घर मैं शुक्रवार की सुबह आ पहुंचता हूं।
मेरे गेट खोलते ही तीनों बाहर आ लपकते हैं : बाबूजी,मां और बहन।
तीनों जानते थे आज ही के दिन मेरी इंजीनियरिंग के अंतिम सत्र की अंतिम परीक्षा भी रही।
“पर्चा छोड़ दिया?” बाबूजी के चेहरे पर झल्लाहट आन पसरी है।
“व्यर्थ ही,” बहन सिर हिलाती है, “वह शादी अब नहीं हो रही।”
बहन का संभावित विवाह टल गया था क्या?
“इस शुक्रवार कुंती की शादी हो जाएगी,” बीते शनिवार बाबूजी ने मेरे होस्टल आकर मुझे यह सूचना दी थी, “लड़का फ़ौज में कप्तान है। अपने दो साथी फ़ौजियों के साथ एक स्थानीय होटल में पहुंच जाएगा और शादी के बाद दो दिन कुंती के साथ मंसूरी में बिता कर अपने बटालियन में लौट जाएगा। होली की वजह से उसे तीन दिन की छुट्टी एक साथ मिलने वाली है जिस का वह पूरा लाभ उठाना चाहता है।वरना छुट्टी उसे फिर एक पूरे साल तक नहीं मिलने वाली। इसीलिए कुंती की ज़िद पर इस तरह जल्दी फ़ैसला लेना पड़ा है। तुम्हें पूछेंगे तो बता देंगे तुम्हारे पर्चे हो रहे हैं…..”
“लड़का बिदक गया है,” मां मोटे तल्ले की हैं, “बाप के लोभ और दंभ को पार करने की बजाय भदभदा कर पीछे हट गया।”
“अ केस ऑव बैड फ़ेथ,” बाबूजी अपने दर्शनशास्त्र के भ्रमण पर निकल लेते हैं।
सार्त्र के अस्तित्ववाद वाले इस ‘बैड फ़ेथ’ में आदमी स्वयं को अपने उत्तरदायित्व से बचाने के लिए बाहरी शक्तियों को अपनी नैतिक अंतर्दृष्टि पर हावी हो लेने देते हैं।
घर के अंदर सब से पहले मैं पहुंच लेता हूं।
“चाय बनाऊं?” बहन पूछती है।
“बना लाओ,” बाबूजी मेरे साथ बैठक में बैठ लिए हैं।
“बीच में बाप कहां से टपक लिया?” मैं मां की दिशा में प्रश्न छोड़ता हूं।
“जाने कैसे इस शादी की बात उस के बाप के पास पहुंच गई और वह दनदनाता हुआ यहां पहुंच लिया, ‘लड़का मेरा मेजर बनने जा रहा है और शादी मुझ से चोरी- चोरी कर लेगा। मज़ाक है कोई?’ तेरे बाबूजी ने लड़के का मोबाइल मिलाया और उसे जब इधर आने को कहा तो उस का दो टूक जवाब चला आया, ‘मेरे पिता का निर्णय सर्वोपरि रहेगा। मैं उन से अलग नहीं हूं।’ …..”
“ऐसा कहा लड़के ने?”मैं चौंक जाता हूं।
“और सुनो,” मां ने कहा, “इधर बाप बोला, ‘तोशाखाने की चाबी लोगे और कीमत भी नहीं चुकाओगे?’ हम हक्के- बक्के। फिर बोली जो बोला, ‘पचास लाख कैश,’ तो तेरे बाबूजी बरस लिए, ‘लड़की हमारी भी तोशाखाना है। चौबीस साल ही की उम्र में पंद्रह लाख तो एक साल ही में खड़ा कर लेती है।’ तिस पर उस ने पैंतरा बदल डाला, ‘हमें बहू से नौकरी नहीं चाहिए, सेवाभाव चाहिए, आज्ञाकारिता चाहिए।’ तेरे बाबूजी ताव खा गए, ‘आप के हवाले हमारी मान्यताओं से मेल नहीं खाते।अपनी बेटी को हम ने न ही कोई सेवाभाव सिखाया है न ही कोई आज्ञाकारिता। वह आप के बेटे के बराबर स्वतंत्र दिमाग रखती है।’ इस पर बाप बोला, ‘मगर शादी के बाद उसे हमारे दिमाग से चलना होगा।’ तेरे बाबूजी इस पर अपना धीर खो बैठे और बोले, ‘जाइए। आप जाइए और टहलनी ढूंढिए कोई। आप की नातेदारी हमें नहीं चाहिए’.....”
“हम भाग्यशाली हैं जो समय रहते उन के चेहरे हमारे सामने आ गए,” बाबूजी कहते हैं, “और कुंती पर साज़ चढ़ाने की उस फंदा- शिकारी की घात प्रकट हो गई। जब तक वह लड़का एकाकी रूप में हमारे सामने प्रकट होता रहा, हम नहीं जान पाए वह उस परिवार से जुड़ा है जो रूढ़िवादी है। दमनकारी है।”
संकट बेला में बाबूजी इसी तरह बहकने लगते हैं।
किसी भुलावे के अंतर्गत?
अथवा जानबूझ कर?
व्यर्थ ही…..
अपनी व्याख्या से सांत्वना देने हेतु?
अथवा सांत्वना लेने हेतु?
एक खीझ मेरे अंदर कुलबुलाने लगी है।
बैठक से उठ कर मैं रसोई में चला आता हूं।
बहन के पास।
वह चाय छान रही है।
ट्रे में उस ने चार प्याले रखे हैं।
“तुम्हें अपना पर्चा छोड़ना नहीं चाहिए था,”वह कहती है।
“मेरे पर्चे का इतना ही ख्याल था तो अपनी शादी की तारीख तुम ने आज ही के दिन क्यों रख ली?” मैं खीझता हूं।
“मैं उसे खोना नहीं चाहती थी,” बहन और मैं एक दूसरे के साथ खुल कर बात करते हैं। निस्संकोच। स्पष्ट रूप में।
“फिर क्यों खो रही हो?” मैं नरम पड़ जाता हूं, “पचास लाख ही की तो बात है। तुम अपने बैंक से ही लोन ले सकती हो।”
बहन बैंक में अफ़सर है।
“वह भी यही कहता है। लोन तुम ले लो। मैं चुका दूंगा। लेकिन बाबूजी को यह भी स्वीकार नहीं।”
“बात पचास लाख ही की होती, तो क्या मैं उस रकम का प्रबंध न कर लेता?” बाबूजी रसोई में चले आते हैं– उन पर अपने तर्क का भूत सवार है– “लोन मैं भी ले सकता हूं। अपने प्रोविडेंट फ़ड से…..बैंक से …..”
बाबूजी एक डिग्री कालेज में अंग्रेज़ी पढ़ाते हैं।
“बात कुंती की स्वाधीनता की है।वे लोग कुंती को अपने अधीन रखना चाहते हैं। उस पर शासन करना चाहते हैं।अनातोल फ़ार्स ने एक जगह कहा है— वी मे डिसपेअर ऑव नोइंग, वी मस्ट नोट डिसपेअर ऑव जजिंग, (किसी की सही पहचान बेशक हमें निराश कर दे, किंतु किसी को आंकने पर हमारे हाथ निराशा नहीं लगनी चाहिए)…..”
“क्या अड़ल- बड़ल है?” मैं धैर्य खो रहा हूं। बाबू जी पर मुझे ढेरों गुस्सा उमड़ रहा है। जो पठन- पाठन उन्हों ने एक अध्यापक होने के नाते अपने जीवन- यापन की आवश्यकता के अंतर्गत बटोरा है उसे वह क्यों छनकाते फिरते हैं? यहां बहन का भविष्य दांव पर है और वह हैं जो स्वंंय को प्रौरिरीटी पर रख रहे हैं।
“तुम क्या चाहते हो?” बाबूजी सतर्क हो लिए हैं।अपने संत बोलों के प्रति मेरी उदासीनता से वह भली- भांति परिचित हैं।
“जीजी की स्वाधीनता को यदि आप इतनी महत्ता देते हैं फिर इस मामले में आप उन्हें पूरी छूट क्यों नहीं दे रहे? वह लोन लेना चाहती हैं तो आप उन्हें लोन क्यों नहीं लेने दे रहे?”
“तू लोन लेना चाहती है?” बैठक में बैठी मां उठ कर इधर चली आई हैं, “ताकि दोरंगी वह लड़का तुझे दोमट मिट्टी में लथेड़ दे? तुझे अपने सांचे में ढाल ले? तेरा दर्जा घटा दे? तुझे चबा डाले?”
“और बाबूजी जो दूसरों को चबाया करते हैं,” मैं फट पड़ता हूं, “ही इज़ नो एपौसल ( वह कोई संत नहीं हैं)।”
“तुम ऐसा सोचते हो?” बाबू जी के जबड़े भिंच रहे हैं। गर्दन की नसें तन रही हैं और उन के माथे पर वे तीनों शिरांए उभर आई हैं जो उन के उत्तेजित होने पर प्रकट हो जाया करती हैं।
हठात वह रसोई से निकल कर लौबी में रखी खाने की कुर्सियों में से एक पर आ बैठे हैं।
“नहीं बाबूजी,” बहन उन की ओर लपक लेती है, “आलोक ऐसा बिल्कुल नहीं सोचता।आप जानते हैं वह कितनी जल्दी व्यग्र हो जाता है। घबरा जाता है। और घबराहट में गलत- सलत बोलने लगता है…..”
घबराहट शब्द हमारे परिवार में अनेक अभिधान जतलाता है : रोष, कोप, सम्भ्रम, उलझन, किंकर्तव्यविमूढ़ता, नैतिक आपत्ति और यहां तक कि हितैषिता और हताशा भी…..
“घबराहट हमें क्या कम है?” मां चिल्लाती हैं, “यह तेरे बाबू जी ही का दम है जो हमें संभाले हुए हैं…..”
“कहां संभाला मैं ने? क्या संभाला मैं ने?” बाबूजी रो रहे हैं। सिसकियां भर रहे हैं।
बाबूजी को इस प्रकार बिलखते हुए मैं पहली बार देख रहा हूं।
मैं घबरा उठता हूं। मेरा क्रोध मंद पड़ गया है।पूर्णतया।
“मैं सोचता हूं अपना पर्चा मुझे आज ही दे देना चाहिए,” बाबूजी को उन की रुलाई से बाहर लाने का यही एक तरीका मुझे समझ में आ रहा है, “मेरा पर्चा दोपहर दो बजे शुरू होगा। अगर अभी निकल लूं तो समय पर पहुंच सकता हूं।”
“तुम मेरा स्कूटर ले जाओ,” बहन ने मेरी चतुराई भांप ली है और वह मेरी युक्ति में आन शामिल हुई है।
“नहीं,”बाबूजी अपनी कुर्सी से उठ खड़े हुए हैं, “आलोक मेरा स्कूटर ले कर जाएगा…..”
पहले भी कई बार बाबूजी के स्कूटर से मैं यहां से कानपुर, अपने इंस्टीट्यूट, जा चुका हूं।
किंतु तब आग्रह मेरा रहा करता था।
इस बार आग्रह उन का है।