The girl who became a mirror in Hindi Women Focused by Pappu Maurya books and stories PDF | वह लड़की… जो आईना बन गई

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वह लड़की… जो आईना बन गई

“वह लड़की, जो सफर में मिली थी”

दिन: पता नहीं किस तारीख का था।
बस इतना याद है कि हवा ठंडी थी, और मेरे अंदर बेचैनी गर्म।
मैं वही था — 25 साल का, लेकिन दिल बिल्कुल अनगढ़…
जैसे कोई पत्थर जिसे अभी तराशा ही नहीं गया हो।

ट्रेन हमेशा मेरी सबसे पसंदीदा जगह रही है।
न कोई पहचानता है, न कोई रोकता है।
सीट मिल जाए तो नींद भी आ जाती है, और खिड़की मिल जाए तो पूरा संसार।

लेकिन उस दिन मुझे नींद नहीं आ रही थी।
शायद इसलिए, क्योंकि मैं किसी ऐसी चीज़ की तलाश में था…
जो मुझे खुद भी नहीं पता थी।

ट्रेन थोड़ी धीमी हुई, और वह अंदर आई—
एक लड़की, साधारण कपड़े, लेकिन असाधारण आँखें।
आँखें जिनमें किसी पुराने गीत की उदासी और किसी दबी हुई हँसी की गूँज थी।

वह मेरे सामने बैठ गई।
शुरुआत में हम दोनों सिर्फ खिड़की के बाहर देखते रहे—
मानो दो अजनबी नहीं, दो पुराने राज़ बैठे हों, जो खुलना नहीं चाह रहे।

कुछ देर बाद मैंने पूछा,
“आप कहाँ जा रही हैं?”

उसने हल्की मुस्कान के साथ कहा,
“अपने घर… ससुराल।”

ससुराल शब्द ने जैसे हवा को एक पल के लिए रोक दिया।

मैंने पूछा,
“आपकी उम्र क्या है?”

वह बोली—
“अभी बस 20।”

मैं चौंक गया था।
बीस साल…
जब मैं 20 का था, मैं बस दोस्तों के साथ घूमता था, अपने सपनों की शक्ल भी पूरी नहीं जानता था।

उसने आगे कहा—
“शादी हो गई है मेरी। घर की जिम्मेदारियाँ… बस निभा रही हूँ।”

मैंने बस उसकी आँखों में देखा।
वह लड़की बीस की होकर भी चालिस की थकान लिए बैठी थी।
उसकी बातों में कोई शिकायत नहीं थी, लेकिन एक न मिटने वाली खामोशी थी—
जैसे जिंदगी ने उससे कुछ छीन लिया हो, बिना पूछे।

मैंने हिम्मत करके कहा,
“मैं 25 का हूँ… और मुझे अभी तक खुद भी नहीं पता कि आगे क्या करना है।
कभी ये शहर, कभी वो सफर… बस घूमता रहता हूँ।”

वह मुस्कुराई— एक धीमी और थकी मुस्कान।
“अच्छा है… कुछ लोग अभी भी अपनी जिंदगी जी सकते हैं।”

और उस पल पहली बार मैंने सीने में एक टीस महसूस की।
मैं अपनी आज़ादी को हमेशा मज़ाक की तरह लेता रहा था,
पर उसके लिए आज़ादी कोई हल्का शब्द नहीं था—
वह एक सपना था, एक चाहत…
जो शायद उसने कभी जी ही नहीं थी।

हमारी बातचीत छोटी-छोटी थी, लेकिन हर बात दिल के किसी कोने में चुभती हुई।

कुछ देर बाद वह खिड़की से बाहर देखने लगी।
धूप उसके चेहरे पर पड़ रही थी—
एक तरफ मासूमियत, दूसरी तरफ वक़्त की मार।

उसने कहा—
“कभी-कभी लगता है मैं बहुत जल्दी बड़ी हो गई हूँ।
लोग कहते हैं औरतें शादी के बाद बदल जाती हैं…
लेकिन सच ये है कि हम बदलते नहीं, हमें बदल दिया जाता है।”

उसके शब्द मेरे भीतर कहीं गहरा उतर गए।

और मैं?
मैं 25 का होकर भी बच्चा था।
मेरे सपने मेरे थे, मेरी राहें मेरी थीं…
मुझे रोकने वाला कोई नहीं।

लेकिन उसे?
उसकी उम्र, उसकी इच्छाएँ, उसके सपने—
सब किसी और की मुट्ठी में थे।

स्टेशन आने वाला था।
वह उठी, अपना बैग संभाला।
जाने से पहले बस एक नज़र डाली मेरी तरफ—
उस नज़र में न मोह था, न उम्मीद—
बस एक सच्चाई: हम दोनों ज़िंदगियों के दो छोर पर खड़े हैं।

जब वह ट्रेन से उतर गई,
मैंने महसूस किया कि मैं अब भी आज़ाद था,
लेकिन उसकी याद ने मुझे एक जिम्मेदारी दे दी थी—

“अपनी जिंदगी बर्बाद मत करना।
कुछ लोग मौका चाहते हैं, तुम्हारे पास मौका है।
उसे बेकार मत जाने देना।”

ट्रेन आगे बढ़ रही थी।
पर मेरा दिल उसी स्टेशन पर कहीं उतर गया था।

आज लिखते-लिखते समझ आया—
कुछ मुलाक़ातें जिंदगी नहीं बदलती,
लेकिन हमें खुद को देखने का तरीका बदल देती हैं।

और वह लड़की…
वह मुलाक़ात नहीं थी—
एक आईना थी।

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