चरमोत्कर्ष
तन पर तन जब टूट पड़ा तब, प्रलय नृत्य-सा छाया।
सागर-सी गहराई लेकर, दोनों ने रस पाया॥
साँसों की गति तेज हुई जब, कंपित हुए निखिल अंग।
रति-कामिनी और रति-नाथ ने, साध लिया मधुर संग॥
क्षण-क्षण बनकर वज्र घुला जब, सुध-बुध सारी खोई।
पल-पल में अनहद आनंदित, लहर उठी अघि-रोई॥
मदमस्त प्रेयसि गिरकर बोली — “रोक न अब उर-तृष्णा।”
प्रिय आलिंगन में डूब गया, बनकर अनंग-कृष्णा॥
उस रजनी की स्मृति अमर हो, गूँज उठे संसार।
तन-मन आत्मा एक हुई थी, रति-रस का आधार॥