सरला अब ठीक हो चुकी थीं, लेकिन बीमारी ने उनके शरीर को पहले जैसा नहीं रहने दिया था। कभी तेज़ी से काम करने वाले उनके हाथ अब कांपते थे, चलने में दिक्कत होती थी, और याददाश्त भी कई बार उनका साथ छोड़ देती थी। वो वही सरला थीं, जो कभी पूरे घर को अपने दम पर संभालती थीं, और अब किसी के सहारे की ज़रूरत पड़ने लगी थी।
पर अब उनके सहारे थी — पायल।
वही पायल, जो कभी उनका दिया दूध गिरा देती थी, अब उनके लिए सुबह-सुबह गर्म पानी तैयार करती थी। वही पायल, जो कभी चुपचाप खाना खा लेती थी, अब हर निवाला मां को पहले खिलाती थी। वक्त ने जैसे दोनों के रिश्ते को नए सिरे से गढ़ दिया था।
कॉलेज खत्म होते ही पायल ने अपने ही शहर में एक छोटी-सी नौकरी पकड़ ली। तनख्वाह ज्यादा नहीं थी, पर उसके लिए अब पैसे कमाना मकसद नहीं था — उसका मकसद था अपनी मां की देखभाल।
उसे मां के लिए दवाइयां लानी होती थीं, डॉक्टर की अपॉइंटमेंट्स याद रखनी होती थीं, और सबसे बड़ी बात — उनके अकेलेपन को बांटना होता था।
हर शाम वो घर लौटते ही मां के पास बैठ जाती। सरला उसकी बातें सुनतीं, मुस्करातीं, और कभी-कभी कहतीं —
“तेरी आवाज़ सुनकर दिन पूरा हो जाता है, पायल।”
एक दिन, सरला ने धीमे और कांपते हुए स्वर में कहा —
“पायल, तू अपनी ज़िंदगी जी ले बेटा। तू शादी कर ले, मुझे बोझ मत बना।”
पायल की आंखों में नमी तैर आई। उसने मां का कांपता हुआ हाथ अपने हाथों में लेकर कहा —
“मां, आप मेरी ज़िंदगी का हिस्सा नहीं… आप ही मेरी ज़िंदगी हो। आपने मेरे बचपन की परवाह की, अब मेरा फर्ज़ है कि मैं आपका बुढ़ापा संभालूं। आपको बोझ नहीं, आशीर्वाद समझती हूं मैं।”
उस दिन सरला की आंखों में जो सुकून था, वो पायल ने पहले कभी नहीं देखा था।
दिन गुजरते गए। पायल ने अपने सारे पैसे जोड़कर मां के लिए कुछ खास करने की ठानी।
सरला का जन्मदिन आने वाला था। उन्हें जन्मदिन मनाने की आदत नहीं थी, और पायल को भी याद नहीं था कि उन्होंने कभी अपना दिन सेलिब्रेट किया हो।
उसने चुपचाप तैयारी शुरू की। छोटे-से घर को फूलों से सजाया, दीवारों पर रंगीन रिबन लगाए, और एक बड़ा-सा कार्ड बनाया —
“मेरी मां को जन्मदिन मुबारक — मेरी परवाह की देवी को।”
सुबह-सुबह जब सरला उठीं, तो कमरे में हल्की गुलाब की खुशबू थी। पायल रसोई में थी — मां के लिए सूजी का हलवा बना रही थी, वही जो बचपन में सरला को बहुत पसंद था।
सरला ने जैसे ही दीवार पर कार्ड देखा, उनकी आंखों में आंसू आ गए।
“ये सब तूने किया?” उन्होंने भावुक होकर पूछा।
पायल मुस्कराई, मां को हलवा खिलाते हुए बोली —
“आपने मेरे हर आँसू छुपा लिए थे, मां… अब मेरी बारी है आपकी मुस्कान संभालने की।”
उस दिन पहली बार सरला ने महसूस किया कि उन्होंने किसी का जन्म नहीं दिया, बल्कि किसी ने उन्हें मां बनने का असली अर्थ सिखाया है।
पर दुनिया के लोगों की बातें कहाँ रुकती हैं?
रिश्तेदारों को पायल की यह लगन पसंद नहीं आई। कोई कहता —
“सौतेली मां के लिए इतना कर रही है?”
तो कोई बोलता —
“इतनी पढ़ी-लिखी है, अच्छी शादी कर सकती है। किस चक्कर में फंसी है?”
पहले पायल चुप रह जाती थी, पर अब वो हर सवाल का जवाब देने लगी थी।
“जो रिश्ता बिना खून के होते हुए भी मुझे मां का प्यार दे गया, वो रिश्ता सौतेला नहीं, सौ गुना अपना है। आप क्या जानें, परवाह क्या होती है?”
धीरे-धीरे वक्त का पहिया घूमता गया। सरला का स्वास्थ्य बिगड़ता गया।
एक दिन, बिना कुछ कहे, उन्होंने अपनी आंखें हमेशा के लिए मूंद लीं।
पायल उनकी गोद में सिर रखे बैठी रही — जैसे एक बच्ची, जो अपनी मां के जाने को अब भी स्वीकार नहीं कर पा रही थी।
जब लोग सरला को उठाने आए, पायल ने उनके कान के पास झुककर फुसफुसाया —
“मां, आप सिर्फ मुझे जन्म नहीं दे पाईं… पर आपने मुझे इंसान बनाया। मुझे परवाह करना सिखाया।”
उस दिन घर की दीवारें चुप थीं, लेकिन उनमें मां की यादों की खुशबू अब भी बसी थी।
पायल हर रात मां के फोटो के सामने दीप जलाती और मुस्कराकर कहती —
“मां कहीं नहीं गईं… वो हर उस चीज़ में हैं जो मुझे उनकी परवाह की याद दिलाती है।”
कई साल बीत गए, पायल ने मां के नाम से एक छोटा-सा “परवाह केंद्र” खोला — जहाँ वो उन बुजुर्गों की देखभाल करती थी, जिन्हें उनके अपने भूल गए थे।
हर बार जब वो किसी बूढ़े हाथ को पकड़ती, उसे ऐसा लगता जैसे मां का स्पर्श फिर से लौट आया हो।