Free Lance Writer. Senior Hindi Teacher retired from a Top School of West Delhi. Avid International and Domestic Traveller. Music Enthusiast. Amateur Photographer. Keen for new learning.

कारीगर

मेरा प्यारा साथी, बहुत बड़ा है कारीगर
टूटा-फूटा कर दे ठीक, बड़ा है बाजीगर।
टूटे दिल भी जाने कितने, उसने जोड़े हैं
अनगिनत भ्रमित, रिश्तों के रुख मोड़े हैं।

घर के बर्तन हों, नल, फ़्रिज या हो फ़र्नीचर
कर कर के मरम्मत, दुरुस्त वह कर देता।
चप्पल- जूता कुछ भी हो, प्रतिभाशाली वो
पड़े ज़रूरत तो वस्त्र भी सिलकर दे देता।

जोड़ने का एक द्रव्य, एमसील जो होता है
उस से मेरे मीत की, मानो जन्मों की है प्रीत।
कोई भी सामान हो टूटा, उस से जुड़ जाएगा
मानेगा वो उसको, जैसे सबसे बड़ी है जीत।

अनजाने में टकराया था, प्याले से प्याला
उस टकराने में, चटक गया था एक प्याला।
बजने लगा मन-सितार का द्रुत-लय झाला
न था कोई ग़म, भले छलक गई थी हाला।

सुनके झंकार, अगले ही पल प्रियतम आया
जानके प्याला चटका है, था ख़ूब वो हर्षाया।
बहुत दिनों के बाद, उसे अब काम मिला था
मन-मयूर नाचा, और मुख-कमल खिला था।

मनोयोग से जुट गया था, वह अपने काम में
तपस्वी खो जाए सब भूल, जैसे राम-नाम में।
लैंस से भी दिखती नहीं, बारीक सी दरार है
वह बोला! जुड़ गया देखो, आ गया करार है।

अरे! चटका प्याला तो अब भी चटका है
तुमने तो साबुत प्याले को ही जोड़ दिया।
पूरा हैंडिल तो दरार पर, देखो अटका है
इसको तो तुमने वैसे का वैसा छोड़ दिया।

दोनों प्याले एक दूजे को निहार रहे हैं ऐसे
रोएँ या हँसें ? मन में ये विचार रहे हों जैसे।
अंतत: वे दोनों ही ज़ोर ज़ोर से हँसने लगे।
हँसते - हँसते दोनों ही लोटपोट होने लगे।।
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अभिव्यक्ति - प्रमिला कौशिक
19/2/2023
दिल्ली

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(रचनाकार - प्रमिला कौशिक)

हमसफ़र

मेरा जो हमसफ़र है
मुझे जान से भी प्यारा है।
है उसे भी लगाव मुझसे
जहान में सबसे न्यारा है।

कहीं भी जाए वह
अपने साथ मुझे ले जाता है।
देता है भरपेट भोजन
पीने को भी कुछ दे जाता है।

पूरी-सब्जी, कभी आलू-पराँठे
चिप्स-बिस्कुट मिलते हैं खाने को।
पानी, फ्रूटी, कोकाकोला
तो कभी जूस भी मिलते पीने को।

वस्त्र, मंजन, साबुन, इत्र और
मेरे जूतों का भी वह ध्यान रखे।
कंघा, क्रीम, दवा यहाँ तक
लैपटॉप मोबाइल का भी मान रखे।

बाहर जाने पर वो मेरे
दरवाजे-खिड़की बंद कर देता।
धूल न जाए श्वास तंत्र में
मेरे हित सारे उपाय कर लेता।

लेकिन घर आने पर मेरे
द्वार-झरोखे खोल सब देता।
बिस्तर पर फिर लेट आराम से
साँस मैं भी खुलकर तब लेता।

पैरों में मेरे स्केट्स लगाकर
मुझे सड़क पर नहीं चलाता है।
मेरा सिर अपने कंधे पर रख
कभी हाथ पकड़ ले जाता है।

समझ गए होगे अब तक तो
हमसफ़र का कौन हूँ मैं ?
दिल के करीब कंधे पे लटका
प्रियतम का प्रिय बैग हूँ मैं।।
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22/11/2022
बाज़ार (रचनाकार - प्रमिला कौशिक)

रिश्तों का बाज़ार लगा है
देखो कितना कौन सगा है।
रिश्ते भी सामान हो गए
सस्ते कितने अरमान हो गए।

हर रिश्ते का मोल लगा है
स्वर्णाभूषण दे, ले जाओ यह रिश्ता
खनकते सिक्के दे सकते हो
तो ले जाओ यह कीमती रिश्ता।

हर एक रिश्ते का अनुबंध है कोई
सेवा देकर ख़रीद लो यह रिश्ता।
करो या न करो, दिखाओ प्यार
तो भी बिक जाता कोई भी रिश्ता।

जैसे ही अनुबंध ख़त्म हो जाएगा
हर रिश्ता अपनी मौत मर जाएगा।
जीवन में जो रिश्ता था अनमोल
बस शेष वही रिश्ता रह जाएगा।
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रचनाकार - प्रमिला कौशिक (14 नवंबर 2022)
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बालदिवस की बधाई

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चाचा नेहरू ने दी बच्चों को सौगात
जन्मदिन अपना बालदिवस बनाया।
बालकों की ख़ुशी की न रही सीमा
बालदिवस सबने यूँ हर वर्ष मनाया।

चाचा नेहरू को करते हम धन्यवाद
बालदिवस की सबको ही है बधाई।
खेलो कूदो मौज करो संग मिलकर
जो भी मन भाए खाओ ख़ूब मिठाई।।

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10/11/2022
रचनाकार - प्रमिला कौशिक

पुल

बिन नाव के सबको
पार उतारता था मैं।
पर आज डुबोने का
बदनाम हो गया मैं।
निर्माता ने मेरे, गढ़ा
मुझे था, जी जान से।
मज़बूती से पैर जमाए
खड़ा था मैं शान से।

धीरे-धीरे उम्र मेरी भी
बढ़ती अब जा रही थी।
और शक्ति मेरे तन की
घटती ही जा रही थी।
जैसे बुज़ुर्गों के अंगों की मरम्मत
व प्रत्यावर्तन किया जाता है।
वैसे ही मेरे जीर्णोद्धार का
भी निर्णय लिया जाता है।

एक अयोग्य कंपनी को अब ठेका
जीर्णोद्धार का दे दिया गया था।
पुराने अंगों को मेरे बदलने की बजाय
बस रंग से चमका भर दिया गया था।
सतह को मेरी लकड़ी की बजाय
एल्यूमीनियम से ढक दिया गया था।
इस आवरण से तन मन मेरा
मनों टनों भारी हो गया था।

कैसे सँभालता मैं लोगों का भार
जब अपना ही सँभाल नहीं पा रहा था।
पुल टूटने से मरे बहुत से लोग, और
दोष ईश्वर के मत्था मढ़ा जा रहा था।
जिनके जिम्मे था मेरी मरम्मत का भार
उन्हें दृश्य से ही गायब किया जा रहा था।
बेचारे छोटे छोटे थे जो कर्मचारी निर्दोष
गिरफ्तार उन्हें ही किया जा रहा था।

आख़िर क्यों छूट जाते हैं, रसूखदार दोषी
मेरे देश का ऐसा, यह हाल क्यों है ?
पूछता हूँ मैं सवाल, ऐसे मुद्दों पर
सत्तापक्ष आख़िर, सदा मौन क्यों है ?
* * * * * * * * * * * * * * * * * * *

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दृश्य इतना ख़ूबसूरत लगा कि मैंने कार में बैठे बैठे ही पहले यह फ़ोटो खींचा और फिर भावाभिव्यक्ति ने रच डाली यह छोटी सी कविता।- - -

सुनहरा आँचल
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(रचनाकार - प्रमिला कौशिक)

तारकोल से यह बना रास्ता
लगता था काला साया सा।
सूरज ने अपनी किरणों से
आँचल सुनहरा फैलाया सा।

अब तो प्रतीत होता है ऐसा
ज्यों नदी बह रही सोने की।
सूरज की प्यारी धरती की हो
ज्यों चाह पिया में खोने की।

सूरज का सुंदर मुखड़ा देखो
निहार धरा को कैसे मुस्काए है।
नज़रों से नज़रें मिलने पर
स्मित वसुंधरा कैसे लजाए है।

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रेलगाड़ी... भावों की
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रेलगाड़ी
भावों की
चलने लगी
अनेक दृश्य
अच्छे - बुरे
कई स्टेशन
गाँव - शहर
छोटे - बड़े
रुकती है
चलती है
इंजन भी
बदलती है।

भावों की
रेलगाड़ी
तेज़ है
रफ़्तार।
छुक छुक
छुक छुक
चलती ही
जाती है।
कविता में
बदलती है।

दुःख है
सुख भी है
करुणा है
स्नेह है
शांत भी है
क्रोध भी है
बच्चों सा
वात्सल्य भी
ईर्ष्या भी है
द्वेष भी है
घृणा का
है भाव भी

बातें घर की
परिवार की
समाज की
देश की भी
देश की
राजनीति भी।
समेटे ख़ुद में
सारे राहगीर
चलती ही
जाती है।
भावों की
रेलगाड़ी
चली तो
चलती ही
जाती है।

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अभिव्यक्ति - प्रमिला कौशिक

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पिता
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आज के संदर्भ में पिता,
नहीं रह गया केवल पिता।
बच्चों को ज़िंदगी जीना सिखाता,
एक शिक्षक है पिता।
ग़लत राह पर जाने से बचाता,
राह दिखाता, मार्गदर्शक है पिता।

एक मित्र की तरह साथ बैठकर,
सवालों के जवाब तलाशता,
दोस्त है पिता।
कंधे पर हाथ धर,
संबल बनता है पिता।
निराश बालक में संचार
आशा का करता, प्रेरक है पिता।

हर तरह के झंझावातों से,
सुरक्षित निकाल लाने वाला,
संरक्षक है पिता।
सही-ग़लत की पहचान कराने वाला,
नीर-क्षीर विवेकी है पिता।
बच्चों को मानसिक और शारीरिक,
शक्ति प्रदान करने वाला है पिता।

हर कदम पर साथ चलने वाला,
सहचर है पिता।
पालन-पोषण करने वाला,
पालक और पोषक है पिता।
पिता को कभी भी कम न आ़कें,
बालक का भाग्य-विधाता है पिता।।
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रचनाकार - प्रमिला कौशिक

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रचनाकार - प्रमिला कौशिक (21/4/2022)
रोबोट
* * * *
बुलडोज़र नहीं रोबोट है यह
निर्माता जिसका है मानव।
रिमोट हाथ में उसके ही है
बना दिया उसको है दानव।

निर्माण हेतु बनाया था जो
पर कर रहा विध्वंस है।
नियम कानून ताक पर रख
चलाया जा रहा नृशंस है।

रिमोट का दबाकर बटन
चाहे जिधर मुख मोड़ दो।
भेज कर इस दैत्य को
किसी का भी घर तोड़ दो।

विडंबना कैसी है देखो
दैत्य बन गया गुलाम है।
कठपुतली सा वह घूमता
इशारों पर वो सरेआम है।।
* * *

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दादाजी--- (रचनाकार - प्रमिला कौशिक)
- - - - - - (14 अप्रैल 2022)

दादाजी आप दादाजी न रहे
आप गांधारी क्यों बन गए ?
धृतराष्ट्र की तो विवशता थी
आप यूँ अंधे क्यों बन गए?

आप रोज़ शाम को बैठकर
सबकी शिकायतें सुनते थे।
प्रेम से सबमें मेल कराकर
निष्पक्ष न्याय तब करते थे।

कितना कुछ घट रहा है घर में
अब क्यों न आप कुछ कहते हैं?
गूँगे अंधे बहरे बनकर अपंग से
किसविध अनाचार यूँ सहते हैं?

दादाजी, पक्षपात करते करते
पापा अब तानाशाह हो गए।
बच्चे तो हम सब हैं उनके ही
क्यों वे एक पक्षधर हो गए ?

भैया का हर दोष माफ़ क्यों ?
मुझको ही पीटा जाता क्यों ?
भैया का हर क़त्ल माफ़ क्यों ?
मेरा घर तोड़ा जाता क्यों ?

काले गोरे में भेदभाव क्यों
लंबे नाटे में भेदभाव क्यों ?
आपस में हैं लड़वाते क्यों ?
सबमें नफ़रत फैलाते क्यों ?

पापा ने दरारें खींची मन में
सब कुछ यहाँ छितर गया है।
कितना सुंदर घर था हमारा
देखो! अब कैसे बिखर गया है।

पापा ने कुछ बेटों के हाथ थमाए
धार्मिक आडंबर के अमोघ अस्त्र।
एक अजान का एक हनुमान का
दोनों ही ओर से चल रहे शस्त्र।

दोनों दिशाओं से आते, टकराकर
काश ये अस्त्र भी निरस्त हो जाते।
किसी का न होता बाल भी बाँका
सब अस्त्र शस्त्र जब पस्त हो जाते।

पापा ने अपनी ही संतानों में
फैलाया जो यह धर्मोन्माद।
शायद वे जान नहीं पाए हैं
कर देगा वह सबको बर्बाद।

अपने ही बच्चों को बताओ भला
कौन पिता यूँ लड़वाता है ?
कैसे कहलाएगा वह इंसान भला
जो अपना ही घर जलवाता है।

दादाजी, आपसे ही थी उम्मीद
नीर क्षीर विवेकी आप ही थे।
कोई भी समस्या आती घर में
सबका समाधान आप ही थे।

पट्टी आँखों पर बाँध कर
यदि अंधे बन जाएँगे आप।
होठों को सी, कानों को ढक
मूक बधिर बन जाएँगे आप।

तो तहस नहस हो जाएगा घर
न पापा बचेंगे, न आप और हम।
तमाशबीन दुनिया करेगी अट्टहास
हमारा खेल ख़त्म और पैसा हजम।

अपंगता का मुखौटा उतारिए
अत्याचारों से हमें उबारिए।
दादाजी फिर से हुंकार भर
शक्ति का मंजर दिखाइए।

विक्रमादित्य के सिंहासन पर
फिर एक बार आप विराजिए।
न्याय प्रिय हैं आप आज भी
संसार को यह बता दीजिए ।।

सबकी खिलखिलाहटों से
घर हमारा फिर गुंजायमान हो।
पहले सी प्रेम सरिता
दिलों में अनवरत प्रवहमान हो।

कानून तोड़ने की हिम्मत न हो
किसी की, कुछ ऐसा वर दो।
महत्व न्याय का परिवार समझे
दादाजी, कुछ ऐसा कर दो।
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