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हाँ औरते बहोत बातुनी होती है क्यूंकी बहोत बोलती है ये औरते फूर्सत मिलते ही बस शुरु हो जाती है सहेलीसे,पडोसन तक,मायकेसे ससुराल तक रस्तेपे,चौकमे,दुकानसे आॕफिस तक इनकी जुबांन चलती ही रहती है ये बोलती है धूप से लेकर छाँव तक अडोस पडोस के गाँव तक महंगाई के दाम पर बर्तनवाली के काम पर ये बोलती है चुनाव के नतीजे पर चचेरे,ममेरे भतीजे पर बच्चोंके पढाई पर सास-ससुर की लडाई पर ये बोलती है सब्जीके बढते भाव पर नदी में चल रही नाव पर देश से लेकर विदेश तक मेकअपसे लेकर बदलते भेस तक ये बोलती रहती है और बस बोलती ही रहती है ये नही बोलती तो बस, खुदपर ये नही कह पाती उन सपनोंपर जो आखोंमे आकर, बस बूंदे बनकर छलक जाते है ये नही कह पाती उन अरमानोंपर जो बचपन से मनमे सजाकर भी बस दिलमेंही दबकर रह जाते है हा ये औरते बोलती नही बस चूप रह जाती है अपनी आवाज दबाकर खामोश रह जाती है आखिर खामोश होना भी तो औरत होना है है ना ?? सविता सातव 30-12-22
उंबरठा असंख्य हुंदके,उमाळे दाबले जातात शब्द आतल्या आत गोठले जातात वेदनेचा महापूर अडवले जातात उंबरठ्याच्या आत इच्छा,आकांक्षा दूर लोटल्या जातात कवितांची पाने मिटली जातात स्वप्नांचे पंख अलगद छाटले जातात उंबरठ्याच्या आत खरा चेहरा लपवला जातो मुखवटा खोटा चढवला जातो आवाज अंतःकरणातील दडवला जातो उंबरठ्याच्या आत खोट सहज खपवल जात डोळ्यातील पाणी लपवल जात अपमानाच विष पचवल जात उंबरठ्याच्या आत काय काय अन किती किती हिच तिच अन तुझ माझ असच सहज सुटत जात एक एक पान मिटत जात उंबरठ्याच्या आत सविता सातव २२-७-२०२१
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