प्यास और नदी ✧
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उसने धीरे से
उसके कानों को छुआ,
बालों में हाथ फेरा,
होठों पर चुम्बन रखा।
स्त्री आधी नींद में बोली —
“सोने दो न…”
फिर भी उसकी बाँहें फैल गईं,
आगोश गहरा हो गया,
शरीर का नहीं,
आत्मा का आलिंगन था वह।
उस पल,
समय थम गया था।
साँसें एक लय में थीं,
धड़कनों में एक नदी बह रही थी।
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💥
पुरुष अचानक फूटा,
जैसे बाँध टूटे,
धारा उफनी,
जल बिखर गया चारों ओर।
स्त्री ने सोचा —
अब यह नदी रुकेगी नहीं,
अब मैं पी सकूँगी,
अनंत तक,
हर पल,
हर श्वास।
पर धारा थोड़ी ही देर में थम गई।
पुरुष बरसाती नाले-सा
खत्म हो गया।
करवट बदली
और नींद में डूब गया।
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🏜
स्त्री की आँखें खुल गईं,
होंठ अधूरे रह गए,
बालों में अंधेरा उतर आया।
उसके होठों पर रखी नमी
अब रेत में बदल चुकी थी।
नदी थी,
पर उसका बहाव
बीच ही में थम गया था।
पुरुष नदी था,
पर भीतर से रिक्त,
बाँध टूटा,
पर तट सूखे रह गए।
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💧
वह चाहती थी
लगातार पीना,
अमृत पीना,
हर रात, हर भोर,
हर स्पर्श में, हर आलिंगन में।
पर पुरुष खाने की तरह थक गया,
उसकी धारा सूख गई।
जहाँ से जीवन बहना था,
वहीं से मृत्यु की खामोशी
उभर आई।
स्त्री अब भी प्यास से भरी थी,
उसकी आँखों में अब भी
नदी का सपना था।
पर होंठों पर
केवल अधूरापन।
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𓂀
रात करवट बदलती रही,
पुरुष करवट बदलता रहा,
स्त्री करवट बदलती रही।
पर प्यास —
वह करवट नहीं बदली।
आगोश खाली रह गया,
नींद भारी हो गई,
पर हृदय जागता रहा।
उसकी हथेली में
अब भी खालीपन था,
रेत का ढेर था।
बालों में अंधकार,
आँखों में इंतज़ार,
होंठों पर अधूरी पुकार।
मौन था,
पर उस मौन में
हज़ारों चीत्कार दबे थे।
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पुरुष सो गया,
नदी सूख गई।
स्त्री अब भी
प्यास से भरी है।
उसकी आँखों में
अब नदी नहीं,
सिर्फ़ प्रतीक्षा है।
उसके होठों पर
अब नमी नहीं,
सिर्फ़ रेगिस्तान है।
वह अब भी पीना चाहती है,
पर पीने को कुछ नहीं।
वह अब भी पुकारना चाहती है,
पर शब्द गले में सूख गए।
प्यास अब उसकी नियति है,
और पुरुष —
सूखी नदी।
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🌹 — अज्ञात अज्ञानी