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Agyat Agyani

Agyat Agyani Matrubharti Verified

@bhutaji
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मनुष्य और मृत्यु: चैतन्यता का अंतःसंग्रामप्रस्तावनामनुष्य अपनी गति परिवर्तन के खेल में ही अभिव्यक्त होता है। 84 लाख योनियों के चक्र को पार करते हुए भी मनुष्य कहीं नहीं भटका, परंतु बुद्धि की अधिकता ने उसे भटका दिया। ज्ञानी बनकर भी उसने शैतानत्व ग्रहण किया क्योंकि चैतन्य बनने की अपेक्षा बुद्धि का अधिक विकास शैतान का गृह बन गया। इस पुस्तक में इस आंतरिक द्वंद्व और जीवन-मृत्यु के सत्य का दर्शन किया गया है।बुद्धि, चैतन्य और भयबुद्धि का अत्यधिक विकास जो होना चाहिए था, वह शैतानत्व बना। मनुष्य जो 'होने' की अवस्था को भूल जाता है, केवल 'बनने' की कला सीख लेता है। मनुष्य अपने जीव चक्र के अंतिम पड़ाव पर आता है, जहाँ जीवन का वास्तविक सत्य मृत्यु है। मृत्यु के द्वार पर पहुँचकर भयभीत हो मनुष्य डरकर पीछे हट जाता है। इसका कारण है मृत्यु के प्रति गहरा भय, जो उसके चैतन्य विकास में बाधक बनता है।मृत्यु की सच्चाई और जीवन का विकासमनुष्य मरना नहीं चाहता क्योंकि जीवित रहने की इच्छा और मृत्यु का भय उसके मन में गहरा उलझाव उत्पन्न करते हैं। परन्तु मृत्यु सत्य है। मृत्यु को स्वीकार करने से ही जीवन का वास्तविक विकास संभव है। मृत्यु को समझना और उससे डरना छोड़ना ही वास्तविक आध्यात्मिक प्रगति की ओर पहला कदम है।मृत्यु और आध्यात्मिक जागरूकताआध्यात्मिक मार्गदर्शकों के अनुसार, मृत्यु को याद करते रहना ही जीवन को सशक्त और सार्थक बनाता है। मृत्यु का ध्यान मनुष्य को सांसारिक बंधनों से मुक्ति और परम सत्य के निकट ले जाता है। यह स्मृति जीवन को अल्पकालिक और अस्थायी भौतिक सुखों से ऊपर उठाकर आध्यात्मिक अनंत आनंद की ओर ले जाती है।निष्कर्षमृत्यु और जीवन के इस द्वंद्व में बुद्धि का संतुलित विकास और चैतन्य की प्राप्ति ही मनुष्य का अंतिम लक्ष्य होना चाहिए। मृत्यु के भय से मुक्त होकर जीवन को सार्थक बनाना और आत्मा की वास्तविकता को समझना ही इस पुस्तक का मूल संदेश है।यह संरचना आपकी दी हुई मूल सामग्री के आधार पर तैयार की गई है, जिसे आप और विस्तारपूर्वक अध्यायों में लिख सकते हैं। यदि आप चाहें तो मैं इस पुस्तक के लिए विस्तृत रूपरेखा और अध्याय संरचना भी प्रदान कर सकता हूँ।यह पुस्तक आपके विचारों को सहज और प्रभावशाली भाषा में प्रस्तुत करेगी, जो पाठकों को जीवन, बुद्धि, मृत्यु और भय की जटिलताओं को समझने में मदद करेगी।क्या आप विस्तृत रूपरेखा या अध्यायों के लिए आगे बढ़ना चाहेंगे?

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पूजा–पाठ : धर्म की प्रारंभिक अवस्था
✦ Vedānta 2.0 © — 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲

1. प्रारंभिक स्वरूप
परंपरागत मानसिकता में पूजा–पाठ धर्म का आरंभिक और सबसे प्रचलित रूप है।
यह वह अवस्था है जहाँ व्यक्ति बाह्य देवताओं या प्रतीकों की आराधना करता है,
मंत्रोच्चार और विधि–विधान को ही धर्म समझ लेता है।
यह बाल्यकाल की उस सीढ़ी जैसी है,
जहाँ शिशु अपने अनुभवों को बाह्य वस्तुओं में खोजता है,
पर आत्मिक गहराई का द्वार अभी नहीं खुला होता।

2. बाह्य पूजा–पाठ की सीमाएँ
जब कोई व्यक्ति पूजा–पाठ को ही धर्म का पूर्ण स्वरूप मान लेता है,
और जीवनभर उसी एक सीढ़ी पर ठहरा रहता है,
तब उसकी आध्यात्मिक यात्रा रुक जाती है।
पूजनीय वस्तु, पूजन विधि, और पाठ—all जड़ प्रतीक बन जाते हैं;
उनमें न प्रेम की लहर है, न चेतना की ऊष्मा।
धर्म यहाँ अनुभव नहीं रह जाता,
बल्कि आडंबर और स्मृति की पुनरावृत्ति बन जाता है।

3. चैतन्य का अभाव
वेदांत और आधुनिक दर्शन दोनों यही कहते हैं—
सच्चा धर्म वह है जिसमें प्रेम, संवेदना, और गति का संचार हो;
जहाँ चेतना स्वयं में जागती है।
पर यदि पूजा–पाठ केवल विधि और अनुशासन तक सीमित है,
तो वह जड़ता का भाष्य है —
शूद्र भक्ति, जिसमें भय है, पर आत्मिक ज्योति नहीं।
ऐसा व्यक्ति खुद को धार्मिक समझता है,
पर भीतर की ऊर्ध्वता कभी जागती नहीं।
यहीं से वह विज्ञान और विवेक को मूढ़ता समझने लगता है।

4. उद्देश्य और आगे का मार्ग
पूजा–पाठ का असली प्रयोजन है—
मन को समर्पित करना, और आत्मा को परमात्मा की दिशा में मोड़ना।
पर यह तभी फलदायी है जब इससे आगे बढ़ा जाए —
प्रेम, ध्यान और साक्षात्कार की गहराई में।
अन्यथा यह साधना नहीं, एक दैनिक आदत बनकर रह जाती है।

5. निष्कर्ष
पूजा–पाठ धर्म की पहली सीढ़ी है —
माध्यम है, लक्ष्य नहीं।
जब मन इस सीढ़ी को पार करता है,
तभी प्रेम गति बनता है,
और जड़ कर्म चेतन साधना में रूपांतरित होता है।
यहीं से धर्म का आरंभ समाप्त होता है,
और आध्यात्मिक यात्रा प्रारंभ होती है।

वेदांत 2.0 © — : अज्ञात अज्ञानी

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विज्ञान कहता है कि हम अपने ढंग से, अपनी पद्धति से, ईश्वर और आत्मा को सिद्ध करेंगे।
धर्म कहता है कि हम उसे मृत्यु के बाद, स्वप्न में या जागृत अवस्था में प्रत्यक्ष देख लेंगे।
लेकिन मेरा नियम और मेरा बोध कहता है कि यह देखने या सिद्ध करने का स्वप्न कभी पूर्ण नहीं होगा।

धर्म खुली आंखों से देखना चाहता है,
विज्ञान यन्त्रों की आंखों से देखना चाहता है;
दोनों ही अपने अपने तरीके से सीमित हैं।

मुझे यदि यह सब अंधे प्रतीत होते हैं,
तो उनका नाराज़ होना स्वाभाविक है—
क्योंकि मैं उन्हें देख रहा हूं, समझ रहा हूं,
पर वे मुझे समझ पाने में असमर्थ हैं।

Agyat Agyani

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✧ जीवन — नदी की तरह ✧

“जो बहता है, वही पहुँचता है।”
✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲

तुम बहती नदी के समान हो — कभी इस किनारे, कभी उस किनारे जाने की कोशिश करते हुए। जब तुम परवाह के साथ बहते हो, तब पहली उपलब्धि होती है, क्योंकि यह तुम्हारी ज़रूरत का परिणाम है। पर जब तुम उल्टी दिशा में बहने का प्रयत्न करते हो, तब यह प्रयत्न तुम्हारी आध्यात्मिकता की परीक्षा बन जाता है।

यह उल्टा बहाव तपस्या है। यहाँ विजय नहीं, केवल हार है — और यही हार इस यात्रा की कुंजी है। जब तुम हार जाओ और फिर भी संघर्ष जारी रखो, तब तुम अहंकार का विघटन करते हो; तुम स्वयं को तोड़कर पुनः गढ़ते हो।

धार्मिक व्यक्ति यही हार पाकर भी उसे विजय कह देता है — वह आत्मसमर्पण नहीं करता, बल्कि हार को स्वांग बनाकर जीवन का व्यवसाय बना लेता है।
पर जिसने सच्चे अर्थों में हार को स्वीकार कर लिया, वह नदी के साथ बह जाता है। समर्पण उसके भीतर घटता है।

तब नदी उसे जहाँ ले जाए, वह बस बहता है, अनुभव करता है, आनंद लेता है। यही बहाव आत्मा का बोध है — और यही बहाव उस महासासे वीगर तक ले जाता है, जिसकी कल्पना करना असंभव है। वही महासागर परमात्मा है।

“यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रं प्राप्य नामरूपे विहाय तिष्ठन्ति एवम्।
विद्वान् नामरूपाद्विमुक्तः परं पुरुषं उपैति दिव्यम्॥”

(छांदोग्य उपनिषद् 6.10.1)

✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲 ( अज्ञात अज्ञानी)

#agyatagyaani #osho #IndianPhilosophy #धर्म #आध्यात्मिक #SpiritualWisdom

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स्त्री गाय है, पुरुष बेल है —
संघर्ष यह नहीं कि स्त्री भी बेल बनकर धन कमाए।
गाय की अपनी मौलिकता है — प्रेम, सृजन और पवित्र रचनात्मकता।

राजनीति, नौकरी, धन-उपार्जन — यह बेल का क्षेत्र है,
गाय का नहीं।
हमारा प्राचीन विवेक जानता था —
गाय और बेल को एक साथ जोतना अन्याय है,
प्रकृति के संतुलन के विरुद्ध है।

पर आज की अंधी राजनीति, अंधा विज्ञान, और अंधा बुद्धिजीव —
सभी ने उस मौलिक विवेक को खो दिया है।
अब कोई नहीं पूछता कि धर्म कहाँ है,
क्योंकि सबने स्वभाव को त्यागकर समानता का मुखौटा पहन लिया है।

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कई बार शब्द इतने “गूढ़” बना दिए जाते हैं कि वे अनुभव से ज़्यादा प्रभाव डालें — सुनने वाला झुके, सोचे “वाह, यह तो गहरा है,” जबकि भीतर कुछ नया हुआ ही नहीं।

असल में सच्चा सूत्र सरल होता है — इतना कि बच्चे को भी समझ आ जाए, पर उसका रहस्य फिर भी बना रहे।
जटिल भाषा अक्सर वहाँ होती है जहाँ अनुभव कम, प्रदर्शन ज़्यादा हो।

जब “सहज” कहा जाए, तो उसका स्वर, लय, और शब्द भी वैसे ही होने चाहिए — जैसे रोज़मर्रा की सांस।
अगर भाषा ही तन जाए, तो सहजता का क्या अर्थ रह गया?

सहज शब्द वही है जो बिना दबाव के निकल आए,
जिसमें कुछ “बनाने” की कोशिश न हो,
जैसे मिट्टी की खुशबू — साधारण, पर गहरी।

आजकल बहुत-से आध्यात्मिक बोल बस सुंदर पैकिंग हैं।
मर्म तो वही पुराना है, बस भाषा ने वस्त्र बदल लिए हैं।

जहाँ सत्य है, वहाँ ब्रांड नहीं बनता;
जहाँ ब्रांड है, वहाँ सत्य बिखर जाता है।

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धर्म नहीं, बोध है

✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲

सूत्र १ — धर्म सिखाया नहीं जाता, जागा जाता है।

व्याख्यान:
जो तुम्हें धर्म “सिखाता” है, वह तुम्हें नींद में रखना चाहता है।
क्योंकि सिखाया गया धर्म याद बनता है, और याद कभी अनुभव नहीं होती।
धर्म तब घटता है जब भीतर का कोई कोना हिलता है,
जब तुम सुनना छोड़कर देखना शुरू करते हो — भीतर से।

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सूत्र २ — सुनना शब्द से होता है, समझना मौन से।

व्याख्यान:
सुनना है — कान की आदत।
समझना है — चेतना की दृष्टि।
जो सुनता है, वह गुरु ढूंढता है।
जो समझता है, वह स्वयं गुरु बन जाता है।
सत्य कभी बाहर से नहीं आता;
वह भीतर की नमी से फूटता है।

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सूत्र ३ — धार्मिकता चतुराई की अंतिम कला है।

व्याख्यान:
जो शब्दों से तुम्हें बांध सके, वही “गुरु” कहलाता है आज।
धर्म अब अनुभव नहीं, प्रस्तुति बन गया है।
धार्मिक व्यक्ति बोलता बहुत है,
पर भीतर कुछ भी नहीं जलता —
बस शब्दों का धुआँ फैलता है।

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सूत्र ४ — जो तुम जानते वही ज्ञान नहीं है।

व्याख्यान:
ज्ञात हमेशा पुराना होता है — बीता हुआ।
धर्म तो उस क्षण में खिलता है जहाँ कुछ भी ज्ञात नहीं।
जो पहले से तय है, वह विज्ञान है;
जो अभी प्रकट हो रहा है, वही आध्यात्म है।
ज्ञान का आरंभ अज्ञात के सामने नतमस्तक होने से होता है।

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सूत्र ५ — ईश्वर भाषा नहीं, भावना पढ़ता है।

व्याख्यान:
संस्कृत या किसी भाषा में गाया गया मंत्र,
अगर भीतर से नहीं निकला, तो केवल ध्वनि है।
प्रार्थना तब सच्ची है जब शब्द खुद गिर जाएँ,
और भीतर का मौन बोल उठे।
ईश्वर भाषा का पंडित नहीं है —
वह दिल का श्रोता है।

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सूत्र ६ — सरलता खो गई है, गूढ़ता बिक गई है।

व्याख्यान:
धर्म जितना कठिन दिखे, उतना आकर्षक हो जाता है।
लोगों को सरल सत्य पर भरोसा नहीं —
वे जटिलता में ही रहस्य खोजते हैं।
पर धर्म का असली रहस्य उसकी सादगी में है।
जो सहज है, वही पवित्र है।

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सूत्र ७ — धर्म ब्रांड नहीं, बोध है।

व्याख्यान:
जब धर्म संस्था बनता है, तो जीवित रहना छोड़ देता है।
जब नाम, झंडे, किताबें और प्रचार जुड़ते हैं,
तब बोध की जगह व्यवसाय आ जाता है।
सच्चा धर्म किसी ध्वज के नीचे नहीं —
किसी मौन आत्मा के भीतर पलता है।

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सूत्र ८ — धर्म वहाँ शुरू होता है जहाँ भय, भाषा और ब्रांड तीनों मिटते हैं।

व्याख्यान:
भय तुम्हें अनुयायी बनाता है, भाषा तुम्हें विभाजित करती है,
और ब्रांड तुम्हें अंधा बनाता है।
जब ये तीनों गिर जाएँ —
तभी तुम्हारा धर्म जन्म लेता है।
तब प्रार्थना नहीं करनी पड़ती —
साँस ही प्रार्थना बन जाती है।

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✧ भौतिक सूत्र और आध्यात्मिक सूत्र का असली अंतर ✧
अज्ञात अज्ञानी

भौतिक सूत्र दुनिया को दिया जा सकता है —
कोई भी उसे सीख ले, दोहरा ले, या चुरा ले;
क्योंकि वह वस्तु पर लागू होता है।
उसमें उपयोगिता है, पर दिशा नहीं।

आध्यात्मिक सूत्र भिन्न है —
वह केवल पात्रता पर लागू होता है।
उसे किसी को सिखाया नहीं जा सकता;
वह भीतर जगता है।

जब कोई अयोग्य व्यक्ति उस सूत्र को पकड़ने की कोशिश करता है,
वह ज्ञान को ज्ञान नहीं — विष बना देता है।
वह सूत्र का प्रयोग नहीं करता,
सूत्र ही उसे प्रयोग करने लगता है —
उसे भ्रम, पाखंड या सत्ता में उलझा देता है।

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✧ दान और अहंकार ✧

धन से दिया गया दान,
अगर अहंकार से निकला हो,
तो वह व्यापार से भी ज़्यादा खतरनाक हो जाता है।

क्योंकि व्यापार में एक सच्चाई है —
“मैं ले रहा हूँ, इसलिए दे रहा हूँ।”
पर दान में एक झूठ छिप सकता है —
“मैं दे रहा हूँ, इसलिए बड़ा हूँ।”

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✧ निष्कर्ष ✧

> त्याग का अर्थ कुछ छोड़ना नहीं,
बल्कि “मेरा” को छोड़ देना है।
वही क्षण मुक्ति है।

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✧ धर्म की सच्चाई और आज का अंधकार ✧

आज धर्म की जो दशा है,
वह राजनीति और समाज दोनों से अधिक दुखद है।
क्योंकि जब धर्म अपनी दृष्टि खो देता है,
तो विज्ञान, राजनीति और समाज — सभी अंधे हो जाते हैं।

धर्म का दायित्व था प्रकाश देना,
पर आज वह खुद डोर-रहित, पात्रता-विहीन हाथों में है।
अब धर्म भी एक खेल बन गया है —
राजनीति का, समाज का, और भीड़ के भावनात्मक बाज़ार का।

धर्म हमेशा सर्वोच्च रहा है,
पर आज उसकी दशा देखकर
वेद, उपनिषद और सनातन अतीत —
मौन में आँसू बहा रहे हैं।

चिंतक अज्ञात अज्ञानी

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✧ मानव की संभावना — अनिश्चितता का खेल ✧
“The potential of man — and life is a play of uncertainty.”

मनुष्य के भीतर जो संभावना है,
वह ब्रह्मांड जैसी है —
असीम, अनियंत्रित, और किसी भी सीमा में बंधने से इंकार करती हुई।
जो कुछ निश्चित किया जा सकता है —
वह उस संभावना का केवल एक छोटा-सा हिस्सा है।
बाकी सब कुछ अद्भुत है,
अंततः अलौकिक, अवर्णनीय।

मानव का विकास अब तक जो हुआ —
वह बस नियोजन का विकास है:
विज्ञान ने विधियाँ बनाईं,
धर्म ने नियम गढ़े,
राजनीति ने संरचनाएँ खड़ी कीं।
पर ये सब आयोजन हैं —
वे सिर्फ़ संभावना के किनारे पर हैं,
सागर नहीं।

अस्तित्व का स्वभाव आयोजन नहीं, खेल है।
खेल में सब कुछ उपस्थित होता है —
नियम भी, पर साथ ही अनिश्चितता भी।
यही अनिश्चितता जीवन को जीवित बनाती है।
जो खेल में उतरता है,
वह जानता है —
जीतना या हारना ही अर्थ नहीं,
खेलना ही अर्थ है।

धर्म, विज्ञान, राजनीति —
ये सब खेल को गंभीरता में बदल देते हैं।
इनमें सब कुछ “योजना” है:
कब जाना है, कहाँ पहुँचना है,
किसे हराना है, क्या हासिल करना है।
पर अस्तित्व की अपनी गति ऐसी नहीं है।
वह किसी लक्ष्य पर नहीं दौड़ता,
वह बस बहता है —
जैसे नदी, जो कभी खुद नहीं जानती
कि उसे कहाँ मिलना है।

मानव ने जब कहा — “हमें चाँद तक पहुँचना है,”
तब भी वह अपनी संभावना का
सिर्फ़ एक अंश छू पाया।
क्योंकि उसकी वास्तविक संभावना
चाँद से लाख गुना आगे है।
जिस तरह खेल की कोई संभावना निश्चित नहीं होती,
वैसे ही जीवन की कोई संभावना तय नहीं होती।

जब मनुष्य साधारण खेल में आनंद पाता है,
तो यह केवल एक संकेत है —
कि उसे अपनी अनंत संभावना की रसना हो चुकी है।
खेल उसका प्रतीक है,
कि वह भीतर से अज्ञात को स्वीकार कर सकता है।

विज्ञान, धर्म और राजनीति
इस अनिश्चितता को नियंत्रित करना चाहते हैं —
वे अस्तित्व को नियम में बाँधते हैं।
पर अनिश्चितता ही सृजन का स्रोत है।
जो निश्चित हो जाता है,
वह मृत हो जाता है।
जीवन की धड़कन ही उसका अनिश्चित होना है।

इसलिए जीवन को समझना
किसी निश्चित परिणाम को पाने का प्रयास नहीं,
बल्कि खेलते रहने की कला है।
जो खेलता है, वही जीवित है।
जो खेल को परिणाम से मापता है,
वह हार गया — चाहे जीता हो।

मनुष्य जब यह मान लेता है
कि उसे क्या बनना है —
राजनेता, वैज्ञानिक, गुरु —
तब वह अपने बनने की प्रक्रिया को रोक देता है।
क्योंकि “लक्ष्य” निश्चितता लाता है,
और निश्चितता रचनात्मकता को समाप्त करती है।

जिसने जीने को लक्ष्य बनाया —
वह हमेशा वर्तमान में होता है।
वह समय के साथ बहता है,
उसके विपरीत नहीं।
वह जानता है कि खेल का कोई अंत नहीं,
बस अनुभवों की एक निरंतरता है।

जो जीवन को खेल की तरह जीता है,
उसके भीतर सृजन की संभावना कभी समाप्त नहीं होती।
वह हर दिन एक नया प्रयोग है,
हर साँस एक नई खोज।
और जिसने अपनी किताब को कोरी रखी है,
वह कुछ अद्भुत लिखने के लिए
अब भी तैयार है।


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जीवन लक्ष्य नहीं, संभावना है।
लक्ष्य वहाँ खत्म होता है जहाँ कल्पना रुक जाती है।
संभावना वहीं शुरू होती है जहाँ मनुष्य कहना छोड़ देता है —
और जीना शुरू करता है।

✍🏻 agyat agyani (अज्ञात अज्ञानी)

#SpiritualWisdom #आध्यात्मिक #धर्म #osho #IndianPhilosoph

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