Nakab in Hindi Anything by Rohan Beniwal books and stories PDF | नकाब

Featured Books
Categories
Share

नकाब

भारत—एक ऐसा विरोधाभासी भूगोल, जहाँ ज्ञान की गंगा भी बहती है और संकीर्णता का दलदल भी पसरा है। यह उन ‘बातों के महापुरुषों’ का देश है, जहाँ हर चौथा व्यक्ति सड़क किनारे खड़ा होकर ऐसा प्रवचन दे सकता है कि उसकी बातों से धर्म का सच्चा अर्थ निकल आए, सरकारें हिल जाएँ और समाज एकाएक सुधर जाए। हर गली-नुक्कड़ पर आपको एक चलता-फिरता नैतिकता का विश्वविद्यालय मिल जाएगा, जहाँ बिना किसी डिग्री के, हर व्यक्ति सच्चाई, ईमानदारी और प्रगतिशीलता पर पीएचडी किए बैठा है। पर यह सब केवल शब्दों के स्तर पर होता है।
ज्योंही बात व्यवहार की आती है, हमारा सारा दर्शन, सारा ज्ञान, और सारा संविधान एक तरफ रख दिया जाता है। हम संविधान की प्रस्तावना में लिखे 'समानता' और 'बंधुत्व' की बात करते हैं, पर विवाह अपनी जाति से बाहर करना देशद्रोह जैसा अपराध माना जाता है। इस समाज में प्रेम का पैमाना जाति की चारदीवारी से बँधा है, और कोई प्रेम कहानी उस चारदीवारी को पार करने की जुर्रत करे तो उसका अंजाम अक्सर अख़बारों की वीभत्स खबर बनकर सामने आता है।
हम शिक्षा की वकालत करते हैं, क्योंकि डिग्री से समाज में रुतबा मिलता है, और यही रुतबा दहेज की दर तय करता है, पर बेटी को "ज्यादा पढ़ लेगी तो हाथ से निकल जाएगी" कहकर उसका भविष्य तय करने का हक खुद के हाथों में रखते हैं। हम ज्ञान को पूजते हैं, पर उस ज्ञान को केवल अपने सुविधाजनक दायरे तक ही सीमित रखते हैं। यह वह देश है जहाँ हम अपने फेसबुक और ट्विटर प्रोफाइल पर 'सेक्युलर' और 'प्रगतिशील' लिखते हैं, पर मंदिर में सफाई करते वक्त तुरंत पूछ बैठते हैं कि 'यह काम करने वाला कौन है?'—क्योंकि कहीं मंदिर अपवित्र ना हो जाए!
यह नकाब है, जो हम रोज़ पहनते हैं, ताकि हमें खुद से आँखें न मिलानी पड़ें। यह नकाब इतना मोटा है कि इसने हमारे अंतर्मन की आवाज़ को भी दबा दिया है।
आज का आदमी अपनी सोच को अपने कर्मों में नहीं, बल्कि अपने स्मार्टफ़ोन की स्क्रीन पर दिखाता है। सोशल मीडिया एक ऐसा विशाल 'विचारों का बाज़ार' है, जहाँ हर कोई अपने 'ईमान' की सबसे ऊँची बोली लगाता है। यहाँ हर कोई — ऑनलाइन सुधारक है। वह देर रात तक जागकर जातिवाद के ख़िलाफ़ एक लम्बा-चौड़ा ट्वीट लिखेगा, ज्ञानियों की तरह टैगलाइन डालेगा, पर अगले ही दिन अपने रिश्तेदार को फ़ोन करके कहेगा — "देखना, शादी में ऊँच-नीच न हो जाए। हमारी बिरादरी में ही रिश्ता ढूँढो।" यह है हमारी डिजिटल पाखंड लीला! वह भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ ज़ोरदार पोस्ट करेगा, 'सिस्टम को बदलने' की कसमें खाएगा, पर जैसे ही उसका काम सरकारी दफ़्तर में फँसता है, उसकी पहली प्रतिक्रिया होती है — "यार, कोई 'सेटिंग' वाला बंदा है क्या? थोड़ा 'ऊपर' तक बात करवा दो, काम जल्दी हो जाएगा।" हम एक ऐसी दुनिया में जी रहे हैं जहाँ हम अपनी 'अच्छाई' का प्रदर्शन करते हैं, पर उसे जीते नहीं।  
मैं एक 'आधुनिक' और 'सेक्युलर' व्यक्ति से मिला था, जो सचमुच ज्ञान का पुतला था। उसने मुझसे कहा था, “आदमी को उसके कर्म से पहचानों, धर्म से नहीं। जातिवाद समाज के विकास की नहीं, विनाश की नींव है।” उसकी बातों में भविष्य का भारत झलकता था। मैं प्रभावित हुआ। लेकिन एक दिन, मैं उसी व्यक्ति के घर गया और इत्तेफाक से वहां पेंटिंग का काम चल रहा था। मैंने उसे अपने पेंटरों से कहते सुना: “अरे भाई! मंदिर का हिस्सा तुम लोग मत पेंट करना। वह काम मेरा बेटा या घर का कोई और करेगा। उत्सुकता वश मैं उनसे पूछ बैठा कि ऐसा क्यों। तो उनका जवाब था की मंदिर का मामला है, सामने वाले का धर्म भी तो देखना पड़ता है। यह सुनकर मुझे लगा, जैसे मेरे भीतर कुछ टूट गया। मेरा आदर्शवाद वहीं मर गया, एक झटके में! मुझे यह कड़वी सच्चाई समझ आई — इस देश में आदमी की सोच उसके शब्दों में नहीं, बल्कि उसके उन कर्मों में छिपी होती है जो हमें वहां देखने को मिलते हैं जहाँ कोई कैमरा नहीं होता, जहाँ कोई 'लाइक' करने वाला नहीं होता। और वहाँ जाकर, वह व्यक्ति हमेशा बहुत छोटा निकलता है।
हम 21वीं सदी में होने का दावा करते हैं, जहाँ हम चाँद पर मिशन भेज सकते हैं, विज्ञान और तकनीक की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। पर हम उसी बेटी को उसके प्रेमी से शादी नहीं करने दे सकते, अगर वह 'दूसरे' धर्म का है। विज्ञान हमें जोड़ता है, पर हमारा सामाजिक ढाँचा हमें तोड़ता है। गाँवों में आज भी 'कुएँ' और 'पानी के अन्य स्रोत' जातिगत आधार पर बँटे हैं। शहरों में, धर्म अब श्रद्धा का विषय कम और राजनीतिक पहचान का अस्त्र ज़्यादा बन गया है। "जय श्री राम" या "अल्लाहु अकबर" अब केवल धार्मिक नारे नहीं हैं; वे एक-दूसरे को पहचानने और विभाजित करने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले पहचान पत्र बन गए हैं, जो तुरंत तय करते हैं कि आप 'अपने' हैं या 'पराए'। और भाषा? वह संवाद का साधन कम और श्रेष्ठता साबित करने का हथियार ज़्यादा बन गई है। अगर आप अपनी बोली बोलते हैं, तो आपको 'गंवार' कहा जाएगा, और अगर आप धाराप्रवाह अंग्रेज़ी बोलते हैं, तो आपको जेंटलमैन कहा जाएगा। हम हर हाल में श्रेष्ठता साबित करना चाहते हैं, संवाद स्थापित करना नहीं।
हमारा देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, पर यहाँ 'लोक' (जनता) की याद सिर्फ़ चुनाव के दिनों में आती है। बाकी समय 'तंत्र' (सत्ता) ही शासन करता है। हमें समानता प्रिय है, पर केवल तब तक, जब तक हमारे विशेषाधिकारों पर कोई आँच न आए। हम कहते हैं — "सबको समान अवसर मिलना चाहिए," पर मन ही मन सोचते हैं — "बस, सबसे पहले अवसर हमारे जैसे, 'योग्य' (यानी सम्पन्न, उच्च जाति, उच्च पद वाले) लोगों को मिलना चाहिए।" हम लोकतंत्र को पूजते हैं, पर केवल तब तक, जब तक यह हमारी व्यक्तिगत सत्ता और सुविधा को बनाए रखता है। हम लोकतंत्र के पुजारी कम और सुविधाभोगी ज़्यादा हैं।
आज का आदमी डिजिटल भक्ति के दौर में जी रहा है। यहाँ धर्म की रक्षा 'रीट्वीट' से होती है और समाज सुधार के युद्ध 'कॉमेंट सेक्शन' में लड़े जाते हैं। यदि कोई सुधारवादी व्यक्ति जातिवाद खत्म करने की बात करता है, तो नीचे तुरंत हज़ारों कमेंट्स आते हैं जो उसे समाज सुधारक साबित कर चुके होते हैं परंतु वही आदमी यदि यही बात 10 लोगों के सामने भी बोल दे तो वह देशद्रोही बन जाता है। आज के आदमी की सोच अब उसके हृदय से नहीं, बल्कि सोशल मीडिया एल्गोरिद्म से संचालित होती है।
हमारी शिक्षा प्रणाली हमें डिग्री देती है, पर एक संतुलित और तार्किक सोच नहीं देती। स्कूलों में हमें पढ़ाया जाता है कि जातिवाद गलत है, पर घर में माँ-बाप कहते हैं — "बेटा/बेटी, शादी के लिए अपनी बिरादरी में ही देखना।" हमारी शिक्षा नैतिकता का पाठ पढ़ाती है, पर असल जीवन में नैतिकता को "असफल और कमज़ोर लोगों का बहाना" मान लिया गया है। हम पढ़े-लिखे गंवारों की फौज तैयार कर रहे हैं — तकनीकी रूप से सक्षम, पर सामाजिक रूप से विकृत।
हमारी सबसे बड़ी त्रासदी यह नहीं है कि हम पिछड़े हैं, बल्कि यह है कि हम भयानक रूप से दोगले हैं। हमने एक चेहरा समाज को दिखाने के लिए बनाया है — प्रगतिशील, आधुनिक, सेक्युलर। और दूसरा चेहरा अपने भीतर छुपा रखा है — संकीर्ण, मध्यकालीन, पाखंडी। हमारे शब्द 21वीं सदी के हैं, पर हमारा व्यवहार 16वीं सदी का है। हमारा यह तथाकथित 'सभ्य समाज' एक खूबसूरत, महंगा नकाब पहनकर घूम रहा है, और इस नकाब के नीचे छिपी है एक सड़ती हुई सोच।
भारत को 'विश्व गुरु' बनने की बड़ी आकांक्षा है। पर गुरु का पहला गुण होता है — सत्य स्वीकार करना, आत्म-समीक्षा करना। जब तक हम यह स्वीकार नहीं करेंगे कि हम भीतर से खोखले हैं, हमारा विकास असंभव है। यदि तुम सच में धर्म को पूजते हो — तो पहले उस हर इंसान को पूजो, जिसे तुमने 'पराया' बना दिया है। यदि तुम खुद को शिक्षित कहते हो — तो पहले अपनी सोच को पढ़ाओ, और शब्दों और कर्मों के बीच की खाई को खत्म करो। क्योंकि असली धर्म, असली शिक्षा और असली सभ्यता वही है, जो आदमी को महज़ एक धर्म, एक जाति या एक भाषा का अनुयायी नहीं, बल्कि एक ईमानदार "इंसान" बनाती है।

अगर आपको मेरी यह रचना पसंद आई हो, तो कृपया इसे लाइक करें, अपने दोस्तों के साथ साझा करें, और यदि आप चाहें तो मुझे फॉलो भी करें। इससे मुझे एक और कहानी रचने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा।

आप चाहें तो मुझे इंस्टाग्राम पर भी फॉलो कर सकते हैं (Username - rohanbeniwal2477)। यह अकाउंट मैंने हाल ही में उन लोगों से जुड़ने के लिए बनाया है जो मेरी तरह किताबें पढ़ने, फिल्में देखने का शौक रखते हैं या फिर खुद भी कुछ लिखते हैं।