदें मायने नहीं रखतीं।”

दोनों की आँखों में एक सुकून था, एक वादा — कि चाहे जो भी हो, उनका रिश्ता सच्चा रहेगा।


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अध्याय 2 — नक़ल का खेल

काठमांडू से दूर, दूसरी तरफ़ कंपनी का एक छोटा सा ऑफिस था — जहाँ विक्रांत नाम का वर्कर बैठा हुआ था।
उसकी आँखों में महत्वाकांक्षा नहीं, बल्कि लालच था।
वो वही था जिसने कांचा की मेहनत देखी थी, और उसे देखकर मन में जलन भर गई थी।

विक्रांत (अपने दोस्त से): “कांचा हर जगह इज़्जत पा रहा है… और मैं?”
दोस्त: “तू मेहनत कर, तो सब मिल जाएगा।”
विक्रांत (कड़वाहट से): “मेहनत से नहीं… दिमाग़ से अमीर बनते हैं। मैं भी अमीर बनूँगा, लेकिन अपने तरीक़े से।”

वो कंपनी के अकाउंट्स में गड़बड़ करने लगा। थोड़ा-थोड़ा पैसा इधर-उधर करके जमा किया। फिर एक दिन नेपाल से गायब हो गया।
मुंबई में कुछ महीनों बाद उसकी शक्ल पूरी तरह बदल चुकी थी — प्लास्टिक सर्जरी से उसने अपना चेहरा कांचा जैसा बनवा लिया था।


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मुंबई का बड़ा घर, अंदर सुमित्रा के पिता — राजेन्द्र वर्मा — बैठे थे। सामने खड़ा था “नकली कांचा”, अब “विक्रांत उर्फ़ सूरज” बन चुका था।

राजेन्द्र वर्मा: “तुम वही हो ना, जो नेपाल में मेरी बेटी की मदद करता था?”
विक्रांत (नकली मुस्कान के साथ): “जी सर, मैं ही हूँ। सुमित्रा मैडम से बहुत कुछ सीखा मैंने।”
राजेन्द्र: “अच्छा है… तुम्हारे जैसे ईमानदार लोग कम मिलते हैं।”

विक्रांत के चेहरे पर चालाकी छिपी नहीं थी। वह जानता था, अगर सुमित्रा से शादी हो जाए, तो कंपनी और दौलत दोनों उसके होंगे।


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सुमित्रा के कमरे में वो दाख़िल हुआ।
विक्रांत (धीरे से): “कैसी हो, सुमि?”
सुमित्रा चौंकी — “तुम यहाँ? नेपाल में तो काम…?”
विक्रांत: “आपके पापा ने बुलाया। अब मैं मुंबई की ब्रांच देखूँगा।”

सुमित्रा के चेहरे पर खुशी और हैरानी दोनों थी। उसे लगा, उसका कांचा सच में उसके पास लौट आया है।
लेकिन उसे क्या पता था — ये उसका कांचा नहीं, एक भेस में राक्षस था।


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एक रात, विक्रांत ने अपनी हद पार करने की कोशिश की।
सुमित्रा ने सख़्ती से उसका हाथ झटक दिया।
सुमित्रा (गुस्से में): “अगर सच में प्यार करते हो, तो शादी के बाद सब कह लेना। इससे पहले नहीं।”
विक्रांत मुस्कराया — “ठीक है, तो शादी का इंतज़ार करते हैं।”

राजेन्द्र वर्मा ने सगाई की तारीख़ तय कर दी।

उधर असली कांचा, अपने छोटे से कमरे में बैठा नोट गिन रहा था — मेहनत की कमाई, पसीने की बूंदों में सच्चाई झलक रही थी।
कांचा: “बस थोड़ा और… फिर मैं सुमि से उसका हाथ माँगने जाऊँगा। सब ठीक हो जाएगा।”

उसी रात आकाश में बिजली चमकी, जैसे नियति खुद कह रही हो —
“अभी नहीं… अभी कुछ अधूरा है।”


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अगले दिन सगाई का मंच सजा था, फूलों की खुशबू, कैमरों की रौशनी, और लोगों की भीड़।
विक्रांत और सुमित्रा एक-दूसरे के सामने खड़े थे।
अंगूठियाँ चमक रही थीं… तभी दरवाज़ा ज़ोर से खुला —

“रुको!!”

सबकी नज़रें मुड़ीं।
दरवाज़े पर खड़ा था — असली कांचा।
धूल में सना, लेकिन आँखों में आग।

कांचा: “यह आदमी… मैं नहीं हूँ!”

पूरा हाल सन्न रह गया।
विक्रांत के चेहरे की हँसी जम गई, सुमित्रा के हाथ कांपने लगे।