वाजिद हुसैन सिद्दीक़ी की कहानी
अदालत की खिड़की से हल्की धूप भीतर घुस रही थी। धूप की वह पतली लकीर लकड़ी की पुरानी मेज़ पर फैलते हुए जैसे पूरे कमरे की उदासी कोचीर देना चाहती थी। बाहर बरामदे में सन्नाटा था,भीतर अदालत की पीली पड़ चुकी फाइलों की गंध और और पुरानी दीवारों पर वर्षों की गंभीरता टंगी हुई थी। जज साहब की मेज़ के सामने पुलिस वाले ने एक दुबला पतला आदमी खड़ा किया। वह धारीदार कमीज़ और पैवंद लगी पतलून पहने हुए था। चेहरे पर धूल, पैरों में घिसी हुई चप्पलें और उसके हाथों की उंगलियां खेत की मिट्टी जैसी खुरदरी थी। उसकी आंखों में अपराध का कोई भाव नहीं था बस उलझन और डर की एक ही परत चमक रही थी।
"नाम?" अदालत के रजिस्ट्रार की आवाज़ गूंजी।
"गिरधारी।" उसका स्वर इतना धीमा था, जैसे शब्द भी डरते- डरते बाहर आ रहे हो।
जज साहब ने फाइल खोली। कागज़ों की सरसराहट के बीच उन्होंने पढ़ना शुरू किया -"अप्रैल के महीने की नौ तारीख के दिन रेलवे का सिपाही सुरेश चंद्र सुबह के समय रेल की पटरियों के पास ग्शत लगा रहा था। तब उसने तुम्हें स्लीपर को रेल की पटरियों से जोड़ने वाला एक पेंच खोलते हुए रंगे हाथों पकड़ा। यह रहा वह पेंच... उसने तुम्हें इस पेंच के साथ गिरफ्तार कर लिया। क्या यही हुआ था?"
"के... क्या ?" गिरधारी हड़बड़ा गया।
"क्या जैसा सुरेश चंद्र ने कहा है, वैसा ही हुआ था?"
"जी, जनाब, यह सच है।"
"ठीक है, तुम यह पेंच क्यों खोल रहे थे?"
"क... क्या?"
"क्या मत कहो और सवाल का जवाब दो। तुम वह पेंच क्यों खोल रहे थे?"
"मुझे यह पेंंच चाहिए था।" छत की ओर देखते हुए गिरधारी ने कहा।
जज साहब की आवाज़ कर्कश हो उठी। "तुम्हें वह पेंच क्यों चाहिए था?"
"पेंच? हम मछलियां पकड़ने वाली अपनी डोरी के लिए उससे वजन बनाते हैं।"
"हम कौन?"
"हम... यानी सब लोग; मतलब चेनेहटी के किसान!"
"सुनो, मेरे सामने मूर्ख बनने का अभिनय मत करो। ढंग से बताओ। वज़न बनाने के बारे में यहां झूठ बोलने की ज़रूरत नहीं!"
"मैं बचपन से ही कभी झूठ नहीं बोला हूं, और अब आप मुझ पर इल्ज़ाम लगा रहे है कि मैं झूठ बोल रहा हूं..., गिरधारी की पलकें झपकने लगी। "श्रीमान जी अगर हम कीड़ा या अन्य जीवित चारा हुक में फंसाएंगे तो क्या वह बिना वज़न के नदी के तले पर पहुंच पाएगा?... और आप कह रहे हैं, मैं झूठ बोल रहा हूं।"
वह खीसें निपोर कर बोला -"उस चारे का फायदा ही क्या है जो पानी की सतह पर तैरता रहे? सारी मछलियां तो नदी के तले के पास चारा ढूंढ़ती है। केवल मांगूर पानी की सतह पर तैरती है। और हमारी इस नदी में मांगुर नहीं पाई जाती है... मांगुर मछलियों को बहुत सारी जगह चाहिए।"
अदालत में बैठे दो-तीन लोग मुस्कुरा दिए, पर जज साहब गंभीर हो उठे।
"तुम मुझे मछलियों के बारे में क्यों बता रहे हो?"
"क... क्या? आपने ख़ुद ही तो मुझसे पूछा है..."
हमारे इलाके में भी आम किसान ऐसे ही मछलियां पकड़ते हैं। सबसे बेवकूफ छोटा बच्चा भी बिना किसी वज़न के मछलियां नहीं पकड़ेगा। हां, जिसे मछलियां पकड़ना आता ही नहीं, वह ज़रूर ऐसा करेगा। बेवकूफों के लिए कोई नियम थोड़े ही होता है।"
"यानि तुम कह रहे हो कि तुमने अपनी मछली पकड़ने वाली डोरी में वज़न लगाने के लिए वह पेंच वहां से खोल कर निकाला ?"
"और किस लिए? मैंने उसे कोई खेल खेलने के लिए थोड़े ही वहां से निकाला?"
"पर तुम इसके बदले कोई कील, या लोहे का टुकड़ा भी तो ले सकते थे..."
"लोहे का टुकड़ा सड़क पर गिरा हुआ थोड़े ही मिलता है, उसे ख़रीदना पड़ता है। कील का कोई फायदा नहीं। पेंच से बढ़िया कोई और चीज़ नहीं होती... पेंच भारी होता है और इसमें छेद होता है।"
"वह आदमी लगातार बेवकूफों जैसी बातें कर रहा था। जैसे वह कल ही पैदा हुआ हो या सीधे स्वर्ग से यहां आ गिरा हो!
जज साहब का स्वर अचानक सख़्त हो गया -
"मूर्ख आदमी, क्या तुम्हें यह पता नहीं कि इन पेंचों को खोलने से क्या होता है? यदि सिपाही ने यह नहीं देखा होता तो वहां से गुज़रने वाली कोई भी रेलगाड़ी पटरी से उतर सकती थी। बहुत सारे लोग इस दुर्घटना में मारे जाते। तुम्हारी वजह से लोगों की जान चली जाती।"
"हे ईश्वर! यह आप क्या कह रहे हैं, श्रीमान जी? मैं उन लोगों को क्यों मारूंगा? क्या मैं विधर्मी या शैतान हूं? ईश्वर का शुक्र है कि मैंने अपना सारा जीवन बिना ऐसी कोई बात सोचे हुए गुज़ार दिया... "
गिरधारी अपनी खींसे निप़ोरता है और अपनी नज़रें छोटी करके न्यायाधीश की ओर ऐसे देखा है जैसे उसे उसकी बात पर यक़ीन नहीं हो।
"हे ईश्वर! गांव में हम सब तो बरसों से पटरियों के जोड़ों से पेंच निकलते रहे हैं। ईश्वर दयालू रहा है। आप दुर्घटनाओं और लोगों को मारने की बात करते हैं। अगर मैं पटरी का एक हिस्सा उखाड़ कर ले जाता या पटरी पर किसी पेड़ का मोटा तना रख देता, तब रेलगाड़ी दुर्घटनाग्रस्त हो जाती। लेकिन, उफ्... केवल एक् पेंच से!"
"लेकिन तुम्हें समझना चाहिए कि पेंच ही स्लिपरों को रेल लाइनों से जोड़े रखता है।"
"हम यह समझते हैं... हम सभी पेचों को नहीं निकलते हैं... हम कुछ पेंचों को वही लगा हुआ छोड़ देते हैं... हम बिना सोचे समझे यह काम नहीं करते हैं... हम समझते हैं...!"
जज ने कहा, "पिछले साल रेलगाड़ी यहीं पर पटरी से उतर गई थी, अब मैं समझ सकता हूं कि ऐसा क्यों हुआ था।"
"यह आप क्या कह रहे हैं? आप पढ़े-लिखे लोग इसीलिए तो है कि आप सब कुछ समझ सके, श्रीमान जी! ईश्वर जानता है कि समझ किसे देना चाहिए... अब यहां आपने कैसे और क्या के बारे में दलील दे दी है, लेकिन यह सिपाही, या हमारे जैसे किसानों को बिल्कुल समझ नहीं है। हम लोग बिना कुछ समझे दूसरों को कॉलर से पड़कर कैद कर लेते हैं। सिपाही को पहले अपने पक्ष में दलील देना चाहिए, मुझे कारण बताना चाहिए। इसके बाद मुझे पकड़ना चाहिए था। हमारे यहां एक कहावत है कि किस के पास किस जितनी ही अक़्ल होती है... श्रीमान जी?" लिखिए श्रीमान जी, इस सिपाही ने मुझे दो बार जबड़े और छाती पर मारा।
अदालत में हंसी दबानी पड़ी। पर जज गंभीर ही रहे।
कुछ पल की चुप्पी के बाद जज ने पूछा- "तुम्हें सच में यह नहीं पता था कि यह अपराध है?"
गिरधारी ने दोनों हाथ जोड़ दिए।
"भगवान क़सम, नहीं पता था साहब। गांव में जब भी कोई चीज़ टूट जाती है, सड़क पर फेंक देते हैं लोग बोतल का ढक्कन, तार, पेंच -सब सड़क से उठा लेते हैं। रेल की लाइन पर हम समझे- लोहे का पेंच है, जो कोई फालतू चीज़ रहा होगा। ई तो कत्तई न सोचे थे कि रेल का पेंच होता है।"
जज ने धीरे से एक सांस भरी। उन्हें भी समझ आने लगा था कि इस आदमी की दुनिया कितनी सीमित, कितनी भोली और कितनी छोटी है।
"तुम पढ़े लिखे हो?"
"न... नाम साइन करना सीखे हैं बस। एक दिन स्कूल में मास्टरवा ने दौड़ा-दौड़ा कर पीटो, तब से स्कूल का मुंह नाय देखो"
"तो यह बताओ -पेंच खोलते समय ट्रेन गुज़री?"
गिरधारी ने घबराकर कहा- "हम तो ट्रेन का टेम ही टाले रहते हैं हुज़ूर! डर लगता है... आवाज़ बड़ी भयानक होती है..."
इस जवाब ने अदालत में एक मिश्रित सन्नाटा, एक अलग क़िस्म की करुणा फैला दी।
जज साहब ने कुछ देर फाइल पढ़ी, फिर गिरधारी को देखने लगे - जैसे उसकी आंखों में किसी छिपे हुए इरादे को खोजना चाहते हों पर वह मासूम अपराधी लगा।
इस समय कोर्ट के एक कोने में बैठा एक आदमी खड़ा हुआ -सफेद कमीज़, घिसे जूते और सिर पर पुरानी टोपी। उसने हाथ जोड़कर कहा -"हुजूर... मैं पंचायत का मेंबर हूं।
गिरधारी बुरा आदमी नहीं है। यह घर में दो बच्चियों और एक बीमार बूढी मां का अकेला सहारा है। उसमें बुद्धि की कमी है पर दलील का प्रयोग करता है। आपसे बहस करने का इरादा नहीं था इसका।"
जज साहब ने कठोरता के बिना कहा -"अच्छा, बैठ जाइए। हम सब समझ रहे हैं।"
गिरधारी की आंखें भर आईं।
"साहब... घर में लोगों को क्या मुंह दिखाएंगे? हम तो मछरी के फेर में... जेल जइब? बिटिया लोग रो पड़ेगी।"
जज साहब ने थोड़ी देर सोचा।
क़ानून और इंसाफ के बीच बैलेंसिंग बहुत कठिन होता है।
पर इंसाफ मानवता के बिना अधूरा है- वह यह बखूबी जानते थे।
उन्होंने कहा -"गिरधारी, अगर मैं तुम्हें छोड़ दूं तो क्या तुम दोबारा ऐसा काम करोगे?"
"कभी नहीं, सरकार! किसी की भी चीज़ नहीं छुएंगे। मछरी पकड़ना छोड़ देंगे, बस घर में खेती-बारी करेंगे।"
"और अगर बोतल- डिब्बा -लोहे का सामान चाहिए तो कहां से लाओगे?"
"बाज़ार से... पड़ी चीज को छुएंगे नाय साहब।" गिरधारी ने कान पकड़कर कहा।
जज साहब चाहते तो हंस भी सकते थे, पर उन्होने संयम रखा। यह आदमी अपराधी नहीं, बस एक भोला ग्रामीण था जिसे अपने छोटे- से काम की बड़ी क़ीमत नहीं मालूम थी।
कुछ पन्ने पलट कर जज ने फैसला लिखना शुरू किया। गिरधारी डर के मारे कांप रहा था। हर पल उसे लगता था कि उसका जीवन किसी भारी गलती का बोझ उठा लेगा।
फिर जज ने फैसला पढ़ा -गिरधारी, अदालत तुम्हारे अपराध को गंभीर मानते हुए भी तुम्हारे इरादे को ध्यान में रखती है। तुम्हारा उद्देश्य हानि पहुंचाना नहीं था। इसलिए तुम्हें छ: महीने की जेल के बजाय -"
गिरधारी का दिल धक-धक करने लगा।
"-अदालत चेतावनी देकर रिहा करती है। तुम्हें यह शपथ लेनी होगी कि दोबारा रेल की संपत्ति या सरकारी सामान को हाथ नहीं लगाओगे"
"साहब... आपका बहुत उपकार। हम ग़लती न दोहराएंगे। क़सम है हमारी बिटिया पर।"
"जाओ,"जज साहब ने कहा -"ग़लती से बचना ही इंसान की असली समझ है... अपना घर संभालो।"
जब गिरधारी बाहर निकल रहा था, तो धूप अब तेज़ हो चुकी थी। उसे लगा - उसका भोलापन और सच किसी काम आ गया जिससे उसकी ज़िंदगी में सचमुच रोशनी लौट आई।
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