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शीशे के भीतर दर्पण जैसा था मेरा हृदय, साफ़, सच्चा, पारदर्शी... पर जब तुमने मुझे समझा नहीं, तो चकनाचूर हो गया — सौ टुकड़ों में बिखर गया मैं, अपने ही भीतर के शीशे पर। अब कौन झाँकेगा उस शीशे के भीतर? कौन देखेगा वो सच्चाई, जो टूटी पर अब भी ज़िंदा है? क्योंकि हर टुकड़े में — तेरी ही छवि है बस... हर चमक में तेरा नाम, हर दरार में तेरी याद। तुमने देखा मुझे औरों की नज़रों से, इसलिए खुद की आँखों से कभी नहीं। वो नहीं चाहते थे हमें एक साथ देखना, और देखो — वो जीत गए, मैं हार गई... पर उस हार में भी, हर टुकड़ा तेरा आईना बन गया। अब जब भी कोई मुझे जोड़ने की कोशिश करता है, मैं मुस्कुरा देती हूँ — क्योंकि जो एक बार टूटा, वो अब किसी का नहीं, सिर्फ़ तेरी छवि का घर बन गया है। 🥹
घर बर्बाद कौन करता है? घर बर्बाद करने वाले कोई बाहर वाले नहीं होते, घर तो तब टूटता है जब अपने ही भीतर से सड़ा देते हैं उसे — धीरे-धीरे, बातों के ज़हर से। जब बेटा किसी और औरत के साथ दिखता है, तो माता-पिता यह नहीं कहते कि “गलत है” — बल्कि कहते हैं, > “कोई बात नहीं बेटा, बहू को मत बताना… वह जान भी जाए तो बनी रहे, आखिर हमारे लिए तो वही रसोई में सेवा करती है।” और अगर वही बहू सच्चाई जानकर बोल दे, अपना दुख ज़ाहिर करे — तो कहते हैं, > “हमारी बहू तो बहुत बदतमीज़ है, आजकल की औरतें ज़रा-ज़रा सी बात पर बखेड़ा करती हैं।” कभी सोचा है, यही सोच पुरुषों को बाहर बढ़ावा देती है। जब गलती करने वाला भी हीरो बना दिया जाए, और सहने वाली औरत को दोषी, तो फिर घर कैसे बचेगा? वह बहू चुप रहे तो “कमज़ोर”, बोले तो “मुंहफट”, और टूट जाए तो “अभागन” कहलाती है। असल में घर तब नहीं टूटते जब आदमी बेवफ़ा होता है, घर तब टूटते हैं जब परिवार उसकी बेवफ़ाई को चुपचाप स्वीकार कर लेते हैं। परिवार वालों का सपोर्ट होता है अपने बेटे को बढ़ावा देने में
“कुछ लोग कहते हैं — बड़ा इगो है इसमें, मैं कहूँ — हाँ, पवित्रता का है, गंदगी का नहीं। तुम दिखा सकते हो अहंकार, पर पवित्र बनाकर दिखाओ… कर नहीं पाओगे!” ---
💭 विचार — “पहले तुम स्त्री बनो” पहले तुम स्त्री बनो, फिर चाहे प्रेमिका बनना, पत्नी बनना या देवी बन जाना। क्योंकि जब तक तुम स्त्री के दुख, संघर्ष, और मौन की भाषा नहीं समझती, तब तक तुम्हारा प्रेम भी अधूरा रहेगा। आज की सबसे बड़ी विडंबना यही है — स्त्री ही स्त्री की सबसे बड़ी शत्रु बन बैठी है। वो दूसरी स्त्री के आँसू नहीं देखती, बस उसकी मुस्कान से जल उठती है। किसी की मजबूरी को मज़ाक बना देती है, और किसी के दर्द को “ड्रामा” कहकर टाल देती है। कभी किसी की जगह खुद को रखकर देखो — कितना कठिन होता है मौन रहकर जीना, कितना पीड़ादायक होता है सहना और मुस्कुराना एक साथ। स्त्री अगर स्त्री को समझने लगे, तो यह दुनिया और कोमल हो जाएगी। फिर किसी को प्रेमिका या पत्नी कहलाने से पहले मानव और संवेदना की पहचान नहीं खोनी पड़ेगी। पहले तुम स्त्री बनो — क्योंकि स्त्री होना ही सबसे बड़ा धर्म है, सबसे बड़ी साधना, और सबसे गहरा प्रेम। इस विचार का मतलब यह नहीं की पत्नी की जगह छीन ली जाए प्रेमिका अपने पति की patni बनो, Kisi dusre ki Pati ki Premika nhi bano
किसी ने पूछा तुम पत्नियों के लिए ही क्यों लिखती हो क्योंकि मैने अच्छी और सच्ची पत्नियों के साथ गलत होते देखा है उनको फूट-फूट कर रोते देखा है और सच बता दूं ,तो एक पहले पत्नी से पहले मैं एक स्वयं स्त्री हूं। - archana
“सहनशील पत्नी” पत्नी ने तो पति की गलतियाँ भी सह लीं, उसकी बेरुख़ी भी, उसके झूठ भी, यहाँ तक कि उसके जीवन में आई दूसरी औरत को भी सह लिया। वो जानती थी — अब उसका हक़ कोई और बाँट रहा है, पर उसने झगड़ा नहीं किया, सवाल नहीं उठाया… बस अपने हिस्से की चुप्पी ओढ़ ली। पर जब कभी उसके दिल का लावा फूट पड़ा, पति ने कहा — “अब तो तू क्लेश करने लगी है।” जिसने वर्षों तक सहेजकर घर को बचाया, उसी को दोषिनी बना दिया गया। सच है, औरत जब तक सहती है, सब उसे आदर्श कहते हैं, पर जब बोलती है — वही आदर्श एक पल में “क्लेश” बन जाता है।
गाने में छिपा ताना गाँव की शादी का जश्न पूरे शबाब पर था। औरतों का झुंड दालान में बैठा था, हाथों में ढोलक, तालियाँ और गाने की गूँज। कोई लोकगीत छेड़ता तो सब ठहाकों में डूब जातीं। हंसी-ठिठोली, मजाक और मस्ती—यही तो महिला संगीत की असली जान होती है। भीड़ में से तभी एक बहू उठी। जवान थी, स्वर में मिठास थी। सबने तालियाँ बजाईं—“वाह, अब तो मजा आ जाएगा!” उसने देहाती गाना शुरू किया। ढोलक की थाप पर उसकी आवाज़ गूँजी— “सास तो बड़ी करारी, बहू तो है हमारी प्यारी…” गाने में आगे बढ़ते ही शब्दों का रुख बदल गया। गीत की धुन में उसने “गाली शब्द” जोड़ दिए। परंपरा का हिस्सा मानकर बाकी औरतें खिलखिला कर हँस पड़ीं। हर ताली, हर ठहाका, उस गीत को और ऊँचा कर रहा था। लेकिन भीड़ के बीच एक चेहरा चुप था। वह थी—सास। वह सिर झुकाए बैठी रहीं। उनकी आँखों में गहरी उदासी थी। शायद वे समझ नहीं पा रही थीं कि यह गीत मजाक है या अपमान। बहू की आवाज़ जितनी ऊँची उठती, उनके दिल की चुप्पी उतनी गहरी होती जाती। कुछ कह भी तो नहीं सकती थीं। सब कह देते—“अरे, ये तो रस्म है, परंपरा है, मजाक है।” पर उनके लिए यह मजाक नहीं था। यह रिश्तों के सम्मान पर एक चोट थी। मैंने सोचा—सच में, यह घोर कलयुग है। जहाँ बहू-बेटियाँ गीतों में सास को गालियाँ देकर हँसी का सामान बना देती हैं, वहाँ रिश्तों की पवित्रता कहाँ रह जाती है? जहाँ शब्दों की मिठास की जगह कटुता और तानों ने ले ली है, वहाँ प्रेम और आदर की नींव कितनी कमजोर हो जाएगी? असल में, सब एक जैसे नहीं होते। कुछ पति अच्छे होते हैं, कुछ बुरे। कुछ पत्नी त्यागमयी होती हैं, कुछ स्वार्थी। कुछ प्रेमी सच्चे, कुछ धोखेबाज़। प्रेमिका अच्छी बुरी अच्छाई और बुराई दोनों हर जगह हैं। लेकिन जब अच्छाई का सम्मान न हो और बुराई हँसी का कारण बन जाए—तभी तो लगता है कि कलयुग सचमुच हमारे बीच उतर आया है।
क्यों पत्नी बुरी है ha, पत्नी बुरी है, जब पति की प्रेयसी की ओर धुरी है पत्नी बुरी है, माता-पिता अपने लाल की गलती छुपाकर कहते कि हमारी सेवा नहीं करती है पत्नी बुरी है, प्रेमिका सोचती, “पत्नी भी कभी किसी की प्रेमिका रह चुकी है। पत्नी बुरी है, रिश्तेदार कहते, “जमीन और स्वार्थ के लिए झगड़ा कर रही है।” पत्नी बुरी है, क्योंकि परिवार ने, समाज में उसकी सारी छवि खुद गढ़ी है। इसलिए पत्नी बुरी है। ---
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