अमेरिकी स्वप्न और भारत के विस्मृत माता-पिता
1980 और 90 के दशक में, जब भारत की आर्थिक स्थित आज की तुलना में बुरी थी . देश अनेक चुनौतियों और धीमी विकास दर से जूझ रहा था . उस समय मध्यमवर्गीय परिवारों के मन में एक नई आकांक्षा जागृत हुई —अमेरिका का सपना , द अमेरिकन ड्रीम . एक सपना जो अवसर न सिर्फ युवा बल्कि उनके माता पिता भी देख रहे थे . किसी तरह संयुक्त राज्य अमेरिका जाना , लाखों युवा भारतीयों और उनके माता-पिता, दोनों के लिए एक आदर्श बन गया था .
परिवार के एक बच्चे का भी अमेरिका में बस जाना सफलता की निशानी बन गयी थी . इसके अतिरिक्त यह परिवार के लिए सफलता की कुंजी बन गयी थी और साथ में उनके लिए अत्यधिक गर्व का स्रोत भी बन गया .
लेकिन भौतिक प्रगति पर आधारित हर सपने की तरह, यह सपना भी एक कीमत लेकर आया था - जिसकी कीमत भारतीय बच्चों और उनके माता-पिता को अब चुपचाप चुकानी पड़ रही है . फिर भी यह सिलसिला अभी तक चल रहा है . यह स्थिति लगभग देश के सभी शहरों में है .
युवा वर्ग अपनी पढ़ाई पूरी कर अमेरिका में प्रवेश करना चाहते हैं . अमेरिका में STEM ( साइंस , टेक्नोलॉजी , इंजीनियरिंग और मैथेमेटिक्स ) क्षेत्र में पढ़े लिखे युवाओं की कमी के चलते भारत के साथ अन्य देशों के युवाओं को वहां नौकरी के लिए पर्याप्त अवसर उपलब्ध है ( हालांकि धीरे धीरे परिस्थिति अब कुछ कठिन हो रही है ) . चूंकि भारत में विश्व में सर्वाधिक पढ़े लिखे STEM युवा मौजूद हैं , प्रति वर्ष लाखों भारतीय युवा अमेरिका जाने लगे हालांकि यह इतना आसान भी नहीं है . सिर्फ कुछ ही युवाओं को सीधे अमेरिका की नौकरी मिल जाती है , खास कर जो IIT आदि उच्च कोटि के संस्थान से पढ़े होते हैं . बाकी अमेरिका में MS ( मास्टर ऑफ़ साइंस ) की पढ़ाई के लिए जाते हैं , इसके लिए अमेरिकी विश्वविद्यालय के द्वारा F 1 वीजा ( स्टूडेंट वीजा ) लेना पड़ता है . कुछ को MS के लिए अमेरिकी यूनिवर्सिटी से स्कालरशिप मिल जाती है जबकि ज्यादतर युवाओं को पढ़ाई के लिए लाखों रूपये खर्च करने पड़ते हैं . संपन्न परिवार के युवाओं के लिए यह कोई समस्या नहीं होगी पर बाकी के माता पिता को क़र्ज़ लेना , या अपनी सम्पत्ति बेचना या गिरवी रखना पड़ता है .
वैश्वीकरण होने से और सूचना तकनीक ( Information Technology ) के विकास के साथ अमेरिका में STEM में पढ़े लिखे युवाओं की कमी हो गयी थी . आमतौर पर भारतीय युवा स्नातक के बाद F 1 वीजा पर अमेरिका आते हैं . दो साल के अंदर ही MS पूरा कर OPT ( ऑप्शनल प्रैक्टिकल ट्रेनिंग ) वीजा ले कर किसी कंपनी में ( आमतौर पर IT कंपनी ) जॉब लेते हैं . आमतौर पर OPT 12 महीने की होती है लेकिन STEM छात्रों के लिए यह 24 महीने और बढ़ाई जा सकती है यानी कुल तीन साल तक . इस दौरान अक्सर उन्हें H 1 B जॉब वीजा मिल जाता है जो शुरू में तीन साल का होता है पर इसे फिर तीन साल आगे बढ़ाया जाता है . इन्हें अपने पति / पत्नी और नाबालिग बच्चों के लिए H 4 वीजा मिल जाता है . इस बीच कुछ को कंपनी ग्रीन कार्ड ( परमानेंट रेजिडेंट ) के लिए स्पॉन्सर कर देती है . ग्रीन कार्ड मिलने के 5 साल के बाद ( हालांकि इसके लिए लम्बी अवधि लगता है ) अमेरिका की नागरिकता ले सकते हैं . अमेरिकन नागरिक बनने के बाद वे अपने बूढ़े माता पिता के लिए ग्रीन कार्ड स्पॉन्सर कर वहीँ बुला सकते हैं और कुछ ऐसा करते भी हैं .पर स्थिति बदल रही है और यह सब पहले जैसा आसान नहीं रह गया है .
ग्रीन कार्ड या नागरिकता मिलने पर ज्यादातर लोग अमेरिका में ही सैटल कर जाते हैं . जो लोग USA में पहले चले गए थे उनकी दूसरी या तीसरी पीढ़ी भी तैयार हो गयी है . भारतीय युवाओं के अमेरिका जाने की बात तक सही है पर इसके लिए उन्हें कीमत चुकानी पड़ती है -
Socio Economic Impact ( सामाजिक आर्थिक प्रभाव )
* . आरंभ में अमेरिका जाना एक अस्थायी आकांक्षा प्रतीत होती थी जैसा कि माता पिता का सपना होता था कि पढ़ाई लिखाई और कुछ वर्षों तक नौकरी कर ढेर सारे पैसे कमा कर बच्चे वापस घर आएंगे , वह सपना टूट जाता है .
* . अमेरिका में पढ़ाई बहुत महंगी होती है . जिन्हें अमेरिका में अच्छी नौकरी मिल जाती है वे भारत में अपने माता पिता को अमेरिकी डॉलर भेज सकते हैं . ऐसे में अगर उन्होंने कर्ज लिया है तो आसानी से उसे चुका सकते हैं . पर सब के साथ ऐसा नहीं हो पाता है और उन्हें अमेरिका में ज्यादा धन अर्जित करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है और यहाँ उनके माता पिता को भी .
* . अमेरिका में नौकरी या इंटर्नशिप की प्रक्रिया भारत जितनी सरल नहीं है . वहां नौकरी और इंटर्नशिप दोनों अनिश्चित हैं . कंपनी के वेब साइट पर जा कर नौकरी या इंटर्नशिप खोजना पड़ता है , फिर लंबे इंटरव्यू का दौर शुरू होता है . अक्सर इसके लिए रिकोमोडेशन ( अनुशंसा ) की आवश्यकता होती है .
* . कुछ H 1 जॉब वीजा लॉटरी द्वारा निर्धारित होते हैं जिसके चलते बहुत योग्य छात्र नौकरी से वंचित रह जाते हैं .
* . वीजा , इमिग्रेशन , लाटरी शुल्क के बढ़ने से और नौकरी की संख्या सीमित होने से छात्रों को संघर्ष करना पड़ता है .
* . माता-पिता ने कभी अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा, कोचिंग और विदेश जाने के साधन उपलब्ध कराने के लिए अथक परिश्रम किया था . अक्सर उन्होंने निजी सुख-सुविधाओं का त्याग किया, अपनी इच्छाओं पर लगाम लगाई और अपने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए बहुत कुछ बलिदान दिया होगा . बच्चों का भविष्य तो उन्होंने सुनिश्चित किया पर विडंबना यह है कि अब वे भारत में पीछे अकेले रह गए हैं . बुढ़ापे में जब अक्सर बच्चों के सहारे की जरूरत ( यह सिर्फ आर्थिक नहीं हो सकती है ) पड़ती है , वे खुद को अकेले और असहाय महसूस करते हैं . दूसरी तरफ अमेरिका में बच्चों को भी परिवार से दूर रहने की मानसिक पीड़ा होती है . अब एक दूसरे से फोन और वीडियो चैट से डिजिटली जुड़े रहते हैं .
* . कुछ आर्थिक रूप से सक्षम बच्चे भारत में अपने बूढ़े माँ बाप को अच्छे सीनियर होम में रख देते है और समझते हैं कि उनकी जिम्मेदारी पूरी हो गयी . कुछ माता पिता को मजबूरन किसी फ्री या सस्ते वृद्धाश्रम में रहने की नौबत आ जाती है और उनकी बाकी जिंदगी दयामय बीतती है . यह किसी सामाजिक त्रासदी से कम नहीं है .
* . उपरोक्त त्रासदी के लिए एक पक्ष ही दोषी नहीं है . जो बच्चे वहां बस गए हैं वहां उनका करियर , घर बार , गाड़ी आदि सभी लोन पर रहता है जिन्हें छोड़ कर वापस आना आसान नहीं है . इसके अतिरिक्त जिनके बच्चे भी वहां के स्कूल कॉलेज में पढ़ रहे हैं , उनके लिए वापस भारत में एडजस्ट करना भी आसान नहीं है .
* . जो वहां रह गए उनके लिए जीवन शैली भारत जितना सरल नहीं है . देश में घरेलू काम के लिए डोमेस्टिक हेल्प , काम वाली , कुक , धोबी , माली आदि आसानी से उपलब्ध हैं पर अमेरिका में लेबर ( श्रमिक ) बहुत महंगा है . अक्सर ज्यादातर काम खुद करना पड़ता है , यहाँ तक कि छोटे मोटे कारपेंटर , प्लंबर , इलेक्ट्रीशियन आदि के काम भी . इसलिए समय प्रबंधन जरूरी है .
* . भारतीय अमेरिकी संस्कृति और सामाजिक शैली का कुछ अनुकरण तो कर सकते हैं पर पूर्णतः सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव लगभग असंभव है . इसलिए वहां के लोगों से घुलमिल कर रहना बहुत कठिन है . आजकल तो अमेरिका में भी नस्लवाद जन्म ले रहा है , जिसका लोगों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की संभावना रहती है .
* . कभी अमेरिका में स्थिति बच्चों को इतना विवश कर देती है कि भारत में शादी , प्रियजन की मौत जैसे अवसर पर चाह कर वे परिवार के सुख दुःख में सम्मिलित नहीं हो पाते हैं और आजीवन इस बात की मानसिक पीड़ा से ग्रस्त रहते हैं .
अंत में हमें इस बात पर विचार करना होगा कि हम विकास और ख़ुशी को किस तरह परिभाषित करते हैं . क्या आर्थिक सफलता और करियर या व्यावसायिक उपलब्धियां ही सर्वोपरि हैं और क्या मानवीय संबंधों , जिम्मेदारी , रिश्तों की गर्मजोशी और प्रियजनों से नियमित मिलने जुलने का तिरस्कार कर इन्हें प्राप्त करना अनिवार्य है . हमारे उज्ज्वल भविष्य के लिए जिन्होंने अपने वर्तमान का त्याग किया है हमें भी उनको अकेले छोड़ना नहीं चाहिए .
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