Man ka virodhabhash in Hindi Short Stories by Rajeev kumar books and stories PDF | मन का विरोधाभाष

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मन का विरोधाभाष


  

विरोधापभाष कम होता प्रतीत नहीं हो रहा था, बल्कि बढ़ता ही जा रहा था। बाहर का विरोधाभाष होता तो स्नेहा उन बातों पर बिल्कूल भी ध्यान नहीं देती और खुद को एक कमरे में बंद करके अपने काम में लग जाती। यह विरोधाभाष तो स्नेहा के मन का था। मन का ही एक पक्ष स्वीकृती प्रदान कर रहा था और मन का ही एक पक्ष विरोध उत्पन्न कर रहा था। दुविधा की स्थिती में जीना कितना दुष्कर होता है, यह बात तो सबको पता है। क्षण में बुना जाला बड़ी देर में टुटता है।
स्नेहा ने दो बार फोन कट करने के बाद मोबाईल को साइलेन्ट मोड में कर दिया था। न चाहते हुए भी उसका ध्यान मोबाईल की तरफ गया और न चाहते हुए भी स्नेहा ने फोन रिसीव कर कहा ’’ बार-बार फोन करना, तम्हारी बेचैनियों को ब्यां कर रही हे। ’’
कॉलर ने स्पष्ट आवाज में कहा ’’ और बार-बार फोन कट करना यह साबित करता है कि तुम्हें मेरी बेचैनियों का जरा भी ख्याल नहीं है। ’’
आई एम नोट सिरियस, एबाउट इट, मैं अभी इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहती। ’’ बोलकर स्नेहा ने फोन कट कर दिया। कॉलर ने भी एक दो बार फोन लगाने के बाद हार मान लिया।
दरअसल मयंक ने जबसे स्नेहा को देखा है, बेचारा घायल ही हो गया है। स्नेहा है ही इतनी सुंदर कि कोई भी अपना दिल फेंक बैठेगा। मगर स्नेहा का क्या, जवान है, खुबसूरत है, प्यार करने का उसका भी मन ललचता है। सब जरूरतें अपनी जगह पर है। मगर उन जरूरतों का क्या, जिनको आसारा सिर्फ स्नेहा का ही है। पिता की असमय निधन के बाद स्नेहा ने ही पूरे घर को संभाल कर रखा है। माँ का खर्चा, बबलू और गुड़ीया की पढ़ाई-लिखायी का खर्चा। इन जिम्मेदारियों से बड़ी कहीं प्यार की जिम्मेदारी होती है भला,। स्नेहा ने यह बात अपने आप को भलि-भातिं समझा दिया है। मन के अन्दर की परिस्थिती प्रेम उत्पन्न कराती है और प्रेम का विघटन भी कराती है।
इतने कम पैसों में घर का गुजारा नहीं हो रहा था। स्नेहा के सामने समस्या थी कि अच्छी नौकरी ढुंढना और वो भी नजदीक में, जहाँ शाम को वो जल्दी अपने घर पहूँच सके।
काम मिला तो वो अपने काम में व्यस्त हो गयी। समय भी बदल रहा था। बहूत दिनों तक तो स्नेहा की माँ मोहल्ले वाले को शांत करती रही और स्नेहा का उत्साहवर्द्धन करती रही। मगर एक दिन मूहल्ले वालों की बकबक और कानाफूसी से तंग आकर माँ ने कह दिया’ ’’ बेटी, जब तुमको अपने व्याह के बारे में भी सोचना चाहिए। हमलोगों को अपने हाल पे छोड़ दो। चेहरे पर झुर्रि दिखने लगेगा तो कोई भी व्याह नहीं करेगा। ’’
मँ की इस बात पे स्नेहा की आश्चर्यजनक प्रतिक्रिया दी और फिर माँ के गाल को पुचकार कर कहा ’’ हाँ , लेकिन अभी नहीं। ’’ बोलकर बेडरूम में बबलू और गुड़ीया को पढ़ते हुए देखने के बाद किचन में चली गयी। पढ़ाई का खर्च बढ़ने लगा तो उसने नई नौकरी कर ली। सैलरी अच्छी मगर घर से दुर। बबलू ने जिम्मेदार निभाने का भरोषा दिया।
दफ्तर से लौटते वक्त अचानक मयंक और स्नेहा का आमना-सामना हुआ। मयंक, स्नेहा का झुर्रि को देखकर चौंका तो स्नेहा भी उसके सफेद हो रहे बाल को देखकर चौंकी।
स्नेहा ने पुछा ’’ बताओ, बाल-बच्चे कैसे हैं ? ’’
जवाब देने से पहले ही मयंक ने पुछा ’’ और तुमहारे बच्चे कैसे हैं ?’’
स्नेहा ने कहा ’’ मैंने अभी तक शादी नहीं की। ’’ मयंक ने एक नज़र स्नेहा की मांग की तरफ देखा।
मयंक ने कहा ’’ तुम्हारी हामी के वगैर मैं कैसे शादी कर सकता था, सो नहीं की। ’’
मयंक के हाथ में स्नेहा का हाथ होना दोना के दिल को पीघला रहा था।

समाप्त