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( गड्डा वहीं का वहीं है) ठेके से संसद तक, धर्म से दारू तक, और मुद्दे से माया तक! चलो, पेश है विस्तार में: "व्हिस्की, धर्म और गड्ढे की राजनीति" (एक व्यंग्य कविता) गुंडा बोला, "व्हिस्की पे आओ, बात बड़ी गहरी है," गिलास में बर्फ डाली, बोला—"आज चर्चा जरूरी है।" मुद्दा था मोहल्ले का गड्ढा, जिसमें बच्चा गिर गया, पर बहस चली धर्म पे, और गड्ढा वहीं रह गया। "धर्म क्या है?" उसने पूछा, कट्टा कमर पे टंगा था, "मैं तो रोज मंदिर जाता हूँ, पर टैक्स नहीं भरा कभी!" दूसरे ने टोका—"धर्म नहीं, कर्म देखो भाई," तीसरे ने कहा—"पहले दारू खत्म करो, फिर ज्ञान की बात आई।" ठेके के पीछे बैठ, संविधान की व्याख्या हुई, "धारा 370 हट गई, पर ठेके पे लाइन क्यों नहीं घटी?" एक बोला—"जाति व्यवस्था खत्म होनी चाहिए," दूसरा बोला—"पहले मेरी बोतल तो भरवा दीजिए!" गड्ढा अब भी वहीं था, बच्चे अब भी गिर रहे थे, पर चर्चा में सब व्यस्त थे, जैसे संसद चल रही हो। "मंदिर बनना चाहिए!" एक चिल्लाया, बोतल हवा में लहराई, "पर स्कूल का क्या?" कोई बोला, तो सबने नजरें चुराई। "नेता लोग चोर हैं!" सबने एक सुर में कहा, फिर उसी नेता की पार्टी का झंडा जेब से निकला। "देश बदलना है!" नारा लगा, व्हिस्की का दौर चला, गड्ढा, धर्म, नेता, सब बहस में थे — पर समाधान कहीं फिसला। आख़िर में गुंडा बोला—"तू समझदार है, चल एक और पैग हो जाए," "मुद्दे कल देखेंगे, आज तो बस विचारों की बहार हो जाए!" और इस तरह ठेके की संसद में, देश की दशा तय हुई, गड्ढा वहीं रहा, पर चर्चा में क्रांति आ गई (यह पंक्ति तो जैसे भारतीय लोकतंत्र की विडंबनाओं पर एक तीखा कटाक्ष है। आइए इसे विस्तार से व्यंग्यात्मक लेख के रूप में ढालते हैं:) 🏛️ संसद में ठेके की चर्चा और गड्ढे की क्रांति: एक लोकतांत्रिक व्यंग्य देश की संसद में जब ठेके की बात उठी, तो लगा जैसे राष्ट्र निर्माण की नींव सीमेंट से नहीं, ठेकेदारों की बोली से तय हो रही हो। "गड्ढा वहीं रहा, पर चर्चा में क्रांति आ गई" — यह पंक्ति केवल सड़क की हालत नहीं, बल्कि व्यवस्था की मानसिकता का आईना है। 🧱 गड्ढे का स्थायित्व बनाम चर्चा की गतिशीलता गड्ढा वर्षों से वहीं है — सड़क पर, व्यवस्था में, और शायद सोच में भी। लेकिन संसद में जब उस पर चर्चा होती है, तो ऐसा लगता है जैसे देश की आत्मा हिल गई हो। सांसदों की आवाज़ें गूंजती हैं, टीवी चैनलों पर बहसें होती हैं, और सोशल मीडिया पर मीम्स की बाढ़ आ जाती है। लेकिन गड्ढा? वह तो वहीं का वहीं। 🍽️ ठेके की राजनीति: विकास का नया स्वाद अब ठेके केवल निर्माण के लिए नहीं होते — वे विचारधारा, नीतियों और यहां तक कि नैतिकता के लिए भी दिए जाते हैं। कौन कितना ऊंचा बोलेगा, किसे कितनी बार वॉकआउट करना है, और किस मुद्दे पर कितनी देर तक मौन रहना है — सब कुछ ठेके पर तय होता है। संसद अब नीति निर्माण का मंच नहीं, बल्कि एक बोली का बाजार बन गई है। 🎭 क्रांति का अभिनय जब चर्चा में क्रांति आती है, तो लगता है जैसे देश बदलने वाला है। लेकिन यह क्रांति असली नहीं, अभिनय है। जैसे किसी नाटक में पात्र गुस्से से चिल्लाते हैं, वैसे ही संसद में भी क्रांति का अभिनय होता है — स्क्रिप्ट तैयार, संवाद तय, और कैमरे ऑन। जनता ताली बजाती है, लेकिन गड्ढा फिर भी नहीं भरता। 🪤 जनता की भूमिका: दर्शक या भागीदार? जनता इस तमाशे की दर्शक है — कभी हँसती है, कभी गुस्सा होती है, लेकिन अंततः उसी गड्ढे में गिरती है। उसे बताया जाता है कि चर्चा हो रही है, समाधान आएगा, लेकिन हर बार वही वादा, वही गड्ढा, और वही ठेकेदार। --- देश की दशा अब ठेके की चर्चा से तय होती है। गड्ढा चाहे सड़क पर हो या सोच में, वह स्थायी है। लेकिन संसद में क्रांति की चर्चा चलती रहेगी — क्योंकि लोकतंत्र में अभिनय भी एक अधिकार है।
( गड्डा वहीं का वहीं है) ठेके से संसद तक, धर्म से दारू तक, और मुद्दे से माया तक! चलो, पेश है विस्तार में: "व्हिस्की, धर्म और गड्ढे की राजनीति" (एक व्यंग्य कविता) गुंडा बोला, "व्हिस्की पे आओ, बात बड़ी गहरी है," गिलास में बर्फ डाली, बोला—"आज चर्चा जरूरी है।" मुद्दा था मोहल्ले का गड्ढा, जिसमें बच्चा गिर गया, पर बहस चली धर्म पे, और गड्ढा वहीं रह गया। "धर्म क्या है?" उसने पूछा, कट्टा कमर पे टंगा था, "मैं तो रोज मंदिर जाता हूँ, पर टैक्स नहीं भरा कभी!" दूसरे ने टोका—"धर्म नहीं, कर्म देखो भाई," तीसरे ने कहा—"पहले दारू खत्म करो, फिर ज्ञान की बात आई।" ठेके के पीछे बैठ, संविधान की व्याख्या हुई, "धारा 370 हट गई, पर ठेके पे लाइन क्यों नहीं घटी?" एक बोला—"जाति व्यवस्था खत्म होनी चाहिए," दूसरा बोला—"पहले मेरी बोतल तो भरवा दीजिए!" गड्ढा अब भी वहीं था, बच्चे अब भी गिर रहे थे, पर चर्चा में सब व्यस्त थे, जैसे संसद चल रही हो। "मंदिर बनना चाहिए!" एक चिल्लाया, बोतल हवा में लहराई, "पर स्कूल का क्या?" कोई बोला, तो सबने नजरें चुराई। "नेता लोग चोर हैं!" सबने एक सुर में कहा, फिर उसी नेता की पार्टी का झंडा जेब से निकला। "देश बदलना है!" नारा लगा, व्हिस्की का दौर चला, गड्ढा, धर्म, नेता, सब बहस में थे — पर समाधान कहीं फिसला। आख़िर में गुंडा बोला—"तू समझदार है, चल एक और पैग हो जाए," "मुद्दे कल देखेंगे, आज तो बस विचारों की बहार हो जाए!" और इस तरह ठेके की संसद में, देश की दशा तय हुई, गड्ढा वहीं रहा, पर चर्चा में क्रांति आ गई
खुद को तलाश करते लोग घने कोहरे में धुंधला होता सूरज, जैसे किसी की पहचान धुंधली पड़ जाए, हर चेहरे पर हज़ार कहानियाँ, और हर कहानी अधूरी, एक ख़्वाहिश, खुद को पूरी करने की। रात के सन्नाटे में चलते वो कदम, जैसे हर कदम पर एक नई पहचान खोज रहे हों। हर मोड़ पर एक नया सवाल, "क्या मैं वही हूं, जिसे मैं ढूंढ़ रहा हूं?" सवालों के जंगल में खो जाते इंसान, अकेले, पर अपने-अपने बोझ तले दबे। गहराई में एक खालीपन, जैसे समुद्र का पानी हो, पर पानी के अंदर का सूनापन हर लहर में। हर सांस में उम्मीद का एक तिनका, पर हर तिनका टूटता हुआ, फिर भी अडिग, फिर भी अटल। सपनों की धुंध से गुजरते हुए, हकीकत की रोशनी की खोज, पर क्या हकीकत और सपना अलग हैं? क्या खुद को ढूंढ़ते हुए हम उससे और दूर जा रहे हैं? वो आंखें जो दर्पण में देखती हैं, क्या केवल सतह को देखती हैं या भीतर के तूफान को भी पहचानती हैं? भीतर का वो शोर, जो सन्नाटे में छिपा है, क्या वो भी कोई कहानी कहता है? पर शायद यही तलाश, यही सफर खुद को जानने का असली मतलब है। हर गिरावट, हर चोट, हर मुस्कान और हर आंसू हमें खुद के और करीब ले जाते हैं। खुद को पाना मंजिल नहीं, यह तो सफर है, जो हर दिन चलता रहता है, हमारी सोच, हमारी कल्पनाओं, और हमारी इंसानियत के साथ। क्या यह आपको भी किसी गहरी सोच में ले जाता है?
कुत्ते क्यों नहीं हँसते? लोग कहते हैं जानवर आदमी से पीछे हैं विकास शृंखला मे,क्यों? ज्ञात हो कि आदमी मे सात हजार करोड़ nerves/neurons होती हैं , जानवर ( उदाहरण के लिए कुत्ते) मे पचास करोड़ के लगभग) ज्यादा nerve मतलब ज्यादा इच्छाएं क्योंकि कुत्ते न तो हंस सकते हैं,न गा सकते हैं,पर बेसिक जरूरत के लिए काफी साधन दिये उसको प्रकृति ने। अब आदमी पे आते हैं आदमी मे ही करोडो इच्छा क्यो होती हैं? हमारा central nervous system ही राज है इसमे लाखो करोड़ों nerves हैं (ऊपर बताया है) स्वाद,प्राजनंन आदि के सिस्टम विचलित होते हैं किससे? Stimulus से हो समाज,परिवेश से मिलता है तो करोडो अरबों इछाएँ उनके लिए सही गलत उपाय अपनाना फिर सही है तो ठीक है गलत है तो कर्म बंधन ,(न्याय प्रणाली आदमी के लिए हैं ,न कि जानवरों के लिए) या न्याय का बंधन ,जेल,जुर्माना आदि यूँ ही चलता इच्छाओं का यह बंधन या सिस्टम आदमी को ईश्वर की चाहत है,जानवरों को नहीं सिस्टम ऐसा दिया गया हमें (इसके लिए ही लगता है विकसित nervous सिस्टम भी दिया गया होगा जो व्यर्थ की इच्छाओं से दूर ही रहे तो बेहतर होगा,यह मुझे लगता है)
नेपाल का एक सरकारी प्रतिनिधि मंडल भारत आया..उसमें एक व्यक्ति का परिचय समुद्री परिवहन मंत्री के रूप में करवाया गया.. भारतीय प्रतिनिधि ने पूछा - आपके पास तो कोई समुद्र ही नहीं है, फिर समुद्री परिवहन मंत्री क्यों? नेपाली प्रतिनिधि ने जवाब दिया- आपके देश में भी तो कानून और न्याय मंत्री है, हमने तो कभी पूछा क्या कि.. क्यों? 😆😆😆🤦 साभार.. ट्विटर
क्या मैं खुद को जानता हूँ? या इस प्रश्न का उत्तर स्वयं ही एक भ्रम है, एक भ्रम की परिभाषा। दर्पण में जब देखता हूँ, क्या वह मेरा प्रतिबिंब है? या एक अनजानी छवि, जिसे समय ने आकार दिया है। सवाल क्यों है? क्या प्रश्नों की गहराई में मेरे अस्तित्व का बोध छुपा है? या यह केवल शब्दों का खेल है, मुझे उलझाने वाला। मैं कौन हूँ, शरीर, मन, आत्मा? या यह सब एक साथ, किसी विराट सत्य का छोटा हिस्सा। जीवन की धारा में, जब समय बहता है, कहीं मैं भी बह रहा हूँ, जैसे पत्ते पानी पर। क्या जानना आवश्यक है, या यह यात्रा ही सत्य है? हर कदम, हर मोड़, मेरे होने का प्रमाण।
बिल्कुल, नकली गुरुओं और कठमुल्लों से सावधान रहने पर हास्य-व्यंग्य कविता प्रस्तुत है: नकली गुरु और कठमुल्ले गाँव-शहर में गूंजे धुन, नकली गुरुओं का बड़ा जमावड़ा, फर्क न पहचाना, सच और झूठ में, सबको हुआ बड़का धोखा। गुरुजी के प्रवचन, मीठे जामुन, पर असलियत कड़वी खीर, ज्यों ही सबको लगे एहसास, सबने अपना माथा पीट लिया ज़ोर-ज़ोर से, रीर-रीर। कठमुल्ला भी क्या कम, अपनी बातों का चलता है धंधा, कभी लड्डू, कभी मिठाई, कभी बनवा दे नई गढ़िया। धर्म के नाम पर बेचते हैं ये रंग-बिरंगे सपने, पर असलियत की दुनिया में ये बस हैं चमकीले झूठ के घड़े। गुरुजी के आश्रम में, सोना-चाँदी का मेला, पर साधारण जनते, रात-दिन खींचते मेहनत का गेला। गुरुजी की कथाओं में, न जानें कितने रस, पर सच पूछो तो, सब कुछ है धोखे का खेल, और बेवकूफी का जस। कठमुल्ले की बातें, आग में घी का काम करें, लोगों को उलझा दें, और खुद ताज पहनें। धर्म के नाम पर, बाँटे ये नफरत की चिंगारी, लोगों को लड़वा दें, और खुद खाएं मलाई सारी। गुरुजी की गाड़ी बड़ी, भक्तों की जिंदगी छोटी, गुरुजी के भवन मंहगे, पर भक्तों की टूटी खाटी। कठमुल्ले की टोपी ऊँची, पर दिल बिलकुल खाली, धर्म के नाम पर खेलें ये खेल, और मासूम जनता जाए ठाली। सावधान रहो, दोस्तों, इन नकली गुरुओं से, जो सोना समझ कर बेचें रेत, और आप नाहक ही लड़े कुबेर से। ध्यान लगाओ, असली सद्गुरुओं पर, जो सिखाएं सच्ची राह, जिनकी बातें हों सच्ची, और जिनमें न हो कोई खोट, कोई बाह। कठमुल्लों के जाल से भी रहो दूर, जो नफरत की खेती करें, और बांटें झूठा गुर। सच्चे धार्मिक गुरुओं को पाओ, जो प्रेम और शांति फैलाएं, और जीवन की सच्ची राह पर हमें चलाएं। **तो चलो उठें, जागें, और समझें इस खेल को, सावधान रहें नकली गुरुओं और कठमुल्लों के झमेले से, और पाएं सच्ची राह, सच्चे मेल से।** आशा है आपको यह हास्य-व्यंग्य कविता पसंद आएगी! 😊📜✨
, सफ़लता और जलेबी पर एक हास्य-व्यंग्य कविता प्रस्तुत है: सफ़लता और जलेबी का मोल सफ़लता कोई जलेबी नहीं, जिसको चूसें आप, ये मीठा-मसालेदार अनुभव है, जो बनाए आपको लाजवाब। जलेबी की तरह गोल-गोल, घूमता है इसका रास्ता, कभी मीठा तो कभी तीखा, हर मोड़ पर नए चौंका। जलेबी की मिठास पर मत जाना, सफ़लता का है अलग ही फसाना, यह मेहनत और परिश्रम का है नतीजा, चुस्की नहीं, पूरा है जंग का मजा। चाशनी में डूबी जलेबी जब तक चूसे, पर सफ़लता चूसने से नहीं आती, यह तो संघर्ष और हिम्मत का परिणाम है, जो हर दिन का संघर्ष बताती। जलेबी का स्वाद तुरंत मिलता, पर सफ़लता का स्वाद धीरज मांगता, यह किसी दुकान की चीज़ नहीं, यह तो समय और साधना का फल है। जब आप सफ़लता की चाह में निकल पड़ते, तो जलेबी की तरह ना मुड़ें वापस, रास्ते में आएं कांटे, तो उन्हें चूसें नहीं, बल्कि मेटल का मन बनाएं आप। सफ़लता कोई जलेबी नहीं, यह तो मेहनत का मीठा फल है, यह चूसने से नहीं मिलता, यह तो पसीने की बूंदों में पलता है। जब आप सफ़लता की राह पर चलते, तो जलेबी की मिठास को भूलें, क्योंकि यह सफ़र है तपस्या का, जिसमें आपको संघर्ष को अपनाना होगा। जलेबी की खुशबू तो हर कोई पसंद करता, पर सफ़लता का रास्ता हर कोई नहीं पकड़ता, क्योंकि यह तो मेहनत का फल है, जिसे पाने में समय लगता। तो सफ़लता को चूसने की न सोचें, यह कोई जलेबी नहीं, यह तो मेहनत, धीरज, और संकल्प का मोल है, जिसे पाने में लगेगी पूरी ताकत आपकी। जलेबी की मिठास का मजा लें, पर सफ़लता की चाह में डूबें, यह मीठा फल तभी मिलेगा, जब आप मेहनत में पूरी तरह से झूमें। बिल्कुल, आइए इस विचार को विस्तार से समझते हैं: ### जलेबी का स्वाद जलेबी का स्वाद एक अद्वितीय मिठास से भरा होता है। इसे बनाने में कुछ ही समय लगता है और इसे खाते ही हमें तुरंत संतुष्टि मिलती है। जलेबी की मिठास का आनंद लेते हुए हम तुरंत उसके रस में डूब जाते हैं। यह एक तात्कालिक सुख का प्रतीक है, जिसे हम बिना किसी विशेष प्रयास के प्राप्त कर सकते हैं। जलेबी की मिठास को चखते ही हमें एक अद्वितीय अनुभव होता है, जो हमें तुरंत खुशी और आनंद से भर देता है। ### सफ़लता का स्वाद सफ़लता का स्वाद बिल्कुल अलग होता है। यह एक धीमी और संघर्षपूर्ण प्रक्रिया होती है, जिसमें समय और धैर्य की आवश्यकता होती है। सफ़लता के लिए हमें लगातार मेहनत और परिश्रम करना पड़ता है। यह किसी दुकान में मिलने वाली चीज़ नहीं है जिसे हम तुरंत खरीद सकते हैं। सफ़लता के लिए हमें निरंतर प्रयास और धैर्य की आवश्यकता होती है। ### समय और साधना का फल सफ़लता वास्तव में समय और साधना का फल है। इसे पाने के लिए हमें अपने लक्ष्य पर दृढ़ता और समर्पण के साथ कार्य करना होता है। सफ़लता के मार्ग पर हमें कई बार असफलताओं और चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, लेकिन हमें हार मानने की बजाय अपने प्रयासों को जारी रखना चाहिए। सफ़लता का स्वाद उन लोगों को ही मिल सकता है जो समय और साधना में विश्वास रखते हैं। ### सफ़लता और जलेबी की तुलना जलेबी और सफ़लता की तुलना हमें यह सिखाती है कि जबकि जलेबी की मिठास को हम तुरंत पा सकते हैं, सफ़लता की मिठास को पाने में हमें समय, धैर्य, और कठिन परिश्रम करना होता है। यह विचार हमें याद दिलाता है कि जीवन में तुरंत खुशी और संतुष्टि के लिए हमें तात्कालिक सुख से परे जाकर दीर्घकालिक लक्ष्यों की ओर ध्यान देना चाहिए। **जलेबी की मिठास को चखने का आनंद लें, लेकिन सफ़लता की मिठास को पाने के लिए समय और साधना में लगे रहें।** सफ़लता की यात्रा में जो धैर्य और समर्पण लगता है, वही उसकी असली मिठास को और भी खास बनाता है। आशा है कि इस विस्तार से विचार करने पर आपको यह अवधारणा और भी गहराई से समझ आई होगी। 😊📜
लगा के आग शहर को, ये बादशाह ने कहा, उठा है दिल में आज तमाशे का शौक़ बहुत झुका कर सर, सभी शाहपरस्त बोल उठे हुज़ूर का शौक सलामत रहे शहर हैं और बहुत.” आभार.. ट्विटर
प्यार की मृगतृष्णा प्यार की मृगतृष्णा, एक सपना अनजाना, दिल की गहराइयों में, बसा एक अफसाना। आँखों में चमकती, वो एक झलक प्यारी, पर हाथों से फिसलती, जैसे रेत की धारा। हर कदम पर लगता, अब मिल जाएगा, पर पास आते ही, वो दूर हो जाता। दिल की धड़कनों में, बसी उसकी तस्वीर, पर हकीकत में, वो बस एक तसवीर। चाँदनी रातों में, उसकी यादें जगाती, पर सुबह होते ही, वो धुंधली हो जाती। प्यार की मृगतृष्णा, एक अनजानी राह, जिसे पाने की चाह में, दिल हो जाता तबाह।
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