बाबा अजीब थे—शब्दों में कहानी ढूंढना आसान होता है, मगर बाबा जैसे लोग सिर्फ शब्द नहीं होते, वे अनुभव होते हैं, वे अकुलाहट होते हैं।
पाँच साल तक मैंने उन्हें देखा—एक बूढ़े मगर मेहनती इंसान को। जितना जोश मैंने नौजवानों में नहीं देखा, उतना उनके झुके कंधों में दिखता था। बाबा लोहे की बनी चीज़ें—बैठी, छलनी, चूल्हा, कढ़ाई—बेचते थे। पसीने से भीगी उनकी कमीज़ जैसे मेहनत की गवाही देती थी।
फिर एक दिन, जब मैं पड़ोस की आंटी के साथ गप्पें मार रही थी, बाबा लौटे। पाँव में फटे लेकिन मज़बूत जूते, और हाथ में वही झोली। उन्होंने मुझे देखा और बोले, “बिटिया, कपड़े धो देगी?”
शब्द मेरे गले में अटक गए। आंटी उठकर चली गई, मगर मैं वहाँ से हिल न सकी। थोड़ी झिझक के बाद मैंने ‘हाँ’ कह दिया। उन्होंने कुर्ता और धोती पकड़ा दी। जब कपड़े धोने लगी, तब महसूस हुआ कि ये महीनों से नहीं धुले थे।
फिर ये सिलसिला चलता रहा। हर महीने, दो महीने में बाबा कपड़े लेकर आ जाते। मैं अब बिना संकोच धो देती। मगर एक दिन बाबा आना बंद हो गए।
समय बीत गया। मैं बाबा को भूल गई… या शायद भूलने का नाटक करने लगी।
B.Ed. की अंतिम परीक्षा के दिन बाबा फिर दिखे। मगर इस बार उनके हाथ में लोहे का सामान नहीं, एक कटोरी थी… और वो लोगों के आगे फैला रहे थे हाथ। मेरा हृदय जैसे किसी ने मरोड़ दिया हो। मगर मेरे पास किराए भर के ही पैसे थे। आगे बढ़ गई। मगर मन न माना। दौड़कर लौटी, बैग से केला और पाँच रुपये निकालकर उनके हाथों में रख दिए।
लेकिन जब उन्होंने पैसे लिए, तो मेरे भीतर कुछ चुभ गया—मेहनत वाले हाथों में भीख?
अगले दिन फिर दिखे बाबा। इस बार कुछ खाने को रख आई। सोचा—काश मैं अमीर होती। लेकिन उस दिन समझ में आया, अमीर पैसा नहीं, दिल से होते हैं।
आख़िरी परीक्षा के दिन टिफिन में थोड़ा ज़्यादा खाना रखा। स्टेशन पहुँची… बाबा को ढूँढा… मगर वो कहीं नहीं थे।
फिर कभी नहीं मिले।
आज भी जब ज़िंदगी की भीड़ में चलती हूँ, तो कोई कोना भीतर से कहता है—क्या सच में हमने बाबा को खो दिया, या खुद को?