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आब-ए-तल्ख़ ने आशरा बेशक़ दिया ख़ुमार था मगर ईन होठों सा कहाँ दिया
तुम को जाना है शौक़ से जाओ अब ख़ुशामद नहीं करूँगा मैं.. क्या सबब है मिरी ख़मोशी का शोर थमने दो फिर कहूँगा मैं..
मेरी हसरतों का उन फरेबी फ़ितरतों से रूबरू होना जैसे जिस्म के बाज़ार में तवायफ सी आबरू होना
किसी और जैसे बनने की तलब तुम्हें ले डूबेगी तुम खुद हि खुद में कमाल लगती हो ..
मेरी आँखो के प्याले में यूँ नूर-ए-जाम तुम भर दो बैठों रूबरू और आज क़त्ल-ए-आम तुम कर दो..
वो ग़ज़ल किताब सी मैं शायर बेज़ुबॉं सा.. वो गुलों में गुलाब सी मैं महफ़िल-ए-शराब सा.. वो चासनी सी मीठी मैं दहकते अँगार सा.. वो सावन की बारिश मैं बारिश में आग सा.. वो महंगी सी कॉफ़ी मैं कुल्हड की चाय सा.. वो शोहरत शबाब की मैं आशिक़ मिज़ाज़ सा..
शेर कह कर अदाओं पर हमें ना आज़माने बैठिए, ये दिलजलों की महफ़िल है यहाँ ना दिल लगाने बैठिए
સુકા ભઠ રણમાં વર્ષા બની ભીંજવી ગઈ.. એક લાગણી મને સરકતી સરકતી ખીજવી ગઈ...
हमसे इश्क़ है या नहीं जवाब भी नही देते, हमें इस कशमकश-ए-दहर से आज़ाद भी नहीं करते.. मुझ को तो होश नहीं, हो तुम को ख़बर शायद, लोग कहते हैं तुम इश्क़ में किसी को बरबाद नहीं करते.. मेरी हर साँस है इस बात की शाहिद ऐ मौत, हम रोया तो करते है,अब पत्थरों से फरियाद नहीं करते...
ज़िंदगी यूँ तो नया लफ़्ज़ नहीं है लेकिन, तेरे ना होने का मुझकों मलाल एक तरफ.. मैं तो तेरे बाद सब ही को भूल गया, तेरा भूल जाने का मुझकों मलाल एक तरफ़.. यूँ तो फ़ितरत मेरी भी नहीं याद करता तुझकों लेकिन, तेरे ख़यालो का दिल में आना जाना एक तरफ़... अपनी हस्ती भी एक रोज़ गवॉंं बैठा मैं तु अब भी मुझ में कहीं ज़िंदा है एक तरफ़...
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