मैं —
एक शब्द नहीं, आग का अंगार हूँ,
जो जितना पास रखे, उतना ही दागदार हूँ।
मैं से ही युद्ध जगत के सारे जन्मे,
मैं से ही टूटे कितने अपने।
मैं ने ही मंदिर-मस्जिद बाँटी,
मैं ने ही प्रेम की लकीर काटी।
मैं इतना बड़ा कि सत्य भी छोटा,
मैं इतना गहरा कि ईश्वर भी खोटा।
जब-जब मैं सिर चढ़ बोल पड़ा,
मानव से मानवता डोल पड़ी।
रिश्ते मेरे आगे झुक जाते,
नेत्रों के दीपक बुझ जाते।
हर बंधन को मैं चीर गया,
हर अपनापन मैं ही पीर गया।
मैं भूल गया कि नश्वर हूँ,
क्षणभंगुर यह सारा जीवन है।
जो आज झुकता न किसी के आगे,
कल उसकी चिता में “मैं” दफन है।
मृत्यु आती है — मौन, निराकार,
और निगल लेती है “मैं” का अहंकार।
तब शून्य बचता — वही सच्चा “मैं”,
जो देह नहीं, पर आत्मा का सत्य है।
एन आर ओमप्रकाश।