भारत का इतिहास हमेशा से विदेशी व्यापारियों और यात्रियों को आकर्षित करता रहा है। मसालों, रेशमी कपड़ों, नीले रंग, चाय और अनोखी सांस्कृतिक विविधता के कारण भारत दुनिया के मानचित्र पर एक चमकदार देश माना जाता था। इसी आकर्षण ने यूरोप के कई राष्ट्रों को भारत तक पहुँचने की प्रेरणा दी। इन्हीं में से एक था इंग्लैंड, जिसने 1600 में “ईस्ट इंडिया कंपनी” बनाई। शुरुआत में यह कंपनी केवल व्यापार करने आई थी, लेकिन धीरे-धीरे उसने पूरे भारत पर कब्ज़ा कर लिया। एक साधारण व्यापारिक कंपनी ने कैसे एक बड़े देश को अपने नियंत्रण में कर लिया, यह कहानी भारतीय इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण कहानियों में से एक है।
जब ईस्ट इंडिया कंपनी पहली बार भारत पहुँची, तब मुगल साम्राज्य अपनी चरम अवस्था पार कर चुका था। बादशाहत अब वैसी मज़बूत नहीं रही थी जैसी अकबर या शाहजहां के समय थी। औरंगज़ेब के बाद मुगल साम्राज्य तेज़ी से कमजोर हो रहा था। प्रांतों में छोटे-छोटे नवाब और राजा अपनी-अपनी सत्ता चलाने लगे थे। यही राजनीतिक अस्थिरता कंपनी के लिए सबसे बड़ा अवसर बनी। व्यापार के नाम पर कंपनी को भारत के बंदरगाहों में फैक्टरियाँ बनाने की अनुमति मिली। शुरुआत में भारतीय शासकों को लगा कि कंपनी से व्यापार बढ़ेगा और उसके माध्यम से पैसा और नौकरियाँ पैदा होंगी। लेकिन कंपनी का इरादा बहुत बड़ा था, जिसका अंदाज़ा किसी को नहीं था।
कंपनी भारतीय व्यापारियों और शासकों के बीच अपनी पकड़ बढ़ाने में सफल हो गई। उसने व्यापार पर एकाधिकार बनाने के लिए चालें चलनी शुरू कीं। भारतीयों को उनके ही मसाले और कपड़े उनके मनमाफिक दाम पर बेचने को मजबूर किया गया। धीरे-धीरे कंपनी ने अपनी सेना तैयार करनी शुरू कर दी, जिसमें बड़ी संख्या में भारतीय सिपाही शामिल थे। कंपनी का यह कदम आने वाले समय का संकेत था कि अब वह सिर्फ व्यापार नहीं, बल्कि सत्ता को भी अपने हाथ में लेने की तैयारी कर रही है।
भारत के कई राजा एक-दूसरे के खिलाफ लड़ते रहते थे। कंपनी ने इसी स्थिति का फायदा उठाया। जब दो भारतीय राज्य लड़ते थे, तो कंपनी तीसरे पक्ष की तरह उनके बीच खड़ी रहती। दोनों पक्षों को कंपनी की मदद चाहिए होती। कभी किसी को हथियार, कभी किसी को सैनिक, तो कभी किसी को आर्थिक सहारा चाहिए होता। कंपनी इस मदद का उपयोग एक बड़े बदले में करती, कभी जमीन, कभी व्यापारिक अधिकार और कभी राजनीतिक नियंत्रण। धीरे-धीारे भारतीय शासक कंपनी पर निर्भर होते चले गए।
प्लासी की लड़ाई 1757 में हुई, जिसे भारत की गुलामी का असली द्वार माना जाता है। बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला ने कंपनी की बढ़ती शक्ति को रोकने की कोशिश की। लेकिन कंपनी ने षड्यंत्र करके उनके सेनापति मीर जाफर को अपनी तरफ कर लिया। लड़ाई शुरू होने से पहले ही मीर जाफर ने अपनी सेना को पीछे हटाने का फैसला कर लिया, जिसके कारण कंपनी बहुत आसानी से जीत गई। इस लड़ाई के बाद बंगाल कंपनी के नियंत्रण में आ गया और बंगाल की आर्थिक समृद्धि कंपनी के हाथ लग गई।
1764 में बक्सर की लड़ाई हुई, जिसमें कंपनी ने बंगाल-बिहार-ओड़िशा पर पूरी तरह कब्ज़ा कर लिया। अब कंपनी सिर्फ व्यापारी नहीं, बल्कि एक विशाल प्रांत की शासक बन चुकी थी। उसने कर वसूलना शुरू किया, कानून बनाए और प्रशासन अपने हाथों में ले लिया। भारतीय किसानों और व्यापारियों पर भारी टैक्स लगाए गए। लोग अपनी फसल बेचकर भी कर्ज़ में दबते चले गए। भारत की अर्थव्यवस्था जो कभी दुनिया में सबसे मज़बूत मानी जाती थी, धीरे-धीरे गिरने लगी। यह गिरावट अचानक नहीं आई, बल्कि कंपनी की चालों, भ्रष्ट अधिकारियों और जबरदस्ती के करों से समाज की रीढ़ टूटने लगी।
कंपनी का राज बढ़ते-बढ़ते देश के हर हिस्से तक पहुँच गया। जहां भी विरोध हुआ, कंपनी ने अपनी सेना भेजकर उसे दबा दिया। भारतीयों के लिए यह समझना मुश्किल होता गया कि उनके ही देश में, उनके ही हाथों से बनी हुई सेना अब विदेशी कंपनी के कहने पर चल रही है। यह विरोधाभास धीरे-धीरे लोगों में गुस्सा पैदा कर रहा था।
1857 में यह गुस्सा विस्फोट की तरह फूटा। इसे भारत की पहली स्वतंत्रता संग्राम भी कहा जाता है। इस संग्राम की शुरुआत सैनिक विद्रोह से हुई, लेकिन देखते ही देखते यह पूरे उत्तर भारत में फैल गया। सिपाहियों के साथ किसानों, व्यापारियों, साधुओं, नवाबों और आम जनता ने भी कंपनी के खिलाफ आवाज उठाई। कई जगह कंपनी की सत्ता कुछ समय के लिए हिल भी गई। लेकिन संगठन की कमी, संसाधनों की कमी और कुछ राजाओं के निजी स्वार्थ के कारण यह क्रांति सफल नहीं हो सकी। कंपनी ने विद्रोह को क्रूरता से कुचल दिया।
1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश संसद ने समझ लिया कि भारत जैसा विशाल देश कंपनी के हाथों में नहीं छोड़ा जा सकता। इसलिए 1858 में कंपनी को भंग कर दिया गया और भारत का शासन सीधे ब्रिटिश सरकार ने अपने हाथ में ले लिया। इस तरह कंपनी राज का अंत हुआ, लेकिन भारत पर ब्रिटिश राज की शुरुआत हुई, जो लगभग 90 साल और चला।
इन 90 वर्षों में भारतीयों ने कई बड़े आंदोलन किए। महात्मा गांधी, सुभाषचंद्र बोस, भगत सिंह, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल और कई अनगिनत नामों ने स्वतंत्रता की लड़ाई में अपना योगदान दिया। भारत की जनता को यह अहसास हो चुका था कि यदि वे एकजुट होकर खड़े हों, तो कोई भी शक्ति उन्हें लंबे समय तक दबा नहीं सकती। अंततः वर्षों की लड़ाई, आंदोलन, सत्याग्रह, बलिदान और संघर्ष के बाद 15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ।
लेकिन इस स्वतंत्रता तक पहुँचने की जड़ें 1600 में उस समय पड़ चुकी थीं, जब एक साधारण व्यापारिक कंपनी भारत में व्यापार करने आई थी। यह कहानी हमें एक महत्वपूर्ण सीख देती है, कि जब देश अंदर से कमजोर होता है, तब बाहरी ताकतें उसका फायदा उठाती हैं। भारत की राजनीतिक अस्थिरता, राजाओं की आपसी दुश्मनी, लालच और दूरदर्शिता की कमी ने कंपनी को मजबूत बनाया। अगर भारतीय राजा एकजुट होते, तो शायद कंपनी कभी सत्ता तक नहीं पहुँच पाती।
आज जब हम स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं, तो यह ज़रूरी होता है कि हम अपनी उस ऐतिहासिक यात्रा को याद करें, जिसने हमें यह आज़ादी दिलाई। ईस्ट इंडिया कंपनी की चालों से लेकर 1857 के विद्रोह और 1947 की स्वतंत्रता तक की कहानी हमें यह बताती है कि एकजुटता, जागरूकता और आत्मनिर्भरता किसी भी देश की सबसे बड़ी ताकत होती है। भारत की कहानी हमें यह भी सिखाती है कि कभी भी बाहरी शक्तियों को इतना बढ़ने नहीं देना चाहिए कि वे हमारे ही देश में हमारे ही लोगों के बल पर शासन करने लगें। आज का भारत एक सशक्त और आत्मनिर्भर राष्ट्र है, लेकिन उसके पीछे सदियों का संघर्ष और अनगिनत बलिदान छिपे हुए हैं।
इसलिए स्वतंत्रता दिवस केवल एक उत्सव नहीं, बल्कि एक याद दिलाने वाला दिन है, कि आजादी आसानी से नहीं मिली और इसे हमेशा सुरक्षित रखना हमारी जिम्मेदारी है।