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रिंद हूं, मस्तियों का परस्तार हूं, मुझे दुनिया की रस्मों से क्या वास्ता। हर तरफ़ रंग, हर तरफ़ रौशनी, मुझे तन्हा उजाला नहीं चाहिए। जो बहारें मेरे साथ चल ना सकें, मुझे उन घटाओं से क्या चाहिए। जो छलकते नहीं जाम-ए-दिल की तरह, मुझे उन पियालों से क्या चाहिए। जहां रिंद पर पहरे लगे हैं, वहां, मुझे ऐसी महफ़िल गवारा नहीं। जो लब हंस न पाएं, न आंखें छलकें, वो जाम और महफ़िल दोबारा नहीं। मैं मस्तों का मस्त, मैं ख़ुद में मगन, मुझे क़ैद-ए-साहिल का डर कब रहा। मैं दरिया की मौजों से उलझता रहा, मुझे ख़ौफ़-ए-तूफां का डर कब रहा। कभी आग बनकर भड़कता रहा, कभी ख़ुद को शबनम बना भी दिया। कभी छेड़ दी रागनी बिजलियों की, कभी अपना सुर तेज़ हवा भी दिया। जो कांटे बिछाए मेरी राह में, मैं फूलों सा उन पर बिखर जाऊंगा। जो चाहे बुझाना मेरे हौसले, मैं सूरज की लौ बनके निखर जाऊंगा। जो लपटों में आकर भी जलता नहीं, मैं वो शोला हूं, राख हो जाऊं तो क्यों? जो सर पर उठा ले जहां को ख़ुदी में, मैं वो सैलाब हूं, थम ही जाऊं तो क्यों? मेरे नाम से ज़िक्र-ए-हस्ती रहे, मेरी बातों में ख़ुशबू बसी रह जाए। मैं बहारों की ख़ुशरंग "मोर" तहरीर हूं, मेरी रूहों में रौशन ग़ज़ल रह जाए।
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