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Komal Talati

Komal Talati Matrubharti Verified

@komaltalati4429


आज फिर वही पुरानी खिड़की खोली,
बरसात चुपचाप भीतर चली आई।
हवा ने दुपट्टा सरकाया,
और मैं मुस्कुरा दी,
जैसे कोई भूली-बिसरी याद लौट आई हो।

बूंदें कांच पर थपथपाती रहीं,
जैसे मुझसे बातें करना चाहती हों।
मैंने हथेली आगे बढ़ाकर,
कुछ बूंदें थाम लीं,
कुछ सपने भी भीग गए साथ-साथ।

खिड़की की सलाखों से झांकती मैं,
सुनती रही बादलों की धीमी गुनगुनाहट।
कोई गीत, कोई अधूरी कविता,
जो कभी मैंने ही कहीं लिखी थी शायद,
फिर से मेरे कानों में गूंज उठी।

आज बारिश में बस मैं थी,
ना कोई मंज़िल, ना कोई राह।
बस भीगी खामोशियांं थीं,
और मेरा मन,
जो हर बूंद के संग बहता चला जा रहा था।

कभी खिड़की पर सर टिकाती,
कभी हथेली में बूंदों को समेटती,
कभी आंखों में पुराने मौसमों की परछाइयां सहेजती,
तो कभी मुस्कुराकर खुद को समझाती,
कि शायद
बरसात सिर्फ पानी नहीं लाती,
कुछ अनकही बातें भी बरसाती है।

धीरे-धीरे,
खुद को उसी खिड़की के कोने में सिमटते पाया,
जहां से दुनिया थोड़ी धुंधली दिखती थी,
पर सपने और भी साफ।

आज, बरसात की उस खिड़की के पास,
मैंने फिर खुद से मुलाकात की
भीगी, बिखरी, लेकिन सजीव,
जैसे पहली बार खुद को देखा हो।

बारिश रुकी नहीं,
ना ही मैं।
हम दोनों बस बहते रहे
अपने-अपने अनकहे रास्तों पर,
चुपचाप...
एक-दूसरे को समझते हुए।

©कोमल तलाटी

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