आज ये रास्ता वही है —
पर आवाज़ें गुम हैं,
कदम अब तेज़ हैं, और दिल कहीं पीछे छूट गया है।
पेड़ अब भी झुकते हैं जैसे पूछ रहे हों —
"कहाँ रह गए वो दिन जब तुम बेफिक्री से चलते थे?"
लेकिन हर बार जब यहाँ से गुज़रते हैं,
तो दिल कहता है —
"कुछ भी बदला नहीं…
बस हम थोड़े दूर हो गए हैं।
अब हर चीज़ अपनी होकर भी अजनबी लगती है।
वक़्त भी चल रहा है…
पर बचपन कहीं यहीं रुक गया था —
इन पेड़ों की छांव में,
इन सड़कों की ख़ामोशी में।
- शिवांगी विश्वकर्मा