"ईमानदार आईना"
मनुष्य ने आईना बनाया,
फिर फ़िल्टर अपनाने लगा,
क्योंकि आईना सच बोलता था,
और सच उसे चुभने लगा।
आईने में थी हर सिलवट,
हर झूठ की परत उतरती थी,
फ़िल्टर में बस मुस्कान सजती,
ख़ामोशियाँ नहीं झलकती थीं।
आईना पूछता रहा रोज़
"तू असल में क्या बन पाया?”
फ़िल्टर बोला“दिखना ही काफ़ी है,
होना अब ज़रूरी कहाँ रहा?”
चेहरे चमके, आत्मा धुँधली,
नज़रें झूठ पर टिक गईं,
आईने टूटे घर-आँगन में,
फ़िल्टरों में ज़िंदगियाँ बिक गईं।
काश कोई दिन ऐसा आए,
जब सच फिर प्यारा हो जाए,
फ़िल्टर थमें, आईना बोले
और इंसान खुद से मिल जाए।
आर्यमौलिक