चुम्बन व नेत्र-भाषा
अधर-अधर पर झुके सलोने, मधु-रस टपकने पाए।
प्रियसी बोली मौन हृदय से, "और समीप ही आए॥"
ज्योति-ज्योति से जुड़कर बोली, नेत्र-कमल की भाषा।
स्पर्श-स्पर्श में लिख गई मन की, काम-रसिल अभिलाषा॥
कुंतल-गुच्छ खिंचकर बिखरे, वक्ष उठे थर्राकर।
श्वासों के तूफ़ान जगे जब, देह हुई अंगार॥
मदिरा-से अधर घुल गए फिर, जिह्वा जिह्वा लिपटी।
लज्जा की मर्यादा टूटी, वासना नभ में चढ़ती॥