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बहुत पहले… जब कोई भाषा नहीं थी, ना शब्द, ना विचार — केवल प्रकृति का मौन संगीत था, जहाँ हर वृक्ष, हर जलधारा, हर पक्षी अपने नियमों में निहित सत्य जी रहे थे। वहीं, उस मौन में ही नैतिकता का पहला बीज पड़ा — संतुलन का बीज, सामंजस्य का बीज। प्रकृति ने सिखाया — “अधिक मत लो जितनी ज़रूरत है।” “जो टूटे, उसे पुनः जोड़ो।” “जो मिला है, बाँट दो।” वह नियम नहीं थे, वे जीवन की सहज लय थे।
परंतु सत्य अब भी गहरा है मनुष्य अपने विवेक पर गर्व करता है, पर प्रकृति मुस्कराती है — क्योंकि उसने करुणा पहले ही रच दी थी हर श्वास, हर हृदय में।
मनुष्य आया — और नैतिकता को भाषा मिली फिर मनुष्य आया — जिसने देखा, सोचा, और प्रश्न किया। उसने करुणा को “मूल्य” कहा, सहयोग को “धर्म” कहा, और अपने भीतर की संवेदना को नैतिकता का नाम दिया। अब वही करुणा चिंतन बन गई, वही सहज सहयोग विवेक बन गया।
मौन में करुणा की पहली साँस जब पृथ्वी पर पहली बार जीवन ने आँखें खोलीं, तब न शब्द थे, न भाषा — सिर्फ़ संवेदना थी। हवा की ठंडक, सूरज की ऊष्मा, भूख और सुरक्षा की चाह, यहीं से शुरू हुआ नैतिकता का प्रथम संगीत — जीवन का एक-दूसरे के प्रति मौन उत्तरदायित्व।
🦋जीवन की धड़कनों में करुणा की झलक जैसे-जैसे जीवन बढ़ा — काई से पेड़, पेड़ से पशु, पशु से मानव, वैसे-वैसे एक अदृश्य भाव भी बढ़ता गया — सहयोग, करुणा, संरक्षण। हाथी अपने मृत साथियों के पास ठहरते रहे, डॉल्फिन ने घायल साथी को ऊपर उठाया, मां-पक्षी ने घोंसले में अपने बच्चे को ढँका बारिश और शिकारी दोनों से। यहीं थी प्राकृतिक नैतिकता की धड़कन, जो शब्दों से पहले ही कर्म में जीवित थी।
🌱 मौन में करुणा की पहली साँस जब पृथ्वी पर पहली बार जीवन ने आँखें खोलीं, तब न शब्द थे, न भाषा — सिर्फ़ संवेदना थी। हवा की ठंडक, सूरज की ऊष्मा, भूख और सुरक्षा की चाह, यहीं से शुरू हुआ नैतिकता का प्रथम संगीत — जीवन का एक-दूसरे के प्रति मौन उत्तरदायित्व।
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