अर्चना – एक क्युट दीखने वाली मोर्डन गर्ल ।
अर्चना का नाम जितना सरल था, उसकी ज़िंदगी उतनी ही जटिल। वह उन लड़कियों में से थी जो शिकायत कम करती हैं और सहन ज़्यादा। जो रोती भी हैं तो अकेले, और गिरती भी हैं तो खुद ही उठती हैं। उसकी खामोशी को लोग उसकी कमजोरी समझते थे, लेकिन वही खामोशी उसकी सबसे बड़ी ताकत थी।
अर्चना एक छोटे से कस्बे में रहती थी। उसके पिता रेलवे में मामूली नौकरी करते थे और माँ एक साधारण गृहिणी थीं। घर की आमदनी सीमित थी, लेकिन संस्कार और आत्मसम्मान भरपूर थे। माँ अक्सर कहा करती थीं कि हालात चाहे जैसे हों, इंसान को अपना सम्मान नहीं खोना चाहिए। यही बात अर्चना के दिल में बस गई थी।
बचपन से ही अर्चना पढ़ाई में होशियार थी। स्कूल में टीचर उसकी तारीफ करते और उसे आगे बढ़ने की सलाह देते। लेकिन जैसे-जैसे वह बड़ी होती गई, समाज की सोच बदलती गई। अब तारीफ की जगह सवाल आने लगे। कोई कहता कि लड़की को इतनी पढ़ाई की क्या ज़रूरत, तो कोई कहता कि आखिर में तो शादी ही करनी है। अर्चना सुनती थी, लेकिन जवाब नहीं देती थी।
कॉलेज में उसने आर्ट्स विषय चुना। वह पढ़ाई के साथ-साथ कॉलेज की लाइब्रेरी में पार्ट टाइम काम भी करने लगी ताकि घर पर बोझ न बने। किताबों के बीच उसे सुकून मिलता था। किताबें उससे सवाल नहीं करती थीं, न ही उसे उसकी हैसियत याद दिलाती थीं।
कॉलेज के दूसरे साल एक डिबेट प्रतियोगिता रखी गई। विषय था – लड़कियों की आज़ादी। जब अर्चना का नाम प्रतिभागियों की सूची में आया, तो कई लोग हँस पड़े। कुछ ने कहा कि यह लड़की क्या बोलेगी, तो कुछ ने उसकी सादगी का मज़ाक उड़ाया। अर्चना ने सब सुना, लेकिन चुप रही।
डिबेट वाले दिन जब वह मंच पर पहुँची, तो उसके हाथ काँप रहे थे। सामने सैकड़ों लोग बैठे थे। उसने गहरी साँस ली और बोलना शुरू किया। उसकी आवाज़ में गुस्सा नहीं था, शोर नहीं था, बस सच्चाई थी। उसने कहा कि आज़ादी का मतलब मनमानी नहीं, बल्कि अपने फैसले खुद लेने का हक है। जब वह बोलकर खत्म हुई, तो पूरा हॉल तालियों से गूँज उठा। उस दिन पहली बार अर्चना को महसूस हुआ कि उसकी आवाज़ भी मायने रखती है।
लेकिन ज़िंदगी ने उसे ज़्यादा देर खुश नहीं रहने दिया। कॉलेज के आख़िरी साल में उसके पिता की तबीयत खराब रहने लगी। इलाज में पैसे खर्च होने लगे और नौकरी भी छूट गई। घर की हालत दिन-ब-दिन बिगड़ने लगी। एक दिन माँ ने भारी मन से कहा कि शायद अर्चना को पढ़ाई छोड़नी पड़े।
उस रात अर्चना बहुत रोई। किताबें सामने थीं, लेकिन आँखों से आँसू रुक नहीं रहे थे। उसी रात उसने तय कर लिया कि वह हार नहीं मानेगी। अगले दिन उसने ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया और एक सिलाई सेंटर में भी काम करने लगी। दिन में कॉलेज, शाम को काम और रात में पढ़ाई। थकान बहुत थी, लेकिन हिम्मत उससे भी ज़्यादा।
कई बार लोग ताने देते कि लड़की होकर इतना क्यों भाग रही है। कोई कहता कि घर बैठकर शादी की तैयारी करो। अर्चना मुस्कुरा देती और अपने काम में लग जाती। उसे पता था कि यह संघर्ष उसके भविष्य की नींव है।
धीरे-धीरे उसकी मेहनत रंग लाने लगी। उसने अच्छे अंकों से ग्रेजुएशन पूरा किया। एक दिन उसे शहर के एक NGO से नौकरी का ऑफर मिला। वहाँ वह गरीब बच्चों को पढ़ाने लगी। पहली सैलरी जब उसने माँ के हाथ में रखी, तो माँ की आँखों में आँसू आ गए। पिता ने सिर पर हाथ रखकर कहा कि उन्हें अपनी बेटी पर गर्व है।
समय बीतता गया। अर्चना ने आगे की पढ़ाई भी पूरी की और खुद को पूरी तरह आत्मनिर्भर बना लिया। वही लोग जो कभी उसके सपनों पर हँसते थे, अब उसकी मिसाल देते थे। मोहल्ले की लड़कियाँ उससे सलाह लेने आने लगीं।
एक दिन उसी कॉलेज में उसे मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया गया, जहाँ कभी उसकी आवाज़ पर हँसी उड़ाई गई थी। मंच पर खड़ी अर्चना ने कहा कि वह खास नहीं है, बस उसने हार मानने से इनकार किया। उसने कहा कि हर लड़की के अंदर एक अर्चना होती है, बस ज़रूरत है उसे खुद पर भरोसा करने की।
उस दिन अर्चना की आँखों में आँसू थे, लेकिन ये आँसू कमजोरी के नहीं थे। ये आँसू जीत के थे। उसकी खामोशी अब उसकी पहचान बन चुकी थी। उसने साबित कर दिया था कि चुप रहकर भी ज़िंदगी की सबसे बड़ी लड़ाई जीती जा सकती है।
अर्चना आज भी वही साधारण लड़की थी, लेकिन उसकी सोच, उसका हौसला और उसकी कहानी असाधारण बन चुकी थी।