ऊर्जा का धर्म: संभोग से समाधि तक
✍️ लेखक: अज्ञात अज्ञानी
संभोग…
सिर्फ शारीरिक मिलन नहीं है।
यह एक बहाव है — एक पतन है — एक विसर्जन है।
जब कोई संभोग में उतरता है,
तो केवल शरीर नहीं बहता —
उसके साथ ऊर्जा बहती है,
पंचतत्व बहते हैं,
वीर्य बहता है,
चेतना का एक अंश बह जाता है।
यह बहाव एक प्रकार की मृत्यु है —
जिसमें तुम जड़ की ओर लौटते हो।
जैसे नदी समंदर में मिल कर खो जाती है,
वैसे ही संभोग के क्षणों में —
तुम प्रकृति के सबसे नीच केंद्रों में विलीन हो जाते हो।
संभोग में जितना सुख है,
उतनी ही गहराई से एक खालीपन भी है।
यह अजीब विरोधाभास है —
कि संभोग जितना तीव्र होता है,
उसके बाद की प्यास भी उतनी ही विकराल होती है।
क्यों?
क्योंकि भीतर जो कुछ था — बह गया।
और जो बह गया — वह तुम्हारी चेतन संपदा थी।
तब मन उसी जड़ संसार की देहरी पर अटक जाता है।
वह समझ नहीं पाता कि इस पार भी कोई जीवन है।
वह विषयों, स्वादों और तृप्तियों की कैद में रह जाता है।
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मन एक अद्भुत तत्व है।
मन ही मक्खी है —
जो गंदगी में रम जाए तो अधोगति को चुनती है।
और यही मन आत्मा बन सकता है —
जब प्रेम में डूब जाए, जब शुद्ध रस में लगे।
मन जहां लग जाए — वह वैसा ही हो जाता है।
यदि वह शरीर की भूख में अटका, तो वही शरीर बन जाएगा।
यदि वह प्रेम, मौन, समाधि में डूबा — तो वही ब्रह्म बन जाएगा।
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काम में ऊर्जा नीचे बहती है।
समाधि में ऊर्जा ऊपर चढ़ती है।
यह केवल दिशा का अंतर नहीं है —
यह समूचे अस्तित्व के अनुभव का अंतर है।
समाधि वह स्थिति है —
जहां कुछ भी नहीं किया जा रहा होता है,
लेकिन सब कुछ घट रहा होता है।
जैसे दूध से घी बना,
घी से दीप जला,
और वह दीप अपने आप जल रहा है…
प्रकाश दे रहा है।
यह प्रकाश कोई साधारण प्रकाश नहीं —
यह आत्मप्रकाश है।
यह उस चेतना से जुड़ता है जो अदृश्य है — जो ईश्वर है।
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ब्रह्मचर्य का अर्थ यह नहीं कि तुम कुछ “नहीं” कर रहे हो।
बल्कि यह कि तुम कुछ कर ही नहीं सकते —
क्योंकि करने वाला “तुम” ही नहीं बचा।
ऊर्जा बह रही है — लेकिन बिना कर्ता के।
यह बहाव इतना सूक्ष्म है कि उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता।
तब पंचतत्व स्थिर हो जाते हैं।
मन मौन हो जाता है।
और चेतना —
वह शुद्ध चेतना —
चैतन्य जगत में विलीन हो जाती है।
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यही ब्रह्मचर्य है।
जहां तुम्हारा मन, शरीर, काम, क्रिया — सब रुक गया,
लेकिन ऊर्जा बह रही है।
ऊर्जा ऊपर की ओर बह रही है।
जब ऐसा होता है —
तब तुम ईश्वर को नहीं खोजते,
ईश्वर स्वयं तुम्हें खोज लेता है।
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