कहानी : दीपक शर्मा
इंदिरा की बीमारी का नाम हमें बाद में पता चला था।
एक्यूट लिम्फ़ोसाएटिक ल्यूकीमिया।
लेकिन उस के तीसरे गर्भपात के दिन ही से मां और मैं अपने घर- द्वार के लिए एक नवेली चाहने लगे थे।
बीमारी का नाम उद्घाटित होते ही मां की सलाह पर मैं ने एक नामी अखबार में अपने लिए एक वैवाहिक विज्ञापन भी दे दिया था :
अट्ठाइस-वर्षीय संतान- विहीन विधुर के लिए एक कामकाजी सुंदरी चाहिए। पच्चीस से नीचे। लखनऊ- वासिनी को वरीयता।
इंदिरा की मृत्यु के पश्चात मां को मैं अपने साथ लखनऊ ले जाने का इरादा रखता था। कस्बापुर में मां अब केवल इंदिरा ही के कारण पड़ी थी।पहले उस की टीचरी के कारण और फिर अब उस की बीमारी के कारण। वरना पिछले वर्ष से मैं लखनऊ के एक निजी स्कूल में पढ़ा रहा था । जहां कस्बापुर के अपने और इंदिरा से साझे रहे पुराने स्कूल की तुलना में मुझे डेवढ़ी तनख्वाह मिल रही थी।
हां,यह ज़रूर था कि कस्बापुर में मेरा आना- जाना बराबर लगा रहता। सप्ताह के बीच में एक से ज़्यादा आने वाली छुट्टी पर या फिर सप्ताह के अंत में आने वाली आधी और एक छुट्टी में कस्बापुर जाना मेरे लिए अनिवार्य रहता।
“कैैसी हो?” उस शनिवार भी मैं कस्बापुर गया रहा था। और घर में कदम रखते ही इंदिरा के पास पहुंच लिया था।
अढ़ाई कमरों के उस मकान में जून के उन दिनों इंदिरा को हम ने उस की पसंद का पिछला कमरा दे रखा था। जिस की दोनों खिड़कियां उस के आग्रह पर आठों पहर खुली रहतीं।
“यह देखना,” अपने तकिए के नीचे से उस ने एक पुराना अखबार मेेरी ओर बढ़ाया, “मेरी कमज़ोरी जा नहीं रही। शायद यहां का इलाज मुझे फल जाए…..”
बर्तन चौका करने वाली हमारी महरिन का पति घर- ब- घर अखबार लगाने का काम भी हाथ में लिए था। अपने पढ़ने के लिए इंदिरा उस से पुराने अखबार अक्सर मंगा लिया करती।
अखबार के उस पृष्ठ पर एक कैंसर सोसाइटी कैंसर के उपचार का दावा कर रही थी।
जीवन के प्रति इंदिरा की ढिठाई और ललक मेरे लिए गहरे अचरज का विषय थी। अपनी बीमारी के उस संकटपूर्ण व अंतिम चरण में भी इंदिरा महरिन की सहायता ले कर अपने दांत रोज़ साफ़ करती थी। अपने कपड़े रोज़ बदलती थी। तेज़ी से लुप्त हो रहे अपने बाल रोज़ बनाती थी। अपने लिए अलग से फल और दूध रोज़ मंगवाती थी।
अपनी झक के लिए पिछले दो महीनों से अपनी उस रोग- शय्या पर परिरुद्ध इंदिरा मुुझ से हर महीने के दूसरे शनिवार के शनिवार दो हज़ार रुपए लेती रही थी जिस का हिसाब मैं ने उस से कभी नहीं मांगा था। मां को यकीन था उन दो हज़ार में से पांच सौ रुपया वह महरिन को आंख मूंद कर पकड़ा दिया करती थी।उस की तयशुदा तनख्वाह के इलावा।
“लखनऊ पहुंचते ही मैं इन लोगों को पत्र भेजूंगा,” अखबार समेट कर मैं ने इंदिरा को लौटा दिया।
“मेरे इलाज के लिए मेरा प्रोविडेंट फ़ंड काम आ सकता है,” इंदिरा ने कहा।
इंदिरा की अस्वस्थता का हवाला देकर मैं ने उस की टीचरी से उसे त्यागपत्र दिलवा दिया था। और उस की भविष्य- निधि की समग्र व सामयिक रकम भी निकलवा ली थी : छब्बीस हज़ार तीन सौ तैंतीस रुपए।
“वही अकेेली रकम क्यों?” मैं झेंप गया, “तुम्हारे इलाज के लिए जितनी भी रकम चाहिए होगी, किसी भी तरह मैं उपाय निकाल लूंगा।”
हालांकि तीन महीने पहले मिली उस रकम को अलग से स्थिर रखने की बजाए मैं ने उसे अपने और इंदिरा के साझे खाते में डाल दिया था। और तभी से जहां कहीं भी जो कुछ भी खर्च होता रहा था मैं ने वही खाता हिलाया था।
“मैं जानती हूं,” इंदिरा की आंखों में आंसू उतर आए, “आप मेरे हितैषी हैं….”
“कोई और चिट्ठी आई क्या?” अवसर मिलते ही मां ने मुझे घेर लिया।
मां को भी मेरे समान नवेेली की जल्दी थी।
“आई तो है,” मैं मुस्कराया, “उधर लखनऊ में नौकरी करती है। ग्यारह हज़ार माहवार पाती है। साथ ही उस ने अपनी फ़ोटो भी भेजी है।”
“फ़ोटो दिखाओ,” मां उत्सुक हो आई।
फ़ोटो मेरी जेब ही में थी। झट से मैं ने उसे जेब से निकाला और मां के हाथ में धर दी।
“सुंदर है,” मां हंसी, “सर्वांग सुंदरी….”
“मगर है तलाकशुदा। और फिर शादी की उसे जल्दी भी है। चार साल के अपने बेटे को वह जल्दी से जल्दी एक पिता देना चाहती है….”
“कोई हर्ज नहीं,” मां ने कहा, “बल्कि अपनी दूसरी शादी सफल बनाए रखने के लिए वह कोई कसर नहीं छोड़ेगी….”
इंदिरा के संग मां का अनुभव विशेष सुखद न रहा था। न उस ने कभी मां के चरण ही स्पर्श किए थे। न मां के कहने पर कोई व्रत या उपवास ही रखा था। न ही कभी मां की निजी मूर्तियों की पूजा- अर्चना की थी।
वास्तव में नौकरी में अपने से दो वर्ष ज्येष्ठ और आयु में अपने बराबर की इंदिरा से अपनी शादी के लिए मैं कस्बापुर के हमारे उस साझे स्कूल के नव- नियुक्त प्रधानाध्यापक को श्रेय देता हूं। जिस ने इंदिरा के प्रति जब निरंकुश उच्छृंखलता प्रदर्शित की थी तो इंदिरा का उत्तरकारी संयम व गांभीर्य मुझे भा गया था। तीन वर्ष पूर्व। फिर उस के संग शादी रचाने में मैं ने तनिक समय न गंवाया था। बिना जाने कि उस का स्वास्थ्य उस के साथ ज़्यादा नहीं चलने वाला।
“लेकिन इंदिरा?” मेरी बेआरामी मेरी ज़ुबान पर चली आई, “उस से कैसे छुटकारा पाया जाए?”
“मेरे पास एक तरकीब है,” अपना चेहरा मां ने मेरे कान के साथ ला सटाया, “ किसी ताल- तलैया से तुम मुझे ज़हरीले बलूत के पौधे की डंडी या फिर बिच्छू पौधे की पत्ती छांटकर कर ला दे। और ध्यान रहे उन की डंडी पर हमेेशा तीन ही पत्ती उगा करती है। न ज़्यादा, न कम। हमारे काम को कारगर बनाने में उन का मीठा ज़हर कामदार होगा…..”
“देखता हूं,” एक कंपकंपी मुझे सिर से पांव तक सिहरा गई।
अगली सुबह मेरी नींद देर से टूटी। ग्यारह बजे।
कस्बापुर आकर मैं देर तक सोया करता। अविरत। जब से इंदिरा की बीमारी हम पर प्रकट हुई थी, मैं अलग कमरे में सोने लगा था।
जगते ही मैं सीधे मां के पास गया। रसोई में वह मेरी पसंद का हलवा बना रही थीं।
“उसे कुछ दिया क्या?” पिछली शाम तीन पत्ती वाली दो डंडियां लाने में मैं सफल रहा था। विषधानी।
“तुम्हारे जाने के बाद शुरू करुंगी। अभी नहीं। किसी को शक क्यों हो?”
इंदिरा के पास मैं प्रकृतिस्थ होने के उपरांत ही गया।
“कल रात मैं ने एक अजीब सपना देखा,” इंदिरा की बीमारी के साथ उस के सपनों की विचित्रता में भी वृद्धि हुई थी। उस के सपनों में सब से ज़्यादा संख्या रेल यात्राओं की रहती जिन में चुटपुट रेेलयात्री उसे रेल पाखानों में जाने से रोकते और वह मलत्याग अथवा वमन खुलेआम करने पर मजबूर रहती।
“तुम और तुम्हारे ऊल- जलूल सपने,” मैं हंसने लगा।
“सपना बहुत लंबा और सजीव था,” अपनी बातूनी आवाज़ में इंदिरा शुरू हो ली, “सुभाष से तलाक ले चुकी मेरी वह भाभी हमारे पुराने बिस्तर पर लेटी है और उस का बेटा तुम्हें पापा कह रहा है…..”
“तुम्हारा भतीजा?” मैं चौंका।
तस्वीर वाली वह लड़की कहीं इंदिरा की वही भाभी तो नहीं?
अपने परिवारजन के बारे में इंदिरा मेरे संग बहुत कम बात करती रही थी और वह भी कभी- कभार। मौका आने पर। ज़्यादा से ज़्यादा यदि किसी के बारे में कुछ बताती भी रही तो अपनी मृतक मां के बारे में जिस की मृत्यु इंदिरा वाले ब्लड कैंसर से हुई थी। लगभग दस वर्ष पूर्व। जब इंदिरा बीस वर्ष की थी और अपनी बी.ए. की तैयारी कर रही थी। अन्य परिवार जन के बारे भी मैं बस यही जानता था, गठिया- ग्रस्त उस के पिता एक सरकारी स्कूल अध्यापक रहे थे और अपनी सेवा- निवृत्ति के बाद अब अपने बड़े भाई व उस के परिवार के साथ बस्तीपुर में अपने पैतृक निवास पर रहते थे। बस्तीपुर से बाहर कानपुर- वासी उस का बड़ा भाई, अशोक, कपड़ों की दुकान करता था और छोटा, सुभाष, इलाहाबाद के एक रेस्टोरेंट में सुपरवाइज़र था। इंदिरा की वह छोटी भाभी मेरी लिए नितांत अजनबी थी। भाइयों के पास इंदिरा का आना- जाना न के बराबर रहा था।
“हां, मेरा वह भतीजा मेरी उस भाभी ने सुभाष को लौटाया ही नहीं। तलाक के लिए उस ने यही एक शर्त रखी थी सुभाष को उस बेटे पर अपने वैध अधिकार त्यागने होंगे। और सुभाष मान गया था…..”
“मगर तलाक ज़रूरी था क्या?”
“हां। सुभाष का मन उस से रमा नहीं। वह बहुत चंचल थी और सुभाष गंभीर स्वभाव का है…..”
मुुझे ध्यान आया गंभीर तो मैं भी हूं। चंचल स्त्रियां मुझे भी खासी नापसंद हैं। विशेषकर पत्नी के रूप में।
“उस की उम्र अब कितनी होनी चाहिए?”
“किस की?”
“तुम्हारे भतीजे की?”
“यही कोई चार साल। दुध- मुंहा बच्चा था बेचारा जब उस घर- फोड़ ने सुभाष से अपना मुंह मोड़ लिया था। प्रसूति के बहाने मायके गई और फिर बस लौटी ही नहीं….”
“वह खुद देखने में कैसी थी?” मैं थर्रा उठा।कहीं वह बारीक माथे, नुकीली ठुड्डी और ऊंंचे गाल लिए मेरी जेब की तस्वीर वाली निकल आई तो?
“मुझे उस का चेहरा तो ठीक से याद नहीं लेकिन उस का ध्यान आते ही दंतार जैसे उस के दांत मेरे सामने आ खड़े होते हैं। अपने दांतों तले अपने होंठ दबाने की उसे बुरी आदत थी….”
तस्वीर वाली लड़की के दांत उस तस्वीर में न थे।
हड़बड़ा कर मैं ने अपनी जेब से वह तस्वीर निकाली और इंदिरा के सम्मुख प्रकट कर दी, “देखो। इसे देखो। क्या वह यही तो नहीं?”
“यह चेहरा लंबूतरा है,” इंदिरा ने अपनी आंखें तस्वीर में गड़ा दीं, “नहीं,उस का चेहरा कुछ अलग रहा। मगर यह कौन है ? यह तस्वीर आप के पास कैसे आई?कहां से आई?”
“मेरे एक मित्र ने मुझे दी है,” मेरी थरथराहट तेज़ हो ली। उलझाई हुई इंदिरा किस उलझन से कमतर रही? बाल की खाल उतारना कोई उस से सीखता!
“आप के मित्र ने?”
“हां…..”
“मगर क्यों?”
उपयुक्त उत्तर मैं अभी खोज ही रहा था कि इंदिरा अधीर हो उठी।
“आप क्या शादी करेंगे? दोबारा?” पिछली शाम हुई हम मां- बेटे की बातचीत उस के कान पकड़ चुके थे क्या?
“तुम्हारे जीते जी?” अकस्मात ही मैं फिसल गया।
इंदिरा रोने लगी। बेतहाशा।
“मां,” मैं चिल्लाया, “देखो। इधर आओ…..”
मां के सामने इंदिरा सदैव संयत रहा करती।कभी आंसू न गिराती।
“क्या हुआ?” मां तत्काल चली आई।
“मैं बस्तीपुर जाऊंगी,” इंदिरा के आंसू थम गए, “मेरे लिए टैक्सी कर दीजिए…. बिल्कुल अभी….”
“तुम कहीं नहीं जाओगी,” मैं ने उस के कंधे पर अपना हाथ जा टिकाया।
“बांट में आप मेरा प्रोविडेंट फंड रख लीजिए…..समूचे का समूचा…..मगर मैं इधर न मरूंगी…..बेगानों, बेरहमों के बीच…..”
“अगर इस की यही मर्ज़ी है तो यही सही,” मां ने मेरी बांह पर चिकोटी काटी, “बस्स। अब इस से बहसा- बहसी तो हम करेंगे नहीं…..”
टैक्सी पर कस्बापुर से बस्तीपुर की दूरी साढ़े पांच घंटे की थी।
“पिछली सीट मुझे चाहिए,” टैक्सी देखते ही इंदिरा ने घोषणा की, “मुझे वहां लेटना है…..”
“जो तुम चाहो,” मैं अगली सीट पर बैठ लिया।
सभी घंटे घनघोर चुप्पी के संग बीते।
बस्तीपुर हम उसी शाम के छः बजे पहुंच गए ।
टैक्सी का भाड़ा चुकाते ही मैं ने अपनी वापसी यात्रा घोषित कर दी, “ कस्बापुर रेलगाड़ी से लौटना मेरे लिए सही बैठेगा…..”
स्तब्ध मुद्रा लिए इंदिरा के पिता व ताऊ व उन के परिवार ही में से किसी एक ने भी न हमें कुछ पूछा,न ही कुछ कहा।
इंदिरा ने ज़रूर मेरी दिशा में अपना सिर हल्के से हिलाया।
सूखी आंखों के साथ।
इंदिरा की मृत्यु आगामी माह के दूसरे शनिवार के दिन हुई।
अपनी दूसरी शादी मैं ने उस की मृत्यु के डेढ़ माह उपरांत की।
तस्वीर वाली उस तलाकशुदा लड़की से नहीं।
फीकी, सीठी एक वंशवती कुमारी साध्वी से। उस की तनख्वाह ज़रूर मुझ से आधी थी मगर मां के प्रति उस की आज्ञाकारिता बहुविध व बहुगुण रही।