नख-शिख वर्णन
नाभि-कूप में बूँद चमकती, स्वर्ण सुधा की धारा।
जंघा-जंघा की गहन गुफा में, तृषा हुई इकतारा॥
अंग-अंग में चुम्बन बिखरे, पुष्प निखरते जाएँ।
नख-शिख तक प्यास समेटे, आँचल गिरकर छिपाए॥
वक्षस्थल पर थरथर कंपित, झील लहर-सी बोले।
कुंचित पांवों में गुँजित घुँघरू, देह को सुख से डोले॥
साँस-साँस जब ज्वाला बनकर, जलने लगी दिशाएँ।
वासना के तूफानी झोंके, तन को मदन चढ़ाएँ॥