स्वयं का लगाया नागफनी भी गुलाब लगता है

(भाग-2)

घर जाते समय छुट्टी में चिल्ला-चिल्लाकर मेरा अपमान करना या मुझ पर हँसना आम हो गया था। उनके चुभते शब्द कभी मुझे दुःखी करते, तो कभी मुझे रुला दिया करते थे.. और उनके लिए सामान्य बात थी.. मगर मेरे लिए यह सब सामान्य नहीं था। अब लेशन रीड करने के नाम से ही मैं बहाने बनाने लगती.. मैं प्रार्थना करती की मेरा नम्बर आने से पहले ही क्लास ख़त्म हो जाए। याद होते हुए भी सवालों का जवाब देना मुझे बहुत मुश्किल लगने लगा था और सच कहूँ तो मुझे स्कूल जाने के नाम से ही रोना आने लगता था। कभी-कभी ना जाने का बहाना भी बना दिया करती थी, मगर ऐसा रोज नहीं हो सकता था। धीरे- धीरे मेरा मनोबल कम होने लगा। जैसे-जैसे मेरा मज़ाक बनना बढ़ता गया वैसे-वैसे मेरा आत्मविश्वास दम तोड़ने लगा। ना मुझे खेलना अच्छा लगता था और ना ही किसी से बात करना। बहुत कोशिशों के बाद भी मैं गुमसुम रहने लगी। मैं स्कूल नहीं जाना चाहती थी.. शायद कभी नहीं! रोज-रोज स्वयं का अपमान सहन करना किसी के लिए भी मुमकिन नहीं होता। मुझे परेशान करने वाले बच्चे ना तो पढ़ाई में अच्छे थे और ना ही किसी अन्य गतिविधि में।
मगर स्वयं का लगाया नागफनी भी गुलाब लगता है।
एक दिन क्लास के बाद अलग बुलाकर एक सर ने मुझसे सवाल किया "आप तुतलाते हो"?.. मैंने कोई जवाब नहीं दिया बस मुस्कुरा दी.. हाँ! मगर आँखें भीग चुकी थी। तब तक उन्हें मेरी सहेली ने जवाब दिया.. नहीं!
मुझे नहीं पता उसने झूठ क्यों कहा.. ना मैंने पूछा। मगर उस वक़्त मेरे लिए यह दुनिया का सबसे ख़ूबसूरत झूठ था।
मैं दुःखी थी.. बहुत अधिक दुःखी। अधिक दुःख आँखों को बर्दाश्त नहीं होता। परिणामस्वरूप मैं घर पहुंचते ही रोने लगी। अब घर पर सबको पता चल गया था। सबने अपनी-अपनी तरह से समझाया। किसी ने कहा वो उस शैतान बच्चों को डांटेंगे तो किसी ने कहा मैं तुतलाती नहीं हूँ केवल ग़लत बोलती हूँ.. मगर ऐसे सुकून कहाँ मिलना था। जब पापा जी आए तो उन्होंने मेरा चेहरा देख उदासी को भाँप लिया और बहुत प्यार से पूछा.. "किसी से लड़ लिए क्या"?
बस फिर क्या था मैंने रोते-रोते हिचकियों में सारी बात पापाजी को बता दी। उन्होंने हँसकर कहा.. "अरे! इतनी सी बात.. कल हम स्कूल चलेंगे"!
मगर मैंने उनको मना कर दिया। कभी-कभी प्यार ही सब दुःख हर लेता है। मेरा मनोबल बढ़ाने के लिए और मेरे ख़त्म हो रहे आत्मविश्वास के लिए उनका इतना कहना ही बहुत था।
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क्रमशः

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