"तुम लड़की हो, तुम नहीं कर सकती..."
कहा था किसी ने मुझे देखकर एक रोज़,
"तुम लड़की हो, संभालो घर की चारदीवारी रोज़।"
मैं मुस्काई, न कुछ कहा, बस दिल में ठान लिया,
अब हर 'नहीं' को 'हां' में बदलने का एलान किया।
कहा — ये राहें तेरे लिए नहीं बनीं,
तू कांटों से कैसे लड़ेगी, ये तो मर्दों की ज़मीं।
मैं चुप रही, मगर कदम रुकने न दिए,
हर कांटे से पूछा — तू कितना उखाड़ेगा मुझे?
कहा — तेरे आँसू तुझे कमज़ोर बना देंगे,
हर मोड़ पर तुझे हालात थका देंगे।
मैंने मुस्कुरा कर कहा —
"जो आँसू बहते हैं पत्थर तराशने के लिए,
वो काँच नहीं होते जो टूट जाएं किसी थपेड़े से।"