आनंद टूट गया।
ईश्वर की महिमा अपरम्पार हैं। उनकी कृपा से ही जीवन में सफलता एवं लक्ष्य की प्राप्ति होती है। यह संसार गति, चिन्तन एवं चेतना पर निर्भर है। जब तक गति और चेतना है तब तक जीवन है। गति में विराम ही मृत्यु है। सभ्यता, संस्कृति, संस्कार ही हमारे जीवन का आधार होते हैं और हमारे जीवन को सार्थकता प्रदान करते हैं। जीवन मंे शिक्षा से ज्ञान प्राप्त होता है परंतु सभ्यता और संस्कृति से संस्कार आते है। हमारा वास्तविकता से सामना होने पर क्षण भर में हमारी मनोदशा बदल जाती है। उसमें आकाश पाताल का अन्तर आ जाता है। हमारी कल्पनाओं में वास्तविकता पर आधारित भविष्य की रुपरेखा होनी चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारा स्वभाव मृदु और वाणी में विनम्रता रहना चाहिए। हमें काम, क्रोध, लोभ, माया और मोह को संयमित एवं समन्वित रखकर सुखी जीवन के लिये प्रयासरत रहना चाहिए।
मानव इस सृष्टि में ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति है जिसके कन्धों पर सृजन का भार है । उद्योग व्यापार एवं नौकरी इस सृजनशीलता का एक रूप है और समाज के लिये अति महत्वपूर्ण है। आज देश का युवा अपनी उच्च शिक्षा के बाद, अब आगे क्या? के प्रश्न में उलझ जाता है। उसके परिवार के परिजनों की उससे काफी अपेक्षाएँ रहती है। एक समय था जब इंजीनियरिंग और आयुर्विज्ञान के पेशे को सर्वोत्तम समझा जाता था परंतु आज शिक्षा में अनेक प्रकार के क्षेत्र खुल चुके है। अपनी शिक्षा पूर्ण होने के पश्चात जो तकनीकी शिक्षा के छात्र होते है वे अपने विषय क्षेत्र में आसानी से आजीविका तलाश लेते है।युवाओं के लिए स्वयं का उद्योग, व्यापार या अच्छे संस्थान में उच्च पद पर नौकरी पाना भी विकल्प रहता है। यह हमारी सक्रियता और राष्ट्र की गतिषीलता का दर्पण है जिसमें समय के साथ-साथ परिवर्तन, परिमार्जन एवं परिष्करण होता रहता है।
उद्योग, व्यापार और नौकरी में किसका चयन करें, इस संबंध में निर्णय लेते समय हमें हमेशा अपने परिवार और अपने हितैषियों (जो क्षेत्र से संबंधित जानकारी रखते हैं) से सलाह लेना चाहिये और स्वविवेक से निर्णय लेकर उस पर दृढ़ रहना चाहिये। यदि आपकी रूचि स्वयं के उद्योग या व्यापार में पदार्पण करने की है तो पूर्ण लगन, क्षमता और परिश्रम के साथ इसके प्रति समर्पित रहिए। हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि उद्योग एवं व्यापार के क्षेत्र में गिने-चुने ही राष्ट्रीय स्तर पर अपना स्थान बना पाते हैं। हम चन्द सफल लोगों के जीवन से ही परिचित होते हैं और हम उन बहुत से लोगों को जान भी नहीं पाते है जो असफल होकर अतीत के गर्त में खो जाते हैं। आज तीन प्रकार के उद्योगपति और व्यापारी देखने को मिलते हैं। एक वे जो उद्योग के नाम पर शासकीय कर्ज लेने के बाद रकम डकार कर भाग जाते हैं। वे हमारे देश व समाज के लिए कलंक हैं। दूसरे वे हैं जो उद्योग या व्यापार प्रारम्भ करने के बाद उसे स्थायित्व देने का प्रयास करते हैं, किन्तु अनुभव के अभाव एवं अन्य कारणों से उसे सुचारु रूप से चला नहीं पाते और अपनी पूंजी को भी गंवा कर कर्ज में डूब जाते हैं। तीसरे वे होते हैं जिनका निश्चय दृढ़ और स्पष्ट रहता है। वे ही सफल होकर जीवन में आगे बढ़ते हैं और राष्ट्र के आर्थिक विकास में भागीदार बनते हैं।
आज उद्योग, व्यापार और नौकरियों में प्रतिस्पर्धा बहुत बढ़ गयी है और किसी नये उद्योग या व्यापार को प्रारम्भ करके उसको स्थापित करना उतना आसान नहीं रह गया है जितना आज से 30-40 साल पहले था। आज बहुत हिम्मत, धन की प्रचुर उपलब्धता एवं अत्यधिक सचेत रहने की आवश्यकता है। यदि ये गुण आप में हैं तभी आप उद्योग या व्यापार के क्षेत्र में प्रवेश करने का प्रयास करें। अन्यथा निराशा ही आपके हाथ आयेगी। आज स्थापित होने वाले उद्योगों में अधिकांश उद्योग तो बन्द हो जाते हैं। मुश्किल से कुछ उद्योग ही संघर्ष करके अपने अस्तित्व को बचा पाते हैं और उनमें भी गिने-चुने ही मुनाफा देते हैं। आज युवाओं को स्नातक होने के बाद भी नौकरी प्राप्त करना आसान नहीं रह गया है। उसमें भी कठिन स्पर्धा से गुजरना पड़ता है। हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि हमारा दृष्टिकोण कैसा है। हमें उद्योग व्यापार व नौकरी में से किसे चुनना है जिससे आय में वृद्धि के साथ हमें मानसिक शान्ति एवं संतोष भी प्राप्त हो। हमारा जीवन भी सदाचारी रहे। हमें अच्छाईयों और बुराईयों पर सजग दृष्टि रखते हुए अपने लक्ष्य की प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ने के लिये नूतन शक्ति और नवीन ऊर्जा से प्रयासरत रहना चाहिए।
आज से कई वर्ष पूर्व जब जमींदारी प्रथा समाप्ति की ओर थी एक शहर में रामसिंह और मोहनस्वरूप नामक जमींदारों के दो संभ्रांत परिवार जिनमें आपस में बडी घनिष्ठ मित्रता थी और शहर में बहुत सी जमीनों के मालिक थे अपनी जमीन जायदाद की सुरक्षा हेतु बहुत चिंतित थे। उनकी मित्रता व आपसी संबंध इतने घनिष्ठ थे कि एक दूसरे के लिए जमीन जायदाद से संबंधित न्यायालीन मामलों में भी एक दूसरे की मदद करते थे। इसी संबंध में एक दिन कुछ जरूरी कागजात देकर रामसिंह ने अपने पुत्र राकेश को मोहनस्वरूप के पास भेजा। उसने अपने पिता के निर्देशानुसार कागज और उनकी एक चिट्ठी मोहनस्वरूप के पुत्र राजुल को दे दी। मोहनस्वरूप के आने पर उसके पुत्र राजुल ने इस संबंध में जानने के लिए अपने पिता से पूछा कि यह कौन है जिनसे आपकी पहचान है। उसके प्रत्युत्तर में उन्होंने बताया कि यह यहाँ के खानदानी रईस परिवार से हैं और शहर में बहुत सी जमीनों के मालिक भी है। अपने इनसे बहुत पुराने पारिवारिक संबंध है। तुम्हें इनके साथ मित्रता बढाना चाहिए। अब धीरे धीरे कोर्ट कचहरी में लंबित मामलों के संबंध में राकेश और राजुल की मुलाकात होने लगी। इससे उनकी आपस में मित्रता हो गई । दोनो के विचार, कार्य पद्धति एवं जीवन में आगे प्रगति के लिए किए जाने वाले प्रयासों में समानता थी। जिससे उनकी घनिष्ठता और बढती गई।
एक दिन वार्तालाप के दौरान राकेश ने अपनी ओर से एक सुझाव राजुल को दिया कि तुम्हारी इतनी बडी भूमि जहाँ तुम्हारा कार्यालय है इसे किसी बडी योजना में क्यों नही उपयोग करते ? आप लोग चाहे तो यहाँ पर एक छविगृह का निर्माण कर सकते हैै । आपका यह व्यवसाय न केवल आपको पैसा व सम्मान देगा बल्कि शहर की एक आवश्यकता की भी पूर्ति करेगा। राजुल ने इस सुझाव को गंभीरता से लिया और कहा कि इसके लिए धन की उपलब्धता कैसे होगी ? यह सुनकर राकेश ने कहा कि हम एक भागीदारी फर्म बनाकर एवं उसमें बैंकों से कुछ कर्ज लेकर इस व्यवसाय को शुरू कर सकते है। यह सुनकर राजुल कहता है कि आपका सुझाव अच्छा है मैं अपने परिजनों से इस संबंध में चर्चा करूँगा। दोनो परिवारों में आपस में वार्तालाप होकर एक भागीदारी फर्म बनाने पर सहमति हो गई जिसमें दोनो की भागीदारी आधी आधी रखने का निर्णय लिया गया। इस वार्ता के दौरान गंभीर मंत्रणा में कई उपयोगी एवं भविष्य की आने वाली दिक्कतों के विषय में गंभीर चर्चा हुई । आपसी सहमति के बाद दोनों अपने वकील के पास जाते हैं और उनके वकील उन्हें भागीदारी फर्म और प्राइवेट लिमिटेड कंपनी दोनों में अंतर समझाते हैं जिसमें मुख्य बात यह थी कि भागीदारी फर्म में कम प्रतिशत का हिस्सेदार भी अधिक प्रतिशत के हिस्सेदार के समकक्ष अधिकार रखता हैं जबकि प्राईवेट लिमिटेड कंपनी में अधिक प्रतिशत वाला हिस्सेदार ही मुख्य होता है। दोनो ही स्थितियों में ईमानदारी मुख्य बात है क्योंकि फर्म या कंपनी आपसी विश्वास और ईमानदारी से ही चलती है अन्यथा यह नष्ट हो जाती है। यह आज भी एक उपयोगी दस्तावेज है जिसे हमें कही भी भागीदारी करते समय भूलना व नजर अंदाज नही करना चाहिए। इसका विवरण वकीलों के सुझाव के अनुसार इस प्रकार है:-
01. जहाँ तक संभव हो सके फर्म में सभी की भागीदारी का प्रतिशत बराबर होना चाहिए ताकि संतुुलन बना रहे।
02. हमें यह ध्यान रखना चाहिए की भागीदारी फर्म में कम प्रतिशत के भागीदार को भी ज्यादा प्रतिशत के भागीदार के समकक्ष अधिकार प्राप्त रहते है। जिसे वह कम प्रतिशत की भागीदारिता के उपरांत भी अधिक प्रतिशत के भागीदार को परेशान कर सकता है।
03. प्राईवेट लिमिटेड कंपनी में अधिक प्रतिशत का हिस्सेदार ही मुख्य होता है और वह कम प्रतिशत के हिस्सेदार को परेशान कर सकता है।
04. भागीदारी फर्म की एक समय सीमा का निर्धारण कर लेना चाहिए यदि सभी चाहे तो सर्वसम्मति से इसको बढाया जा सके।
05. किसी भी भागीदार की मृत्यु हो जाने पर फर्म नही खत्म होनी चाहिए अपितु उसके संवैधानिक उत्तराधिकारी को उसके स्थान पर ले लिया जाए। ऐसे प्रावधान में एक प्रमुख दिक्कत हो सकती है कि किसी भागीदार के न रहने पर उसकी जायदाद के सभी वारिसों को भागीदारी में हिस्सा प्राप्त होने के कारण उनकी संख्या में बदलाव हो जायेगा और इससे मतदान के समय पक्षपात की संभावना बन सकती है।
06. संस्था के विभिन्न प्रावधानों में एक प्रावधान आर्बिट्रेटर को मनोनीत करने का भी होना चाहिए ताकि कभी भागीदारों के बीच कोई विवाद उत्पन्न हो तो उसे आर्बिट्रेटर द्वारा सुलझाया जा सके। आर्बिट्रेटर निष्पक्ष एवं सर्वमान्य होना चाहिए।
इस प्रकार उनके वकील ने उन्हें फर्म और प्राईवेट लिमिटेड कंपनी के सारे नियमों और सिद्धांतों को समझा दिया। सबकुछ समझने के बाद दोनों ने भागीदारी फर्म बनाने का निश्चय किया एवं इसे रजिस्टर्ड करवा लिया।
आपसी चर्चा के दौरान कुछ प्रमुख बातें उभर कर आयी कि इस भागीदारी फर्म में मैनेजिंग पार्टनर कौन रहेगा ? इस विषय पर चर्चा के बाद तय हुआ कि दोनो परिवारों से एक एक सदस्य मैनेजिंग पार्टनर रहेगा जिस की अवधि दो साल तक की रहेगी इसके पश्चात दोनो परिवारों से दूसरे मैनेजिंग पार्टनर को अगले दो वर्ष के लिये मनोनीत कर लिया जायेगा। दूसरी प्रमुख बात यह थी कि बैंक से कम से कम लोन लिया जायेगा और ज्यादा से ज्यादा अपनी निजी पूंजी का उपयोग किया जायेगा इस प्रोजेक्ट के निर्माण के नक्शे और इसकी प्लानिंग किसी बडे आर्किटेक्ट से कराई जायेगी जो कि इस क्षेत्र में निपुणता रखता हो। किसी अच्छे चार्टर्ड अकाउंटेंट की सेवाएँ ली जायेंगी। राकेश और राजुल के रूप में दोनो मैनेजिंग पार्टनर का गठन कर लिया जाता है और उनके जिम्मे इसके सब नक्शे, अनुमति लेने से संबंधित सभी प्रक्रियाएँ पूरी करने शासकीय और अर्धशासकीय विभागों में सामंजस्य स्थापित कर अनुमति लेने का जल्द से जल्द प्रयास किया जाये, इसके लिए अधिकृत कर दिया जाता है। एक और महत्वपूर्ण बात सभी के द्वारा स्वीकार की गई कि छविगृह के साथ साथ एक शॉपिंग कॉम्प्लेक्स, ऑफिस एवं गोडाउन का भी निर्माण करना चाहिए ताकि वैकल्पिक आय का साधन भी रह सके। आज से 50 साल पहले निर्माण कार्य आज के समान आसान नही था सभी योजनायें एवं नक्शे वगैरह राजधानी से स्वीकृत या अस्वीकृत होते थे जिसके लिए बार बार राजधानी के चक्कर लगाने पडते थे। इन प्रक्रियाओं को पूरी करके बमुश्किल नक्शों की स्वीकृति प्राप्त की गई परंतु उसमें भी शासन ने परिवर्तन करके सुरक्षात्मक कारणों से गोडाउन की अनुमति देने के लिये अस्वीकार कर दिया। इसके पश्चात भागीदारी फर्म ने छविगृह और ऑफिस कॉम्प्लेक्स के निर्माण हेतु सहमति दे दी। कुछ समय पश्चात एक शुभ मुहूर्त में इस निर्माण का कार्य प्रारंभ किया गया जिसमें अनेक दुविधाएँ झेलनी पडी। छविगृह के आसपास स्कूल एवं कॉलेज, हॉस्पिटल जैसी संस्थाओं ने इसके खिलाफ शासन से निर्माण बंद कराने की अपील की और बडी मुश्किल से सभी लोगों को समझा बुझाकर इस समस्या का समाधान निकाला गया। उस समय छविगृह का बनाना एक बहुत बडी बात होती थी। इस निर्माण कार्य के दौरान बहुत समस्याएँ झेलनी पडी। आज से 50 साल पूर्व का जो समय था वह अत्यंत विपत्तियों से भरा हुआ था। अनेक वस्तुएँ जैसे सीमेंट, लोहा आदि परमिट से प्राप्त होते थे जिसका आवंटन जिला कलेक्ट्रेट के द्वारा किया जाता था। परमिट लेने के बाद स्टाफ को इन वस्तुओं को क्रय करने के लिये सीधे इनकी फैक्ट्री से आवंटन लेना पडता था। स्टाफ को इन सारी वस्तुओं को लोड कराकर साथ में आना पडता था ताकि किसी प्रकार की चोरी ना हो सके। आज के समय और उस समय में जमीन आसमान का अंतर है आज निर्माण संबंधी किसी वस्तु के लिये हमको परमिट नही लेना पडता, सारी वस्तुएँ घर बैठे बगैर किसी कठिनाई के पहुँच जाती है। उस समय परमिट के लिये रिश्वत भी देनी पडती थी परमिट दिलाने के लिये कई दलाल भी लगे हुए थे।
हम लोगों ने प्रसन्नता पूर्वक माहौल में छविगृह एवं ऑफिस कॉम्प्लेक्स का निर्माण प्रारंभ कर दिया। इसके लिए हमने कई छोटे छोटे कांट्रेक्टर को निर्माण का ठेका दे दिया। प्रति सप्ताह इस निर्माण पर नियंत्रण रखते हुए इनका भुगतान किया जाता था और हिसाब किताब को नियंत्रित रखा जाता था। इस प्रकार कडी मेहनत, पक्का इरादा और दूर दृष्टि से यह निर्माण कार्य दो वर्ष की अवधि में पूर्ण कर लिया गया जो कि उस समय अपने आप में एक उपलब्धि थी। उस समय आज के समान सैटेलाइट से प्रसारण नही होता था सभी फिल्में रील के रूप में आती थी और प्रदर्शन के उपरांत दूसरे छविगृह में प्रेषित कर दी जाती थी। हम लोगों का एक संगठन था जिसे सीसीसीए के नाम से जाना जाता था। इसका सबसे उल्लेखनीय पक्ष यह था कि हम लोगों के आपसी विवाद का निपटारा कोर्ट कचहरी में नही होता था। हमारे सभी मामले आपस में आमने सामने बैठकर एसोशिऐशन के माध्यम से निपटाए जाते थे। इसका मुख्य कार्यालय भुसावल में स्थित था यहाँ पर निर्धारित प्रक्रिया के अंतर्गत इसका निपटारा आपस में सलाह मशवरा करके कर दिया जाता था। इस फैसले को दोनो ही पक्ष मानने के लिए बाध्य रहते थे और ना मानने की किसी स्थिति में उनको फिल्म की सप्लाई बंद कर दी जाती थी। यह अपने आप में एक नयी सोच थी।
अब हमारा छविगृह सुचारू रूप से प्रारंभ हो गया था और हमें दर्शकों का इतना अधिक समर्थन मिला कि हमारी पहली प्रदर्शित फिल्म लगातार तीन हफ्ते तक प्रत्येक शो में हाउसफुल रही जो कि उस फिल्म प्रदर्शन का उस समय का एक कीर्तिमान था हम कमाई देखकर आश्चर्यचकित थे। आज के समय में छविगृहों में प्रदर्शन सैटेलाइट के माध्यम से होता है और अब वितरक समाप्त हो गये है। उनके कामकाज ठप्प हो गये है और अमरावती, भुसावल, इंदौर आदि जहाँ इनके प्रमुख कार्यालय थे वे सब अब बंद हो चुके है। हमारी इतनी अच्छी कमाई होने पर हम लोग अच्छी अच्छी फिल्में लेने के लिये लगातार फिल्म वितरकों से संपर्क में रहते थे और प्रतिमाह उनसे बातचीत करने हेतु उनके कार्यालय जाया करते थे। इन फिल्मों की बुकिंग के लिये कभी कभी इसमें अश्लीलता के प्रलोभन का भी उपयोग हेाता था और सिनेमा मालिको ंको हर तरह से फिल्म निर्माताओ और वितरकों के द्वारा संतुष्ट रखने का प्रयास किया जाता था। इसमे अधिंकारंश फिल्म प्रदर्शक अपनी मान मर्यादा को भूलकर इन रंगरलियों में खो जाते थे और फिल्मोें केा अधिक दाम देकर प्रदर्शन हेतु बुकिंग कर लेते थे जिससे उनको कई बार तो लाखों का नुकसान हो जाता था। इसलिये इस उद्योग को ग्लैमर का उद्योग माना जाता था जिसमें सुरा और संुदरी का खुलकर प्रयोग एक आम बात थी।
एक बार फिल्म बुकिंग के दौरान एक वितकर हम लोगों को धोखे से एक बार में ले गया जहाँ महिलाओं के द्वारा अश्लील नृत्य प्रस्तुत किया जा रहा था । वहाँ पहुँच कर हमने देखा कि जिन फिल्म वितरकों के साथ हमारा व्यापार था वे भी वहाँ पर रंगरलियाँ मनाने बैठे हुए थे। हमें देखकर वे चौंक गए और आश्चर्य से पूछने लगे कि आप लोग यहाँ कैसे ? हमने बताया कि ये वितरक महोदय हमें यहाँ पर लेकर आये है। फिर हमने भी सेाचा कि अब यहाँ तक आ गये हैं तो इसको भी देख भी लिया जाए। इस प्रकार का वातावरण हमारे संस्कारों के विरूद्ध था परंतु व्यापारिक कारणों से कुछ देर रूकने के पश्चात हम वहाँ से चले गये।
हम लोगों से इस नये छविगृह के निर्माण में भी अनुभवहीनता के कारण एक बहुत बडी गलती हो गई कि हमने ऑफिस और दुकानों का निर्माण इस प्रकार कर लिया की भूखंड का सामने का हिस्सा छुप गया । इस प्रकार समय धीरे धीरे बीत रहा था कुछ वर्षाें पश्चात राकेश और राजुल के पिताजी की मृत्यु हो जाती है। इसके उपरांत उनके स्थान पर अन्य पारिवारिक सदस्यों को एवं उनके कुछ घनिष्ठ मित्रों को भी भागीदार बनाया जाता है। पिताजी की मृत्यु के उपरांत नये बने भागीदारों एवं उनके मित्रों के कारण धीरे धीरे फर्म के कार्यों में अनुशासनहीनता आने लगी। शुरूआत में राकेश और राजुल ने इन छोटी छोटी बातों को नजरअंदाज किया परंतु धीरे धीरे बहीखातों, प्रतिदिन के खर्चे, काम करने के तरीके, उधारी समय पर वसूल ना करने की प्रवृत्ति एवं अनेक विसंगतियों ने मैनेजमेंट को परेशान कर दिया। सभी भागीदार आपसी रिश्तेदार थे इस कारण मैनेजमेंट कार्यवाही करने में डरने लगा और कमजोर पड गया जिसका फायदा छविग्रह के कर्मचारी भी उठाने लगे। भागीदारी फर्म के नियमानुसार कम प्रतिशत का हिस्सेदार भी ज्यादा प्रतिशत के भागीदारों के समकक्ष होता है इस कारण कोई भी निर्णय बहुमत के आधार पर नही लिया जा सकता था इसी दुविधा में मैनेजमेंट को पंगु बना दिया।
इस फर्म के कुछ भागीदारों ने तो वितरकों के साथ मिलकर बहीखातों में उल्टे सीधे जमा खर्च करके लाखों का गबन करना प्रारंभ कर दिया। इसकी जानकारी होने पर सब भागीदारों के बीच एक भूचाल सा आ गया और प्रतिदिन होने वाली मीटिंग में गाली गलौच और अपशब्दों तक का प्रयोग होने लगा। जिसने भले और अच्छे भागीदारों को हतप्रभ कर दिया इस समय तक भागीदारों की संख्या बहुत बढ गई और दोनों परिवारों से भाई, बहनें, बहनों के बच्चे और मित्र इत्यादि मिलाकर लगभग 15 से अधिक भागीदार हो चुके थे। एक समय यह स्थिति आ गयी कि पढे लिखे लोग भी मीटिंग में कुर्सी पर बैठने के लिये छीना छपटी करने लगे। अब सभी भागीदार, एग्रीमेंट की समय सीमा खत्म होने के इंतजार करने लगे थे ताकि वैधानिक कार्यवाही प्रारंभ हो सके। यह एक अच्छे खासे कमाई के साधन संपन्न व्यापार में हंसी खुशी के माहौल व आनंद प्रिय जीवन की समाप्ति की दिशा में स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाडी मारने का प्रयास था और इस प्रकार आनंद टूटना शुरू हो गया था।
एक दिन एक बहुत ही गजब की बात सामने आई। एक भागीदार किसी काम से मुंबई गया हुआ था उन्हें वहाँ पर पाँच लाख रूपये की आवश्यकता होने पर एक सुप्रसिद्ध सिने तारिका की सेक्रेटरी से उधार ले लिये और संबंधित दस्तावेजों पर छविगृह की संपत्ति में अपने शेयर को गिरवी रखने के कागजात बनवाकर उसमें राकेश के नाम से दस्तखत कर दिये और रूपये रंगरलियों में उडा दिये। इस घटना के 15 दिन के बाद वह तथाकथित सेक्रेटरी अपने रूपये वापस लेने के लिये फर्म के रजिस्टर्ड कार्यालय में पहुँची वहाँ पर उस समय कार्यालय में राकेश उपलब्ध था जिसने अपना परिचय देकर उन्हें आदर पूर्वक बैठाया और पूछा कि मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ ? जब उन लोगों को यह पता हुआ कि उस महिला के पास मौजूद दस्तावेजों में नाम, दस्तखत एवं अन्य विवरण फर्जी थे तो उसके पैरों तले जमीन खिसक गयी। वह बोली कि पुलिस स्टेशन जाकर उस भागीदार के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराउंगी। तब राकेश ने उसे समझाया कि ऐसा करने से आपकी बेवकूफी के कारण आपकी बहुत बदनामी होगी और समाचार पत्रों को छापने के लिये मसाला मिल जायेगा। राकेश ने कहा कि आप थोडा इंतजार करिये मैं उससे बात करता हूँ। आनन फानन में सभी भागीदारों की एक बैठक बुलायी गई और उस भागीदार को भी उसमें आवश्यक रूप से बुलाया गया। सभी के सामने पहले तो वह मुकर गया परंतु सिने तारिका की सेक्रेटरी के द्वारा पहचान लिये जाने पर और कोर्ट केस की धमकी देने पर उसने रूपये लेना स्वीकार कर लिया। सभी भागीदारों के दबाव के कारण उसको रूपये वापिस करने पडे। इस प्रकार की अप्रत्याशित घटना के कारण सभी भागीदारों का आपस में विश्वास हिल गया। यह सभी भागीदरों के बीच के आपस के प्रेम, विश्वास और आनंदपूर्ण माहौल के टूटने का प्रारंभ था।
अब बैठकों में निजी एवं व्यक्तिगत मामलों पर भी दबी जुबान से आक्षेप होने लगे थे। जिसने आग में घी का काम करते हुए भागीदारी के सिद्धांतों पर गहरा आघात पहुँचाया। किसी भी भागीदारी फर्म से संबंधित अनेक औपचारिकताएँ पूरी करनी होती है जिसे समयबद्ध ढंग से करना अनिवार्य रहता है। इस पर भी हीला हवाली होनी प्रारंभ हो गई और इससे संबंधित जवाबदारियाँ जिन भागीदारों पर थी उन्होंने अपना कार्य सुचारू रूप से एवं निर्धारित समय पर संपन्न नही किया जिससे भागीदारी फर्म पर अनेक अनियमितताओं का आरोप लगने के कारण कानूनी दांवपेंच में व्यापार उलझ गया और फिल्मों के प्रदर्शन में कठिनाईयाँ आने लगी। इसी बीच भागीदारी फर्म की निर्धारित समय सीमा समाप्त हो गई और उसका पुनः नवीनीकरण आपस में मत भिन्नता होने के कारण नही हो सका। हमारे चार्टर्ड एकाउंटेंट ने अपना सुझाव दिया कि इस फिल्म प्रदर्शन के व्यापार को मत रोकिए एवं इसे यथावत चलने दीजिए इससे जो आय आती है उसमें से मत भिन्नता वाले भागीदारों का हिस्सा न्यायालय में जमा करा दीजिए। जब इस बात की चर्चा बैठक में की गई तो राजुल एवं अन्य परिजनों ने न्यायालय के चक्कर में ना पडने का सुझाव देते हुए व्यापार को बंद करने का प्रस्ताव दिया जिसे सभी सदस्यों ने सर्वसम्मति से पारित कर दिया। इस प्रकार छविगृह बंद हो गया। जहाँ कल तक खुशियों का माहौल था वह टूटकर सन्नाटे में बदल गया और एक व्यापार जिससे अच्छी कमाई हो रही थी सिर्फ चंद भागीदारों के अहम के चलते बंद हो गया।
अब यह स्थिति अगले कई वर्षों तक ऐसी ही बनी रही इस बीच हर दो तीन माह में भागीदारों के बीच बैठक होती थी जिसमें व्यापार चालू करने से कहीं ज्यादा बातचीत आपसी तूतू मैं मैं, आरोप प्रत्यारोप के बीच समाप्त हो जाती। इस प्रकार बैठकों से कोई हल ना निकलता देख इस मामले में न्यायालय के माध्यम से एक आर्बिट्रेटर नियुक्त कर दिया गया जिसका कार्य सभी भागीदारों के बीच मध्यस्थता स्थापित करके इस मामले को सुलझाना था। आर्बिट्रेटर की नियुक्ति के बाद पुनः सभी भागीदारों में बैठकों का दौर शुरू हो गया और आर्बिट्रेटर से हर बार समय सीमा को बढाने के लिये कोई ना कोई कारण खोज लिया जाता क्योंकि आर्बिट्रेटर को न्यायालय के माध्यम से यह अधिकार था कि कोई हल ना निकलने की स्थिति में इस मामले को आगे की प्रक्रिया के लिये न्यायालय में स्थानांतरित कर दिया जाए । इस सारी कार्यवाही के दौरान लगभग 50 लाख रूपयों की राशि जिसमें आर्बिट्रेटर की फीस, वकीलों की फीस, अन्य न्यायालयीन प्रक्रियाओं के खर्च आदि शामिल थे, खर्च हो गई जिसे सभी भागीदारों को यथायोग्य भागीदारी के अनुपात में देना पडा। लगभग इतनी ही रकम फिल्म वितरकों पास एडवांस के रूप में जमा थी जो कि वापिस ना मिलने के कारण डूब गई। लंबे समय से सबकुछ बंद होने के कारण अनेक शासकीय विभागों के कर जमा नही हुये थे जो कि मय ब्याज बहुत अधिक हो चुके थे जिन्हें फर्म को चुकाना अनिवार्य था।
इस प्रकार खर्चों के अत्याधिक बढने एवं आय के ना होने के कारण अंततः एक दिन सभी भागीदार इस बात पर सहमत हुये कि इस संपत्ति को बेच कर सारे कर्ज चुकाये जाएं और अपना अपना हिस्सा लेकर अलग हो जाए। बहुत लंबे समय पश्चात सभी भागीदारों की एक बात पर सहमति बनी थी और वह थी व्यापार बंद करके संपत्ति को बेच दिया जाए। इस दुखद निर्णय से राकेश और राजुल के मन को बहुत दुख पहुँचा था क्योंकि वे पूरे मन से और बडे आनंद से इस व्यापार को संभाल रहे थे उन्हें ऐसा महसूस हुआ जैसे उनका आनंद समाप्त हो गया था।
कुछ समय पश्चात सारे शहर में संपत्ति के विक्रय को लेकर चर्चा होने लगी परंतु विवादित संपत्ति हेाने के कारण खरीददार इस संपत्ति को खरीदने इच्छुक नही थे। अथक प्रयासों के बाद बडी मुश्किल से एक खरीददार तैयार हुआ और वह भी संपत्ति को आधे से भी कम दाम में खरीदने की बात कर रहा था। सभी भागीदार इस बात पर सहमत हो गये कि जो भी है संपत्ति बिक तो रही है। अधिकांश भागीदार बडे प्रसन्न थे कि बिना कुछ किये एक बडी रकम मिल रही थी उन्हें इस बात से कोई फर्क नही पड रहा था कि इस व्यापार को खडा करने के लिये कितनी मेहनत लगी थी, कितने कष्ट उठाने पडे थे तब कही जाकर यह व्यापार स्थापित हो पाया था। जिन्होंने इसके लिए मेहनत की थी, कष्ट उठाये थे वे मन ही मन अत्यंत दुखी हो रहे थे क्योंकि संपत्ति के साथ साथ उनका वह सपना भी टूट गया था जो उन्होंने देखा था। जिस दिन राकेश और राजुल ने संपत्ति की चाबी खरीददार को सौंपी वे बहुत दुखी थे क्योंकि उनके लिए वह सिर्फ एक संपत्ति या व्यापार नही बल्कि उनका सपना, उनका आनंद था जो कि अब टूट गया था।